Friday, June 26, 2015

राजनेताई और जुमलों का समय

देश आजाद उन्नीस सौ सैंतालीस में हुआ। उन्नीस सौ सड़सठ तक देश की राजनीति एक आयामी चली, कांग्रेस को कोई खास चुनौती नहीं थी। या कहें नेहरू तब लगभग सर्वमान्य थेदेश में और पार्टी में भी। बाद नेहरू के यह सर्वमान्यता लगभग समाप्त हो गई, चुनाव जीतने के लिए नारों-जुमलों की जरूरत पडऩे लगी। 1967 के लोकसभा चुनाव में ऊंट को पहाड़ के नीचे आया देख तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस में सर्वेसर्वा बनने को आतुर इन्दिरा गांधी के हाथ-पांव फूलने लगे। तब दो फाड़ हुई पार्टी में अपने समूह और देश पर पकड़ बनाने की मंशा से इंदिरा गांधी ने अपना समाजवादी रुझान दिखाया और चौदह बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण पूर्व राजा-महाराजाओं के विशेषाधिकारों को खत्म कर अपनी प्रगतिशील छवि प्रस्तुत की। ऐसे निर्णयों से अनुकूलताएं बनी देख इंदिरा गांधी ने तय समय से ग्यारह महीने पूर्व चुनावों की घोषणा कर दी। उक्त दो बड़े निर्णयों के बाद इंदिरा गांधी ने तुरुप के रूप में 'गरीबी हटाओ' जैसा नारा दिया। फिर क्या, जनता ने आव देखा ताव, दो फाड़ हुई कांग्रेस में इंदिरा कांग्रेस नाम से जानी गई पार्टी को दो तिहाई से ज्यादा बहुमत के साथ 518 में से 352 सीटें जितवा दी। यह सफलता इंदिरा गांधी पचा नहीं पायी। अति उत्साह में केवल 1971 का युद्ध न्योत लिया बल्कि 1975 आते-आते देश में आंतरिक आपातकाल भुगतने की नौबत गई। मध्यावधि चुनाव के लिए लोकसभा का घटाया वह साल मानो आपातकाल के चलते 1977 के लोकसभा के आगामी सत्र में इस तरह जुड़ गया। मुगालते में 1977 में इंदिरा गांधी ने आखिर चुनावों की घोषणा कर दी, दक्षिण प्रदेशों को छोड़ इंदिरा की कांग्रेस शेष लगभग सभी जगह साफ हो गई। 1977 में कई पार्टियों से बनी जनता पार्टी जल्द ही भानुमती का पिटारा साबित हुई जिसके चलते 1980 में हुए मध्यावधि चुनावों में इंदिरा गांधी अच्छे खासे बहुमत से सत्ता में लौट आयीं।
1971 का चुनावी नारा जिसकी बदौलत इंदिरा की कांग्रेस जीती वह 'गरीबी हटाओ' अब एक जुमला लगने लगा है। इस नई व्याख्या के लिए भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष अमित शाह का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने राजनीतिक शब्दावली में यह नया शब्द तब जोड़ दिया जब मोदी सरकार का एक साल पूरा होने पर उनसे किसी ने पूछाविदेशों में जमा कालाधन कब जायेगा और प्रत्येक भारतीय को पन्द्रह-पन्द्रह लाख कब मिल जाएंगे? अमित शाह द्वारा बड़ी लापरवाही से दिए उस उत्तर ने एक राज खोल दिया कि वह चुनावी जुमला भर था। पाठकों की सुविधा के लिए बता दें कि जुमला शब्द अरबी है जिस के मानी 'छल की बात' भी है। यानी अमित शाह ने अनायास ही स्वीकार लिया कि कालाधन का वादा वोट लेने के लिए छलमात्र था।
भारतीय राजनीति आम जनता के साथ क्या करती रही है, इस एक शब्द ने उसके पोत चौड़े ला दिए। मोदी सरकार की इस साल की कार्यशैली से लगता है, केवल चुनावों में किए वादे जुमले हैं बल्कि उसके बाद की सभी बातें भी जुमलों से अधिक कुछ नहीं। स्वच्छ भारत अभियान, मेक इन इंडिया, पेन्शन योजनाएं और योग दिवस आदि-आदि सभी भ्रम से ज्यादा कुछ साबित नहीं हो रहे हैं। स्वच्छ भारत अभियान का हश्र किसी से छिपा नहीं है। मेक इन इंडिया के लिए परदेशी वैसा उत्साह नहीं दिखा रहे, जिसकी देश को जरूरत है। पेन्शन योजना की तलपट यह है कि अठारह की उम्र से प्रतिमाह दो सौ दस रुपये जमा करवाने वाले को अड़तीस वर्ष बाद से प्रतिमाह पांच हजार मिलेंगे। जिस तरह रुपये की कीमत पिछले सत्तर सालों से घट रही है, गति यदि वही रही तो अड़तीस साल बाद पांच हजार रुपए की गत क्या होगी, यह अन्दाजा लगाते ही सारा उत्साह ठण्डा पड़ जाता है। वैसे भी यह योजना गरीबों के लिए तो नहीं है, जिस गरीब तरुण के पास दो सौ दस रुपए होंगे वह खजाने में जमा करवाने की बजाय अपना पेट भरेगा। मोदी सचमुच कुछ करना चाहते तो भ्रष्टाचार को खत्म करने की शुरुआत राजनीति और राजनेताओं से शुरू करते, अपनी जमात में वो बदलाव करने की कोई मंशा रखते नहीं दीख रहे हैं। भ्रष्टाचार का मुख्य स्रोत राजनीति ही है। राजनेता ईमानदार हो जाएं तो शेष भ्रष्ट स्वत: सुधरने लग जाएंगे। कल मोदी ने 'स्मार्ट सिटी' का शिगुफा छोड़ दिया है। गांवों के देश को 'स्मार्ट सिटी' से हासिल क्या होगा, समझ से परे है। स्मार्ट के मानी चतुर भी है और माना जाता है कि शहरी पहले से चतुर हैंइसलिए जिस ग्रामीण को शहरियों को परोटना होता है, वह शातिर होकर आता है। लगता है, मोदी अपने ऐसे ही जुमलों के चलते याद किए जाएंगे। पता नहीं मोदी और अन्य राजनेता कब समझेंगे कि भ्रष्टाचार के तेजाब में अच्छी योजनाएं भी गल जाती हैं।

26 जून, 2015

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