Monday, June 29, 2015

पप्पू यादव की मंशा के बहाने अहिंसक मूल्यों की बात

बिहार से एक सांसद हैं पप्पू यादव। बाहुबली माने जाने वाले और अपने क्षेत्र में नेताजी नाम से रुतबेदार का असल नाम राजेश रंजन है। समाजवादी पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल से ये पांचवीं बार सांसद हैं और इस बार जनता दल युनाइटेड के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव को उनकी परम्परागत सीट मधेपुरा पर राजद उम्मीदवार तौर पर पटखनी देकर संसद में पहुंचे हैं। 2008 का चुनाव वे इसलिए नहीं लड़ पाए कि सीपीएम विधायक अजित सरकार की हत्या के मामले में वे जेल में थे। इस बार सांसद चुनने के बाद राजद से निकाल दिए गए पप्पू यादव की पत्नी रंजीत रंजन सुपौल बिहार से कांग्रेस की सांसद हैं। कश्मीरी पंडित परिवार में रीवा, मध्यप्रदेश में जन्मी रंजीत का बचपन जम्मू में गुजरा और पढ़ाई पंजाब में करने के बाद दिल्ली बसी टेनिस खिलाड़ी रंजीत को पटना, बिहार में खेलते हुए 1993 में पप्पू यादव ने देखा और शादी का प्रस्ताव रख दिया। रंजीत ने सिख धर्म अपनाया और पप्पू से शादी कर ली। घनचक्कर कर देने वाले इस राजनीतिक-सामाजिक और पारिवारिक परिचय पर ही यह कथा समाप्त नहीं होती।
सामान्य भारतीय मतदाता समर्थों और बाहुबलियों से भयभीत किस तरह, कैसे रहता है इसे पप्पू यादव दम्पती से समझा जा सकता है। उसकी पीठ पर यदि अन्य कोई भरोसेमन्द हाथ, सामथ्र्यवान हो तो ओट में दिए जाने वाला एक वोट भी इधर-उधर नहीं होता ऐसे उदाहरण देश के हर क्षेत्र में देखे जा सकते हैं। कहते हैं उत्तरप्रदेश बिहार में ऐसा ज्यादा मिलता है।
पप्पू पुराण बांचने की वजह आज यह है कि कल पप्पू यादव ने अपने प्रभाव क्षेत्र जहानाबाद में समर्थकों या कहें ऐसे ही भयभीतों को संबोधित करते हुए राजनेताओंं को भद्दी गालियां दी और मंशा जाहिर की कि सांप और नेता साथ मिलें तो मैं सांप को भले ही छोड़ दूं पर नेता को जिन्दा नहीं छोडूं। राजद से निकाले जाने के बाद जनक्रांति अधिकार मोर्चा नाम से जेबी राजनीतिक पार्टी का गठन कर चुके पप्पू यादव से उम्मीद की जाती है कि वे अपनी इस मंशा पर अमल करें।
1967 या कहें 1977 के बाद व्यावहारिक भारतीय राजनीति को देखें-समझें तो लगता है कि राजनेता जैसी राजनीति और जिस तरह शासन चलाने लगे हैं उसमें विवेकहीन या कम विवेकी नागरिक अपना गुस्सा कुछ-कुछ यू हीं जाहिर करेगा। मोटा-मोट 1980 के बाद से ही बाहुबलियों या हिस्ट्रीशीटरों को लगने लगा कि ये नेता लोग उनका उपयोग अपने हित में करते तो हैं लेकिन सम्बन्धों को जाहिर करना तो दूर मौके-बेमौके उन्हें भुंडाने से भी नहीं चूकते। बीकानेर के हवाले से कुछ दिन पहले ही इसी कॉलम में 1967 के चुनावों से राजनेता गोकुलप्रसाद पुरोहित और बाहुबली सफी का उदाहरण दिया था।
ऐसे सारे बाहुबली जिनका दबदबा अविकसित या कम विकसित क्षेत्रों में रहा उन्हें पिछले तीस-पैंतीस साल से लगने लगा कि जब वोट उनके रुतबे से ही मिलते हैं तब इन नेताओं की धांधल वे क्यों धोएं। उन्होंने केवल पार्टियों से उम्मीदवारी के टिकट मांगना शुरू किया बल्कि नहीं मिलने पर पूरे हाव के साथ निर्दलीय बन या कम प्रतिष्ठित पार्टियों से चुनाव लड़, जीतने लगे हैं। कांग्रेस और यहां तक कि अपने को साफ-सुथरी कहने वाली भाजपा ने ऐसों को अपना उम्मीदवार बनाना कब का शुरू कर दिया है।
वर्तमान लोकसभा में आपराधिक आरोपों के साथ सर्वाधिक सांसद भाजपा से ही हैं। हां, अन्य पार्टियां अनुपात के हिसाब से बहुत पीछे भी नहीं हैं। राजनीति के अपराधीकरण का प्रमाण और क्या हो सकता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में कैसी भी हिंसक मंशा की पैरवी नहीं की जा सकती लेकिन पप्पू यादव इन राजनेताओं को जिस योग्य मानता है उसके कारणों से आज किसे इनकार हो सकता है। गोली तो नेता ही क्यों किसी को भी नहीं मारनी चाहिए। लेकिन वह समय अब आने को है कि मतदाताओं को ऐसों को नकारना जरूर शुरू कर देना चाहिए। इसके लिए उच्चतम न्यायालय ने प्रत्येक मतदाता को नकारने का 'नोटा' हक दे लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती देने का काम ही किया है। मतदाता को चाहिए कि कैसे भी दागी या नाकारा को अपना वोट हरगिज दें, कमोबेश सभी वैसे हों तो भी मतदान केन्द्र तक जाकर 'नोटा' बटन का प्रयोग वे करें। हाल फिलहाल कोई चुनाव नहीं है लेकिन इस तरह विचारना शुरू करेंगे तभी जरूरत होने पर पुख्ता मंशा बना पाएंगे। ऐसी अहिंसक मंशा नहीं बनाएंगे तो वे दिन अब दूर नहीं जब आम मतदाता पप्पू यादव के जैसी हिंसक मंशा बनाने को मजबूर हों।

29 जून, 2015

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