Friday, March 28, 2014

लोकतंत्र की ताकत को समझने की जरूरत

एनडीटीवी के न्यूज पॉइण्ट कार्यक्रम में साक्षात्कार के दौरान योग प्रशिक्षक रामदेव ने अपनी लोकप्रियता के प्रमाण में कहा कि दो हजार लोग तो मैं जब मूतने के लिए बाहर जाता हूँ, तब ही इकट्ठा हो जाते हैं। शुक्र है बड़बोलेपन में उनसे यह नहीं कहा गया कि जहां मैं मूतता हूँ वहां बिच्छू पैदा हो जाते हैं। हाल ही के वर्षों की लोकप्रिय फिल्म 'थ्री इडियट्स' में एक दक्षिण भारतीय विद्यार्थी किरदार चतुर रामालिंगम उर्फ साइलेंसर शालीन हिन्दी बोलने के प्रयास में लघुशंका निवृत्ति को मूत्र विसर्जन बोलता है। रामदेव की इस शेखी पर पता नहीं क्यों चतुर रामालिंगम का स्मरण हो आया।
शेष भारत का तो पता नहीं पर भारत के अपने इस उत्तर-पश्चिमी हिस्से में अतिशयोक्ति अलंकार का भीड़ के आकलन में सर्वाधिक प्रयोग होता है. इतना होता है कि जिनकी जिम्मेदारी ही संख्या का अनुमान लगाने की होती है वे भी डफलाए बिना नहीं रहते। ऐसे जिम्मेदारों में सरकारी खुफिया विभागों के कारकूनों के अलावा मीडिया वाले भी आते हैं जो बिना तार्किक आधार के अपना अनुमान फेंकते देर नहीं लगाते। बिना यह अनुमान किए कि खड़े व्यक्ति को न्यूनतम कितने वर्गफुट जगह चाहिए और बैठे को कितना। यह भी नहीं देखते कि जिस स्थान का आकलन वे कर रहे हैं वह अनुमानित कितने वर्गफुट का है।
लगभग सवा सौ करोड़ की आबादी में अस्सी प्रतिशत यानी सौ करोड़ तो ऐसे हैं जिन्हें अन्य किसी भी तरह के ताम-झाम से कोई लेना देना नहीं होता। यानी सभा-हुड़दंगों में जाने की उनमें  सामर्थ्य है,  क्षमता कभी वे दिखलाई देते भी हैं तो इकट्ठा भेड़ों से ज्यादा की उनकी हैसियत नहीं होती, क्योंकि अधिकाँशत: वे भीड़ का हिस्सा बनने की एवज में कुछ न्यूनतम हासिल करने के लोभ में वहां जाते हैं। लगभग ऐसे से कारणों के चलते ही वे मतदान स्थल तक जाते हैं। रामदेव का जोम जिन पर निर्भर है वह देश की मात्र बीस प्रतिशत आबादी है जो धाए-धापे हैं। ऐसे ही धाए-धापों के लिए हमारे इधर कहा जाता है कि मटरके करना ऐसों को ही आता है कह सकते हैं कि योग करना भी मटरकों में आता है। मटरकों की ओर किसी का ध्यान तभी जाता है जब रोटी, कपड़ा और मकान जैसी उसकी न्यूनतम जरूरतें पूरी होने लग जाती हैं। मटरकों में लगी ऐसी बीस प्रतिशत आबादी में सरकारी और कॉरपोरेट की नौकरी करने वाले, उद्योग-धन्धों के मालिक, धनी किसान, राजनीति और दबंगई को व्यवसाय के रूप में अपना चुके लोग आते हैं। ये लोग शेष अस्सी प्रतिशत मतदाताओं को प्रलोबन से या धौंस से प्रभावित करने वाले हैं, ऐसों के ही भरोसे नये कारपोरेट घराने के रामदेव जैसे लोग उक्त उल्लेखित 'मूतने' के साथ दो हजार लोगों के खड़े होने की दंभपूर्ण भाषा बोलने का वहम पाल लेते हैं।
देश की यह अस्सी प्रतिशत या कहें असल आबादी अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों से अनभिज्ञ है, अपनी रोजमर्रा की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने में लगे होने की जद्दोजेहद के चलते ये मतदान के प्रति उदासीन भी होते हैं, इसीलिए भारत जैसा बड़ा लोकतान्त्रिक देश कुल आबादी के मात्र बीस प्रतिशत समर्थों और दबंगों के समूह के द्वारा लगभग बन्धक हैं। ये समर्थ और दबंग आजादी बाद के इन छासठ सालों में स्वार्थी से घोर स्वार्थी होते गये हैं, ये सक्षम भी इतने हैं कि शेष जनता को या तो हांक लेते हैं या सहम कर बैठने को मजबूर कर देते हैं। ऐसे में अस्सी प्रतिशत 'असल' आबादी को यानी इस लोकतंत्र रूपी हनुमान को बल का भान करवाने की जरूरत है। ऐसा करता कोई दीख नहीं रहा है, अन्ना ने कुछ उम्मीदें बंधाई लेकिन वे खुद अपने ही उद्देश्यों को लेकर जब भ्रमित हैं तो अन्यों को क्या रास्ता दिखलाते।

28 मार्च, 2014

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