Saturday, June 27, 2015

रेलफाटकों की समस्या : गिड़गिड़ाट से छुटकारा जरूरी

इस शहर में एक सींगिया महाराज थेहां, अपने ही बीकानेर शहर में। पहले वे टींटिया महाराज के नाम से जाने जाते थे लेकिन एक घटना के बाद पलटकर सींगिया महाराज हो गए। चौक के पाटों के वे स्थाई मजमेंबाज थे। जवानी में दण्ड पैलते और जोर भी आजमाते, तब के शरीर को वे जीवन-पर्यन्त परोटे रख सकते थे। लेकिन चौक के बाशिन्दे बने एक गोधे ने सब गड़बड़ कर दी। सजीले-गठीले उस जवान गोधे के करीने से निकले सींग और उनकी नोकें आमने-सामने आकर इस तरह सजी थीं कि किसी भी नजर-रसिक को अटकाए बिना नहीं रहती। यह गोधा जब से सींगिया महाराज की नजर में आया तब से ही उसके सींगों की गोलाई रड़कने लगी। कई दिन तो अपना मन मसोसे रहे, आखिर एक दिन पाटे पर बैठने वालों के सामने मंशा जीभ से छिटक ही गई। गोधे के प्रथम दर्शन के दिन से ही इनके मन में रह-रह रहा था कि क्यों ऐसे सींगों में गर्दन देकर देखी जाय। ये सुनते ही संजीदा सहपाटियों ने तो बरज दिया कि ऐसी 'गेलाई' कर मत लेना। लेकिन कुछ बोछडऱ्ो से रहा नहीं गया, मजाक में कह दिया कि देकर देख लो।
उसके बाद से जब-जब वह गोधा चौक से गुजरता, सहपाटियों में से कुछ सहमकर और कुछ कनखियों से सींगिया महाराज को देखे बिना नहीं रहते। सींगिया महाराज के भी बटबटी उठती, पर सहमी आंखों से देखने वालों की आंखों से आखें मिलते ही बटबटी की तीव्रता मद्धम हो जाती।
एक दिन पाटे पर संजीदा कम बोछडऱ्े ज्यादा थे। संजीदों के अंदेशे को पर लगने लाजिमी थे। सींगिया ने अपनी चिर इच्छा जाहिर क्या की सहपाटियों में सबसे शातिर-चतुर ने तत्काल कह दियारोज-रोज री कांय री गिड़गिड़ाट है, देर देख ले, अन्यों ने भी उसकी बात को टेर दे दी। फिर क्या था टींटिया महाराज में सींगिया महाराज ने प्रवेश कर लिया। महाराज को आते देख गोधा जब तक कुछ सचेत होता तब तक तो महाराज का सिर उसके सींगों के बीच में था। गोधा भी अचानचक की इस खेचल से क्षण भर को सकपकाया और तत्काल ही आन पड़ी उस आफत से छुटकारे के लिए अपनी गरदन को जोर से हिलाने-डुलाने लगा। जब तक महाराज को असल समझ में आई तब तक गरदन घायल हो चुकी थी। पहलवानी दावं काम आए और हाथों से सींगों को पकड़ कर गर्दन को खींच लिया। अब तक सहमे बैठे सहपाटी खींसे निपोरते खिलखिलाने लगे। उस शातिर-चतुर ने तत्काल ही पूछ लिया कि सींगिया गिड़गिड़ाट खत्म हो गई? टींटिया से तत्काल नामांतरित सींगिया ने हाजिर जवाबी दिखाते कहा 'चिरमिराट तो जरूर रैयगी पर गिड़गिड़ाट खत्म हुयगी।'
सुनी-सुनाई इस घटना का स्मरण आज तब हो आया जब शहर के वरिष्ठतम भाजपा नेताओं में से एक ओम आचार्य की सक्रियता शहर की भीषणतम रेलफाटकों की समस्या पर पढ़ी। उन्होंने रेलमंत्री सुरेश प्रभु को पत्र लिख इस समस्या से निजात दिलाने के लिए अन्य सभी समाधानी विकल्पों को नकार कर रेल बाइपास को ही उचित समाधान बताया और इसे जल्द ही अमली जामा पहनाने का आग्रह भी कर दिया।
पिछले बीस सालों से इस रेल बाइपास के लिए आन्दोलन को नेतृत्व देने वाले आरके दास गुप्ता भी जब इसी समाधान को उचित मानते हों तो क्यों शहरवासियों को एकजुट होकर इसके लिए 'भारत छोड़ो' जैसा कोई अन्तिम सत्याग्रह कर लेना चाहिए। लेकिन इससे पहले नजीर के लिए यह तथ्य जुटाने भी जरूरी हैं कि शहरी यातायात समस्याओं के समाधान के लिए देश में कहां-कहां रेल बाइपास बने हैं। यह जानना भी जरूरी है कि रेलवे की भूमिका क्या होगी। जहां तक जानकारी है उसमें प्रावधान यही है कि इस तरह की यातायात व्यवस्था की समस्याओं के समाधान के लिए रेलवे तैयार तभी होता है जब स्थानीय या प्रादेशिक शासन शत-प्रतिशत आर्थिक जिम्मेदारी उठाने को तैयार हों। ऐसे में ओम आचार्य को यह पत्र रेलमंत्री को लिखने की बजाय मुख्यमंत्री को लिखना चाहिए था। पत्र ही क्यों अभी तो सूबे की सरकार भी उसी पार्टी की है जिसके वे सम्मानित नेता हैं और प्रदेश स्तर पर उनकी पैठ भी है। क्यों नहीं मुख्यमंत्री पर दबाव बना कर रेलवे से इस पर तखमीना मंगवाएं कि इस समाधान के लिए कुल कितने हजार करोड़ रुपये का खर्च आना है। ये तखमीना प्रदेश के आगामी बजट से पर्याप्त समय पहले राज्य सरकार को हासिल हो ताकि वह भी बाइपास रेललाइन और उसके लिए बनने वाले रेलवे स्टेशनों के लिए अधिग्रहण की जाने वाली जमीनों के मुआवजे का भी अनुमान लगा ले और रेलवे से मिले खर्च के ब्योरे के साथ उसे जोड़कर आगामी बजट में इसका प्रावधान करवा सके। यह मद काफी बड़ी होनी है। अगर सब कुछ तत्परता से नहीं होगा तो आगामी बजट में रखा नहीं जा सकेगा और फिर एक साल की ठुक जानी है। शहर अब इस समस्या से गले तक अघा गया है। जो भी निर्णय हो गर साल दो साल में होकर इस सरकार के जाने से पहले काम शुरू हो जाए।  ऐसा होने पर भी बाइपास निर्माण पूरा होने तक पांच-सात साल तो इन रेल फाटकों को शहर को भुगतना ही होगा।
इस कवायद से तय यह भी हो जायेगा कि सूबे की सरकार हजारों करोड़ रुपये की इस योजना के लिए तैयार भी होती है कि नहीं। गोधे की कथा से शुरुआत करने का आशय इतना ही है कि या तो बाइपास का यह गिड़गिड़ाटा समाप्त हो या फिर शहर अपने में इतना विवेक जगा ले कि समाधान का व्यावहारिक विकल्प जो भी हो उस पर एकमत होकर सिरे चढ़ाए। अन्यथा बिना विवेक यह गिड़गिड़ाट चिरमिराट में कब बदल जाएगी कह नहीं सकते। हो यह भी सकता है कि इस 'सून बापरे' शहर को कुछ लखाव ही पड़े और भुगतता ही रहे। ऐसी सून से फिलहाल गुजर ही रहा है, जिसका प्रमाण है कि यहां के आम शहरी में इस समस्या को लेकर गिड़गिड़ाट तो है, चिरमिराट की गुंजाइश नहीं है। होती तो समाधान जो भी होना था, हो-हुआ लेता।

27 जून, 2015

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