Monday, May 4, 2015

आरक्षण : समता का मर्म

जाट समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किए जाने के विरुद्ध लगी याचिकाओं के पक्ष में आए फैसले के बाद आरक्षण पर फिर उद्वेलन है। उच्चतम न्यायालय द्वारा जाट समुदाय को आरक्षण की नकार ने यह साबित किया है कि सरकारों के ये फैसले कोरे राजनीतिक थे। पिछली सदी के अन्त में केन्द्र में बनी भाजपा नेतृत्व की सरकार के मुखिया अटलबिहारी ने जाट समुदाय को आरक्षण देने की बात क्या की, मीर मारने के चक्कर में सूबे में तब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इसे लागू ही कर दिया। फिर केन्द्र ने भी कुछ क्षेत्रों की नौकरियों में ऐसा ही किया।
अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण के लिए उसमें जातियों को शामिल करने की प्रक्रिया में सभी तरह के दबावों के बावजूद जाट समुदाय को बाहर रखा गया। ऐसी विशेषज्ञ कमेटियों पर 'वोट समूहों' के दबाव काम नहीं करते, इसीलिए ऐसा संभव हो पाया। आजादी पूर्व संयुक्त पंजाब और राजस्थान की कई रियासतों में शासन इस समुदाय का रहा है। जहां शासन नहीं भी था वहां भी यह समुदाय अपने-अपने क्षेत्रों में हमेशा प्रभावी रहा, आजादी बाद भी। आजादी बाद वोट  को कहने भर को पर्दे की ओट माना गया लेकिन इन सड़सठ वर्षों में देखा यही गया है कि जिस गांव-कस्बे में जिस जाति समूह का वर्चस्व होता है, अन्य जातियों को वोट उन्हीं के कहे से डालने होते हैं। यद्यपि इस प्रवृत्ति में लगातार शिथिलता रही है। इसका एक कारण कमजोर मानी जाने वाली जातियों में आत्मसम्मान की बढ़ोतरी है, वहीं कांग्रेस के अलावा अन्य पार्टियों का प्रभावी होना भी दूसरा कारण है। राजस्थान की बात करें तो 1980 के बाद राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की बढ़ी ताकत ने प्रभावी जातियों के समूहों को दो फाड़ किया है। इस कशमकश ने भी ग्रामीण इलाकों में कमजोर जातीय समूहों को प्रभावी जातियों के चंगुल से निकलने की गुंजाइश दी।
उच्चतम न्यायालय के ओबीसी आरक्षण पर आए इस फैसले से जहां जाट समुदाय के लोग केन्द्र सरकार पर दबाव बनाने में लगे हैं वहीं अपने को मूल ओबीसी कहने वाली जातियों को लामबन्द होने का अवसर भी मिल गया। सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, फैसले दोनों के ही न्याय के लिए होकर स्वार्थों के होते हैं। इसके लिए ये कुछ भी करने को तैयार रहते हैं।
इस फैसले के बाद जवाबी दबाव बनाने के लिए 'मूल अन्य पिछड़े' तथाकथित उच्च जातियों को साथ लेकर ताकत दिखाने में लगे हैं। इसी सिलसिले में कल बीकानेर में भी कुछ लोग जुटे और इस मुद्दे पर अपने-अपने हितों की बात की। उच्चवर्गीय जातीय समूह इस बिना पर साथ हो लिए हैं कि उन्हें भी आर्थिक आधार पर 14 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए। मूल ओबीसी इस मांग पर उनके साथ हो ली है। आरक्षण से शेष बचे इक्यावन प्रतिशत में यदि चौदह प्रतिशत आरक्षण आर्थिक आधार पर तय किया जाता है तो इसमें किसी को एतराज नहीं होना चाहिएअनुसूचित जाति, जनजातियों को भी इसका समर्थन करना चाहिए। यह चौदह प्रतिशत की मांग उस पन्द्रह प्रतिशत समुदाय के लिए ही है जिसके लिए शेष इक्यावन प्रतिशत का भण्डार खुला है। एक बात उन्हें गौर करनी चाहिए कि उनके इस चौदह प्रतिशत के आर्थिक आधार के आरक्षण में उच्चतम न्यायालय के ताजा फैसले के बाद जाट समुदाय का हक भी बनता है। संविधान की मूल भावना के अनुसार जाट समुदाय को यदि ओबीसी में आरक्षण संभव नहीं है तो उन्हें उधर समय और ऊर्जा जाया कर आरक्षण की दावेदारी इस चौदह प्रतिशत में करनी चाहिए। ऐसे समूहों को अपनी मांगों में यह भी जोड़ लेना चाहिए कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले आरक्षण में क्रीमिलेयर की व्यवस्था लागू हो ताकि इस व्यवस्था की इस बड़ी विसंगति से छुटकारा मिल सके।
कल की बीकानेर की बैठक का एक सकारात्मक पहलू यह देखा गया कि जो लोग अब तक आरक्षण व्यवस्था को ही खराब बताते रहे हैं वे भी अब आरक्षण की बात करने लगे। इस विषय पर आम आवाम में होने वाली सभी बहसों और चर्चा में 'समता का मर्म' नदारद होता है। इसे नहीं समझेंगे तब तक राजनीति और स्वार्थ दोनों हावी रहेंगे, और ऐसा ही हो रहा है।

4 मई, 2015

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