Saturday, May 23, 2015

गुर्जर आन्दोलन के बहाने फिर आरक्षण की बात

गुर्जर समाज सरकारी नौकरियों में पांच प्रतिशत आरक्षण की अपनी पुरानी मांग मनवाने के लिए कहने को रेल पटरियों पे बैठा है, लेकिन इस तरह के प्रदर्शन पटरी-उतरों के ही कहलाएंगे। समाज के बड़े हिस्से को दिक्कतों में डालकर सबकी सामान्य सहानुभूति से भी वंचित होना आन्दोलन के तौर-तरीकों पर एक सवालिया निशान ही है। गुर्जर आन्दोलन का यह बीज ईर्ष्या की उपज है, जिसे खाद-पानी अन्य पिछड़ों के आरक्षण में जाटों को शामिल करने से मिला। जिस मीना जाति को अनुसूचित जनजाति में शामिल किया गया राजस्थान में उनकी बड़ी आबादी का क्षेत्र वही है जहां गुर्जर भी बहुतायत में बसते हैं। मीना-मीणा को चुनौती न्यायालय के अधीन है लेकिन इन साठ वर्षों में मीणाओं ने सरकारी नौकरियों में जो मुकाम हासिल किये हैं, वह कइयों को अब अखरने लगा है। मीणाओं को आरक्षण तय मानकों पर यदि सही भी है तो भी राजस्थान में आरक्षण प्रतिशत के हिसाब से उनकी आबादी बहुत कम है, जिसके चलते यह धारणा बलवती होने लगी है कि इस तरह तो सभी मीणा सरकारी अधिकारी और कार्मिक हो लेंगे। यदि ऐसा है तो इसमें एक बेरियर क्रीमिलेयर को आरक्षण के लाभ से वंचित करने का हो सकता था, जिसे कोई समर्थ आरक्षित नहीं चाहता।

गुर्जरों और मीणाओं के बसावटी क्षेत्र एक होने से इन दोनों समुदायों के रहन-सहन और जीवन यापन के तौर तरीकों में पिछले तीस-चालीस वर्षों में आया भारी अन्तर साफ दिखने लगा है। अब तो स्थिति ऐसी हो गई कि सामाजिक समता की यह व्यवस्था चिढ़ाने का कारण बन गई। गुर्जर समाज के युवक अपने को ठगा महसूस करने लगे। मंडल कमीशन की सिफारिशों से अन्य पिछड़ा वर्ग को 21 प्रतिशत आरक्षण दिया गया, उस इक्कीस प्रतिशत में गुर्जर भी शामिल किए गए हैं। इससे गुर्जरों को आस बंधी थी कि मीणाओं के बराबर चाहे सही वे अपना जीवन स्तर कुछ तो ठीक कर लेंगे। इसी बीच अन्य पिछड़ा वर्ग के इस आरक्षण में सरकारों ने दबाव में आकर जाटों को शामिल कर दिया। ऐसा तय मानकों और पूरी प्रक्रिया के साथ किया या नहीं यह अभी न्यायालय को अन्तिम रूप से तय करना है। इस श्रेणी में शामिल अन्य जातियों ने इसका कोई खास विरोध करके अपने पिछड़े होने का ही प्रमाण दिया। इधर गुर्जरों को लगा कि जाटों के शामिल होने के बाद ओबीसी से भरे इस प्लेटफार्म से आरक्षण की गाड़ी में चढऩा आसान नहीं होगा। इस तरह गुर्जरों के रोष को सिंचन मिलना शुरू हुआ। यह मान कर कि प्रभावी जाटों के चलते ओबीसी में तो कुछ मिलना-मिलाना नहीं है, क्यों नहीं उग्र होकर अपने लिए अलग से आरक्षण की मांग की जाय।
इधर सामान्य वर्ग जब आर्थिक आधार पर अलग से आरक्षण चाहने लगा तो एक विचार ये भी आया कि क्यों जनगणना में अनुपात के हिसाब से ही सभी जातियों का आरक्षण तय कर हर हाथ को बांसुरी थमा दी जाय तो ये ट्ठम-लट्ठी हमेशा के लिए ही समाप्त हो जायेगी। खैर, ऐसा होना नहीं है और समर्थ जब इस लालच में गया कि उसे अधिकतम हासिल हो और हर सामर्थ्यहीन और भी दीन-हीन होने की स्थिति में जा रहा हो तब तो जिसके हाथ में लाठी होगी उसके पास केवल आरक्षण होगा बल्कि अन्य सुख-सुविधाएं भी होंगी। घोर स्वार्थी मन:स्थितियों में समर्थों ने इस तरह विचारना ही छोड़ दिया कि उन्हें हासिल हर अतिरिक्त सुविधा किसी के हक पर डाका है।
अब सब सरकारों ने जब लोक कल्याण के मुखौटों के पीछे बाजार को ही पनपाने का तय कर लिया है। ऐसे में सरकारी नौकरियां भी रहेंगी कितने' दिन। फिर भी जितनी भी रहेंगी वे होंगी समर्थों के पास ही, फिर वह चाहे सामान्य वर्ग का समर्थ हो या ओबीसी का या फिर बिना क्रीमिलेयर प्रावधान के लागू एससी/एसटी आरक्षण से पनपा अनुसूचित जाति/जनजाति का समर्थ। यूं ही सब चलता रहा तो मनुष्य समाज आदिम युग के नये संस्करण का वरण कर ले तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

23 मई, 2015

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