'17 जुलाई को सूचना अधिकार एक्सप्रेस पाक्षिक की ओर से रीडर्स मीट का आयोजन
बीकानेर में हुआ। इस मीट के मुख्यवक्ता सामाजिक कार्यकर्ता राजेन्द्रसिंह भिंयाड
ने 'लोकतंत्र और मीडिया' विषय पर अपना वक्तव्य दिया। इसको लिपिबद्ध किया
कोलकातावासी युवा कहानीकार शर्मिला बोहरा जालान ने जिसे 'विनायक' के पाठकों के लिए
सामाजिक कार्यकर्ता सुरेन्द्रसिंह शेखावत ने उपलब्ध करवाया। इस हेतु विनायक दोनों
का आभार स्वीकारता है।"
यह भूमि नन्दकिशोर आचार्य जैसे साहित्यकार एवं हरीश भादानी जैसे कवियों की है,
यहां कुछ कहना दरअसल अपने अहंकार का प्रदर्शन
ही होगा।
मैं यहां एक पार्टिसिपेंट के नाते ही
आना चाहता था परन्तु मित्रों के आग्रह को टाल न सका।
सूचना अधिकार एक्सप्रेस की टैगलाइन जो होर्डिंग पर लिखी है 'वॉयस ऑफ राइट'। मैं समझता हूं यह पत्रकारिता का सेंट्रल थीम होना चाहिए।
पत्रकारिता का ही क्यों, डैमोक्रेसी का भी
और यह थीम डैमोक्रेसी का नही रहा तो इसके
लिए कोई सबसे ज्यादा जिम्मेदार है तो वह पत्रकारिता है। चाहे वह अखबार
चलानेवाले लोग हों या मैगजीन चलानेवाले।
नई बात क्या बताऊं दिल्ली में बड़े बड़े अखबार निकलते हैं, बड़ी-बड़ी मैगजीनें चलती हैं कुल जमा सौ लोगों
के इन्टरेस्ट के लिए। वे लोग चाहे पॉलिटिकल पार्टी में काम
करनेवाले हों या बिजनैस हाउस हों या बड़े पत्रकार हों। यूं समझिए कि गांव की आवाज
के लिए, हिन्दुस्तान की आवाज के
लिए दिल्ली बहरी हो गई है।
सरकार में बैठे लोगों को लगता है कि सरकार ही दुनिया है। हम ही संसार हैं।
यहां बैठे लोगों में से कोई भी इसे व्यक्तिगत रूप से न ले।
सरकार से बाहर में से जो भी लोग सरकार में आने की बात कर रहे हैं उन्हें लगता
है कि जन सरोकार की बात करने से वोट लेने देने पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।
तो मीडिया का जो कंसर्न है वह ऐसे जन सरोकारों की बात को आवाज देने से हट गया
है। मीडिया में जो संवेदना का तत्व था वह कम हो गया है। डैमोक्रेसी से भी कम हो
गया है।
आप देखिए हिंदुस्तान में जब डैमोक्रेसी का प्रारंभ हुआ था गांधीजी जैसे बड़े
नेता थे। नेहरू जैसा स्टेटस्मैन लिए बड़ा व्यक्ति प्रधानमंत्री बना। जो पहली
कैबिनेट बनी उसमें सारी विचारधारा के लोग
थे, भले ही उनमें मत विविधता
थी, लेकिन साथ थे।
श्यामाप्रसादजी जैसे हिन्दुत्व विचारधारा के
लोग, डॉ. अम्बेडकर,
मौलाना आजाद थे। जिनका जो कैलिबर था, देश के
प्रति जो भावना थी—इन लोगों ने
डैमोक्रेसी की नींव को बहुत ठीक ढंग से रखा। और मैं समझता हूं उस समय जो
पत्रकारिता थी, जो स्टैण्डर्ड था,
वह एसेंबली और पार्लियामेंट के बरक्स था।
आप देखिए आज पार्लियामेंट में न मधु लिमये है, न मधु दंडवते, न सोमनाथ दा, न अटलबिहारी
बाजपेयी, न चन्द्रशेखर हैं न
जसवंतसिंह। ऐसे लोग जिनको लोग सुनना चाहते थे। अब तो क्या है। यहां राजस्थान
विधानसभा के लीडर ऑपोजिशन भी बैठे हैं वो मेरी बात को अन्यथा न लें
मैं अफसोस के साथ कह रहा हूं कि लोग एसेंबली
का सत्र इच्छा के साथ सुनने दर्शक-दीर्घा
में जाते हैं पर वहां कुछ सुनने लायक रहा ही नहीं। हालात यह है कि अब लोगों ने
पॉलिटिकल क्लास को गंभीरता के साथ लेना
बंद कर दिया है।
सियासी पार्टी जो कोई सी भी हो, रैलियों में इतनी भीड़ खींच कर लाती है । आप क्या सोचते हैं वो आपको सुनने आती
है? वो आपको सुनने नहीं आती।
वह मजबूरी है उनकी। वो कुछ लोग आते हैं, जैसे तुमको राशन कार्ड बनवा देंगे। कुछ छोटी-छोटी इच्छाओं के नाम पर भीड़ जुटती है। लोगों को आप पर भरोसा
नहीं रहा। क्योंकि क्रेडिबिलिटी लॉस्ट हो गई है। मीडिया भी उसी में शामिल होता जा
रहा है। पॉलिटिकल षडय़न्त्र के पार्ट बन
जाते हैं मीडिया के लोग। यह बड़ी चुनौती है।
पत्रिका के संपादक कह रहे थे कि हम
हिंदुस्तान की बड़ी मैगजीन की स्थापना करना चाहते हैं। तो मैं यह कहूंगा कि आपकी
मैगजीन चाहे छोटी ही रहे पर जन सरोकार की रहे तो वह अपने आप बड़ी बन जाएगी। यह
हमारी सबसे बड़ी हित-चिंता है। आजकल पॉलिटिकल सेक्टर का पार्ट बनता जा रहा है
मीडिया, जबकि ये जो कॉरपोरेट
नेक्सस आ गया है जिसको पॉलिटिकल क्लास भी कॉपरेट करता है, मीडिया को उसे तोडऩा था। रियल कंसर्न पर बात करना शुरू कर
दें तो पत्रिका बड़ी बन जाएगी।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि चुनाव के
दिनों में सारे लीडिंग अखबार पैसे मांगते हैं, पेड न्यूज छापते हैं। मुझे बहुत अफसोस होता है और यह सबसे
बड़ी गिरावट वाली बात है कि सारा खेल कैपिटिलिज्म के इर्द-गिर्द ही खड़ा हो रहा है, तो मीडिया की महती जिम्मेदारी इस गिरावट को
रोकने की है। सूचना अधिकार एक्सप्रेस इस काम को करने में एक फीसदी रोल भी अदा करता
है तो बहुत है।
60-70 साल यह डैमोक्रेसी चल गई सिर्फ 5 या 10 फीसदी लोगों के
आस-पास, पर और नहीं चलेगी ऐसा ही
रहा तो फिर रिवोल्यूशन होगा।
माओ ने चाइना में 1949 में न्यू
डैमोक्रेसी की रेवोल्यूशन की। मेरे खयाल से लोकतंत्र स्थापना के 25 साल बाद रिवोल्यूशन डालने के लिए न्यू कल्चरल
डैमोक्रेसी की नींव डाली। हालांकि मैं उनकी डैमोक्रेसी से सहमत नहीं हूं वह
एक्स्ट्रीम में चली गई थी। पर भारत में भी रिवोल्यूशन होगी अगर हालात यही रहे तो।
लोग सब समझ रहे हैं पर उनकी मजबूरी है, चुनाव को इतना महंगा कर दिया और मीडिया जिस पर इतनी
जिम्मेदारी थी जिस पर इन का खेल बताने की जिम्मेदारी थी। वह भी इन्हीं में शामिल
हो गया तो फिर बचा क्या? जनता के रियल
कंसर्न की बात कौन करेगा। पब्लिक कंसर्न
नहीं रहेगा तो डैमोक्रेसी नहीं
रहेगी। और अगर डैमोक्रेसी नहीं रहेगी तो इससे खतरनाक इस देश के लिए कुछ नहीं होगा। पत्रिका के संचालकों से मेरा यही निवेदन है कि डैमोक्रेसी
की जड़ें जमाने के लिए आपकी पत्रिका उस आदमी की वॉयस बने जिस के आंसू पोंछनेवाला
कोई नहीं।
पत्रिका के सामने बहुत चुनौतियां है। संवेदनहीन राजनीति और संवेदनहीन
पत्रकारिता से लोकतंत्र को बचाया जाए। रियल कंसर्न की बात की जाए।
अगर यह पत्रिका जन सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध रही तो ही सफल मानी जाएगी।
हमारे एक मित्र बैठे है जो एक पॅलिटिकल पार्टी के संगठन से जुड़े हैं। अब वो कह रहे हैं कि हम
अभियान चलाकर लोगों को बताएंगे कि हमारी सरकार ने आपके लिए क्या काम किया। हास्यास्पद स्थिति है,
वो कह रहे हैं उपलब्धियां गिनाने जनता के बीच जाएंगे और जनता को पता ही नहीं है। जनता
महसूस ही नहीं कर पा रही है? यह सब नकलीपन का
काम हो रहा है।
राज्य के ठेठ आदिवासी वागड़ को देखिए,
मारवाड़ को देखिए। यूं लगता है कि सरकार यहां
से बहुत दूर है। यहां के लोगों की आवाज
सरकार तक नहीं पहुंचती। मीडिया की जिम्मेदारी है उस आवाज को दिल्ली तक पहुंचाने की, झूठ को एक्सपोज
करने की।
किताबों में विभाजन की कहानी पढ़ते हैं पर विभाजन अब भी रुका नहीं है, अब भी सियासी लोग धर्म के नाम पर जात के
नाम पर लोगों के दिलों में बंटवारे
कर रहे हैं केवल सत्ता में आने के लिए।
मीडिया इस सचाई को भी उजागर करे। ऐसे लोग जो जात धर्म के नाम पर, पॉलिटिकल पावर हासिल करने के नाम पर लोकतंत्र की हत्या कर रहे हैं वो भी
लोकतंत्र की कसमें खा-खा कर। अत: इनके इस
झूठ को उजागर करने की जिम्मेवारी भी मीडिया की है।
संवेदनहीन राजनीति और संवेदनहीन पत्रकारिता लोकतंत्र के लिए खतरा है। राजनीतिक दलों ने इंसान को इंसान
समझना बन्द कर दिया है। वह उनके लिए केवल
वोट रह गया है और यही स्थिति मीडिया की है कि उनके लिए वो सिर्फ ग्राहक रह गया है।
यह पत्रिका उस आदमी के आंसू पोंछने का काम करे जिसको कोई नहीं पोंछता। और नहीं
तो कम से कम उसे इंसान समझना शुरू कर दे तो भी बड़ी बात होगी।
मेरी शुभकामनाएं पत्रिका के साथ है,
क्षमा सहित।
7 comments:
बृजमोहनजी ने जब कहा वे एक बड़ी पत्रिका बनाना चाहते हैं , तब भिंयाड़जी ने खूबसूरती से कहा पत्रिका छोटी ही सही सरोकार बड़े होने चाहिए, मीडिया और डेमोक्रेसी में जो संवेदना का तत्व गायब है उसे लाने की कोशिश होनी चाहिए।
संयम और विनम्रता के साथ धारदार बातों का अनूठा संगम है राजेन्द्र सिंह भिंयाड़ का उद्बोधन , बेबाक बातें पर पूरी शालीनता के साथ
संयम और विनम्रता के साथ धारदार बातों का अनूठा संगम है राजेन्द्र सिंह भिंयाड़ का उद्बोधन , बेबाक बातें पर पूरी शालीनता के साथ
Democracy works best where judiciary is strong, where media is neutral and keeps the well being of maximum number of people in mind, and where elections can be held freely without any fear.
In absence of all these, democracy deteriorates merely into a game of numbers
That's why most Islamist leaders want their followers to have more and more children
What a downfall for mankind
Democracy works best where judiciary is strong, where media is neutral and keeps the well being of maximum number of people in mind, and where elections can be held freely without any fear.
In absence of all these, democracy deteriorates merely into a game of numbers
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