Friday, May 22, 2015

पत्रकारों के रिश्तों की मर्यादा

कोई निरा सूखा हो, जिस पर कोई दबाव काम करता हो और ही किसी प्रलोभन से पसीजे, कहा जाता है ऐसे अधिकांश भी आदर देने पर नम हो ही लेते हैं। शेष वे जो ऐसी कृतज्ञता पर भी कृतघ्न नहीं होते, न्यायाधीशों और पत्रकारों को वैसा ही होना चाहिए।
मोदी सरकार का एक वर्ष पूर्ण होने पर मीडिया कई आयोजन कर रहा है, खबरिया चैनल एबीपी न्यूज पर 'शिखर सम्मेलन' नाम से एक कार्यक्रम चल रहा है। चैनल इसमें कुछ पत्रकारों और कुछ अन्य क्षेत्रों के लोगों को आमन्त्रित करता है जिनमें कुछ के सवालों के जवाब डायस पर बैठे नेताओं को देना होते हैं। कल जब केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी इस कार्यक्रम के मुखातिब हुए तो किसी पत्रकार ने उन पर लगाये जाने वाले आरोपों का उल्लेख कर असहज कर दिया। गडकरी ने जैसी-तैसी सफाई तो दी साथ ही यह भी नत्थी कर दिया कि आपके पास जो पत्रकार मित्र बैठे हैं वे मेरी इस असलियत से वाकिफ हैं। कैमरा जब लक्षित आर्थिक मामलों के उन पत्रकार पर टिका तो मानों उन्हें अचानक अनावृत कर दिया, वे भी सहज नहीं रह पाए।
इस वाकिये के तुरन्त बाद फेसबुक पर पोस्ट लिखने की इच्छा कौंधी और लिख भी दी—'राजनेताओं, उच्च अधिकारियों और धनाढ्यों के साथ पत्रकारों के रिश्तों की मर्यादाएं तय होनी चाहिए।'
कुछ पत्रकार ये तर्क दे सकते हैं कि उनसे कुछ उगलवाने के लिए ऐसे रिश्ते जरूरी हैं तो उन्हें गांधी का वह कथन स्मरण कर लेना चाहिए कि साधन यदि शुद्ध ना हो तो शुद्ध साध्य हासिल नहीं किया जा सकता। नीरा राडिया, बरखा दत्त से लेकर स्थानीयों तक पर तटस्थ दृष्टि डालेंगे तो इस बात पर गांधी पुष्ट होते लगेंगे। अंगुली पकड़वाना ही इस चेष्टा में आएगा कि आप पहुंचा पकड़वाने को आतुर हो।
2002 के बाद से नरेन्द्र मोदी को इन पत्रकारों ने कई बार असहज किया है, एनडीटीवी के विजय त्रिवेदी की ऐतिहासिक क्लिपिंग कल से फिर वायरल है जिसमें नरेन्द्र मोदी उनके सवाल पर असहज हो लिए, नौबत पानी मांगने की गई। बावजूद इसके मोदी ऐसे कई पत्रकारों और मीडिया समूहों के मुंह में अंगुली फिरा कर जान चुके थे कि इनके तो दांत ही नहीं हैं। इस भान का उन्होंने केवल अपने चुनाव अभियान में पुरजोर लाभ लिया बल्कि जब-जब जरूरत नहीं समझते, दुत्कारते भी देर नहीं लगाते। पिछले एक वर्ष में मोदी का मीडिया के साथ व्यवहार इसका प्रमाण है।
देश आज जिस हरामखोरी, गैर जिम्मेदारी और भ्रष्टाचार से संक्रमित है उसके लिए शासन-प्रशासन और न्यायपालिका के साथ पत्रकारिता भी कम दोषी नहीं है। यह पेशा भी अन्य पेशों की तरह लगातार पटरी से उतर रहा है।
सार्वजनिक सेवाओं के जिम्मेदार यथा डॉक्टर, अध्यापक, प्रशासनिक अधिकारी, कार्मिक और व्यापारी तक इस चतुराई से नहीं चूकते कि वे कुछ पत्रकारों और प्रभावी हैसियत वालों का अतिरिक्त ध्यान रखकर या मान देकर अपनी कर्तव्यहीनता और कुकर्मों पर से उनकी नजरबन्दी कर देते हैं। सरकारी स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं के अलावा अन्य सभी सेवाओं में लगातार गिरावट पर मीडिया कितना निगहबान रहा है, किसी से नहीं छिपा। मीडिया कभी इनकी खबरें देता भी है तो उसी तर्ज पर जिस तरह शहर के क्रिकेट बुकी, सट्टेबाजी, अवैध शराब बिक्री, अवैध देह व्यापार आदि-आदि पर जिम्मेदार महकमें छापेमारी कर खानापूर्ति करते हैं। 'विनायक' का मानना है कि आजादी बाद पत्रकार ही यदि अपने धर्म पर पूरी तरह कायम रहते तो देश इस गत को प्राप्त नहीं होता।
22 मई 2015

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