Tuesday, June 2, 2015

बहुसंख्यकों की भावना के मानी क्या समर्थों की भावना से है

भारत देश के शाकाहारी-मांसाहारी आंकड़ों की मानें तो कुल आबादी के चालीस प्रतिशत ही शाकाहारी हैं, जिनमें भी नौ प्रतिशत के लगभग अण्डा सेवन करते हैं। तथाकथित हिन्दुओं या कहें शाकाहारियों के लिए भी ये सुखद स्वांग का हेतु हो सकता है कि देश के कुल मुसलिमों में तीन प्रतिशत शाकाहारी भी हैं।
यह सब आज इसलिए कि बहुसंख्यकों की भावनाओं को मान देने के नाम पर पहले महाराष्ट्र में गोवंश मांस पर रोक लगाई गई, फिर हाल ही में मध्यप्रदेश की आंगनबाडिय़ों में कुपोषित बच्चों के खाने में निर्धारित अण्डों पर रोक वहां की सरकार ने लगा दी। ऐसा इसलिए कि इससे जैन समुदाय की भावनाएं आहत होती हैं। जैन समुदाय सामान्यत: हिन्दू सनातन परम्परा का ही हिस्सा माना जाता रहा है, हालांकि प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए ये समुदाय अपने को देश के अल्पसंख्यकों में शुमार करवाने में सफल हो गया है।
उधर एक दूसरी घटना में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, चेन्नै के अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल की मान्यता केवल इसलिए रद्द कर दी कि उसने केन्द्र की वर्तमान राजग सरकार की नीतियों की आलोचना की। तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे बहुमत की भावनाएं आहत होती हैं।
ये भावनाएं क्या सूखी घास-फूस हैं कि हलकी हवा की फटकार से ही उडऩ-छू होने को होती हैं या यह समर्थों का ढकोसला है जिसके बिना पर वे अपनी इच्छाएं दूसरों पर थोपते रहते हैं। समर्थ कैसे भी हो सकते हैंसत्ता समर्थ, धन से समर्थ, बाहुबल से समर्थ। देश में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली लागू है, ऐसे में क्या समर्थों की कसौटियां थोपी जायेंगी?
माना जाता है कि इस देश की आबादी में मुसलिम, ईसाई, पारसी, सिख और अब जैनी सब मिलाकर कुल तेइस-चौबीस प्रतिशत हैं। मान लेते हैं इनमें आधा प्रतिशत से भी कम सभी जैनी शुद्ध शाकाहारी होंगे। तब भी देश के कुल साठ प्रतिशत मांसाहारियों में सैंतीस प्रतिशत तो तथाकथित हिन्दू ही हुए। महाराष्ट्र और अन्य प्रदेशों में लगी गोवंश मांस पर रोक और अन्य प्रदेशों में भी ऐसी मांग करने वाले लोग बहुसंख्यक कैसे हो गये और कैसे इसे बहुसंख्यकों की भावनाओं को आहत करना कहा जा सकता है। सभी जानते हैं कि गोवंश मांस इस देश में सर्वाधिक सुलभ मांसाहारी खाद्यों में है।
दरअसल, यह भाषा सभी तरह के उन समर्थों की है जो अपने कहे को बहुसंख्यक के नाम से थोपते हैं। ऐसे समर्थ देश की कुल आबादी के पन्द्रह प्रतिशत भी नहीं हैं। हाल में जारी उस आंकड़े पर इन समर्थों को शर्म महसूस नहीं होती या कहें उनकी भावनाएं तो आहत नहीं होती जिसमें बताया गया है कि भारत के बीस करोड़ लोग आज भी भुखमरी के शिकार हैं, और दूसरा आंकड़ा जिसमें माना जाता है कि देश की आधी आबादी को पौष्टिक खाना सुलभ ही नहीं है। ये वही समर्थ हैं जिनके सामूहिक प्रीतिभोजों में खाए जाने से ज्यादा झूठन फिंकती है, डेढ़ सौ तक खाद्य वस्तुओं का बेशरमी भरा भोंडा प्रदर्शन होता है।
जिस जैन समाज ने मध्यप्रदेश के कुपोषित बच्चों के खाने में अण्डों की रोक लगवाई है, खुद उनके सौ बच्चे भी उन आंगनबाडिय़ों में पढऩे जाते हैं क्या? और यह भी, इनके यहां संन्यास लेने की प्रक्रिया में भी केवल जब-तब धन का भोंडा प्रदर्शन होता है वरन् इनके यहां जो बाल दीक्षाएं भी होती हैं इससे 'बचपन-बचाओÓ जैसे आन्दोलन चलाने वालों की भावनाएं क्या इसलिए आहत नहीं होती कि यह समर्थ समाज है?
किसी के बारे में कोई बात करने से पहले अपने को उस पाले में खड़ा कर विचारना चाहिए और लोकतंत्र का तकाजा भी है कि भावनाओं को छुई-मुई की भूमिका में आने दें। मीडिया को भी अपनी भाषा ठीक कर लेनी चाहिए कि बहुसंख्यक का मानी समर्थों की संख्या से नहीं पूरे देश की कुल जनसंख्या के बड़े हिस्से से होता है।

2 जून, 2015

1 comment:

l k chhajer said...

Jain was not or are not sanatani.