Wednesday, March 12, 2014

नक्सली हिंसा

छत्तीसगढ़ के आदिवासी सुकमा जिले की झीरम घाटी में नक्सलवादियों ने कल फिर हिंसक वारदात को अंजाम दिया जिसमें सुरक्षा बलों के पन्द्रह जवानों सहित सोलह लोगों की मौत हो गई। इसी क्षेत्र में हाल के विधानसभा  चुनावों से पहले कांग्रेसी अमले पर भी ऐसा ही हमला कर कई शीर्ष नेताओं सहित उनतीस लोगों की जान नक्सलवादी कहलाने वाले ऐसे ही हिंसक समूह ने ले ली थी। ऐसे हिंसक कृत्यों की भर्त्सना और मारे गये जवानों और लोगों के परिजनों को सांत्वना दी ही जानी चाहिए। आम बातचीत में और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ऐसी घटनाओं को लेकर गुस्सा और हिंसक कृत्यों को अंजाम देने वालों को सबक सिखाने, यहां तक कि उन्हें 'जैसे को तैसा' तर्ज पर प्रतिक्रियाएं देखने सुनने को मिलती हैं। कुछ जो संजीदा लोग हैं वे इस तरह की परिस्थितियों के पैदा होने की जड़ों पर बात करने और तथ्यों को समझने-समझाने की कोशिश भी करते हैं। लेकिन तात्कालिक समाधानों के अभ्यस्तों को ऐसी बातें नागवार लगती हैं। यह भूल जाते हैं कि जिस तरह वे खुद अपने तरीके से रहना, पहनना, खाना और अन्य व्यवहारों में अनुकूलता के प्रति आग्रही होते हैं ठीक वैसी अनुकूलता की चाह आदिवासी भी रख सकते हैं। हम में से वे सभी जिन्होंने इस आधुनिकता से चुंधियाकर इसे ही सभ्यता और संस्कृति का आदर्श रूप मानने और आदिवासियों को अज्ञानी, मूर्ख, असभ्य, अशिष्ट, उद्दंड अक्खड़ घोषित करने का अधिकार हासिल कर लिया और ऐसा समझ लिया, वे भारी गफलत में हैं।
ऐसा विचारते हम भूल जाते हैं या देख-समझ नहीं पाते कि विकास के जिस लूट मॉडल को हमने अपनाया है उसके चलते इस चक्रव्यूह में हम केवल अपने हितों को हासिल करने की जुगत में लगातार फंसते ही जा रहे हैं। विकास का आदर्श मॉडल तो उसे कहा जा सकता है जिसमें मानव समाज ही नहीं समस्त जीव और वनस्पति जगत को पोषण का समान हक हासिल हो।
आजादी बाद भारतीय जनमानस को विकास के इस मॉडल के खोखलनेपन का एहसास पिछली सदी के सातवें दशक यानी आजादी के पन्द्रह सालों बाद ही होने लगा था और यह लगने लगा कि सरकारें लोकरूप का आईना होकर नये शासक वर्ग के रूप में काम करने लगी हैं। विकास में हिस्सेदारी केवल सबलों, समर्थों और चतुरों की है। सन् 1967 के लगभग दो अलग स्तरों पर प्रतिक्रियाएं देखी गईं, जहां लोकतांत्रिक प्रतिक्रिया के रूप में लोकसभा और विधानसभाओं के आम चुनावों में कांग्रेस के राज करने के तरीके को असरकारी ढंग से खारिज कर इसका एहसास करवाया वहीं बंगाल के नक्सलबाड़ी क्षेत्र में विकास और शासन के तौर तरीकों का हिंसक विरोध शुरू हुआ। वामपंथी विचार के रूप में विकसित यह प्रतिक्रिया बंगाल में तो वामपंथी सरकार बनने के बाद बेअसर हो गई। लेकिन ओडिशा, तब के बिहार के झारखण्डी और मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ी क्षेत्र से होती विरोध का यह तौर-तरीका महाराष्ट्र और आन्ध्र के कुछ उन हिस्सों तक पहुंचा जहां के लोग इस तथाकथित विकास और आधुनिकता की चपेट में नहीं आना चाहते थे। ऐसे क्षेत्रों में रोष के पक्षधर होकर नक्सलियों ने अपने विचार और धारणाएं स्थापित कर ली। 
किसी भी तरह की हिंसक प्रतिक्रियाओं और उपायों को मानवीय नहीं कहा सकता और ही इस तरह के समाधान स्थाई होते हैं।
स्थितियां विस्फोटक तब होने लगीं जब राजनीति और कॉरपोरेट हाउसों की लालची निगाहें इन क्षेत्रों की अथाह प्राकृतिक सम्पदाओं पर पड़ी और मिलीभगत से इसे हड़पने की जुगत बिठाई जाने लगी अपने तौर-तरीकों से रहने वाले वहां के बाशिन्दों को यह सब नहीं रुचा। सरकारें चलाने वाले फिर वह चाहे किसी भी दल के हों, कॉरपोरेट की इस लूट में अपनी हिस्सेदारी के चलते उन क्षेत्रों में जोर-जबरदस्ती पर उतारू हो गये और तभी से हिंसक प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने का सिलसिला जारी है। इन सरकारों ने पिछले एक अरसे से राज करने का 'फूट डालो और राज करो' अंग्रेजी तरीका अपना रखा है और आदिवासियों के एक समूह को विकास का लालच दिखाकर अपनी तरफ पलटने में सफल भी हुए हैं।
हम तथाकथित सभ्यों ने उन आदिवासी 'जाहिलों' को 'सभ्य' करने की ठान ली है, वे या तो सभ्य होंगे या उन्हें अमेरिकी रेड इण्डियन्स की तरह लुप्त होना होगा। ऐसा हम सभ्यों ने धार-विचार लिया है।

13 मार्च, 2014

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