सिखों के अलगाववादी समूह को नेतृत्व देने वाले जरनैलसिंह भिंडरावाला की मृत्यु स्वर्ण मन्दिर परिसर में चले ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार के दौरान छह जून, 1984 को हुई। बुधवार का दिन था और प्रदेश की राजधानी जयपुर से सप्ताह के अन्त में प्रकाशित होने वाले टेबलॉयड इतवारी पत्रिका ने मन्दिर परिसर के किसी कक्ष में रखे भिंडरवाला के शव का फोटो प्रकाशित कर दिया था। पूरी चाक चौबन्दी में हुए इस ऑपरेशन के दौरान घटनाओं का विवरण उतना ही सार्वजनिक किया गया जितना उसे अंजाम देने को अधिकृत अधिकारी चाहते थे। इतवारी पत्रिका ने इस चित्र को तब नासा (द नेशनल
एयरोनॉटिक्स एंड स्पेश एडमिनिस्ट्रेशन नाम की अमेरिकी अंतरिक्ष एजेन्सी) से उपलब्ध
होना बताया था। आश्चर्य तब इसलिए भी हुआ क्योंकि संचारी साधन आज के मुकाबले न के बराबर थे। यानी नासा या कहें तकनीक तब ही किसी के गोपनीय कक्ष में झांकने को सक्षम हो गई थी। भिंडरावाले के शव के उस चित्र के प्रकाशन के समय बहुत कम लोग ऐसे थे जिन्होंने इस तरह के फोटोग्राफ, को व्यक्ति
की निजता और देश की सम्प्रभुता में सेंध बताया था। नासा फिर भी सरकारी एजेन्सी थी लेकिन इस बिना पर उसने ताका-झांकी की जो
छूट ले ली-चिन्ताजनक थी। लेकिन बीते तीस वर्षों में हर किसी
को उघाडऩे में सक्षम यह तकनीक गूगल और विकीलीक्स के माध्यम से निजी क्षेत्र के हाथों में आ गई है। इस की तुलना लोक में प्रचलित इस कैबत से समझी जा सकती है जिसमें बन्दर के हाथ में उस्तरा आना कहा जाता है। इस तकनीक की सीमाएं अभी तब उजागर हुई जब इसी आठ मार्च को गायब हुए मलेशियाई बोइंग विमान का अता-पता अब तक
नहीं लग पाया।
नासा, गूगल
और विकीलीक्स की चर्चा करके इन्हे भुंडाते या सराहते यह भूल जाते हैं कि इनकी करतूतें व्यक्ति की निजता और देश की सम्प्रभुता का हनन है। यहां तक कि राजनीतिक दलों जैसे समूह सम्प्रभुता व निजता की रक्षा करने या रक्षा करने का दायित्व लेने के आकांक्षी बने हैं, कांग्रेस और भाजपा
सहित लगभग सभी दल उक्त एजेन्सियों का प्रयोग-दुरुपयोग करने से नहीं
चूक रहे हैं। शासक दलों के साथ मीडिया के टीवी, अखबार जैसे दोनों अंग और सोशल
मीडिया से जुड़े हम सभी जान बूझकर इन खतरों से अनजान हैं। ठीक उसी तरह जैसे तम्बाकू सेवन करने वाला अपने लिए कैंसर को न्योतने को नजरअन्दाज करता है।
देश का प्रधानमंत्री
होने के 'स्वयंभू' दावेदार
नरेन्द्र मोदी के अपनी उजली छवि दिखाने और उससे चन्दा बटोरने के लिए विकीलीक्स नाम के दुरुपयोग को इसी रूप में देखा जाना चाहिए। अलावा इसके विकीलीक्स से जारी सूचनाओं का उपयोग करते मीडिया इसकी पड़ताल क्यों नहीं करता कि सब कुछ गोपनीय की जानकारी रखने वाला विकीलीक्स इन सूचनाओं को लीक करने और रोकने में किनके हितों को साध रहा है। नया या सनसनीखेज हासिल करने की चाह में हम यह क्यों भूल जाते हैं कि नासा हो या गूगल या विकीलीक्स-क्या गारंटी है कि
ऐसे उस्तरे जिन हाथों में हैं उनके मन और सोच हमेशा विवेकी बने रहेंगे? छोटे-मोटे
लालच और मनोरंजन की इन लालसाओं के वशीभूत हुए हम क्या तब चेतेंगे जब कोई 'खड़दिमागी' इनके
बूते पूरी मानवीयता को कंगाल और नंगा करने पर उतारू हो जायेगा।
इस संचार
तकनीक पर हम उस तरह चिन्तित क्यों नहीं हैं जिस तरह की सामूहिक चिन्ता पिछली सदी के आखिरी दशक में क्लोनिंग से पैदा की गई डॉली नामक भेड़ के समय दिखाई थी। क्लोनिंग में प्रत्येक सजीव को हूबहू सजीव पैदा करने की तकनीक वैज्ञानिकों द्वारा हासिल करली गई थी। यानी ठीक अपने जैसा एक और व्यक्ति! किसी दस्तावेज के असल
जैसी फोटोकॉपी। लेकिन तब इस पर मानवीय अस्मिता के नाम पर कई सेंसर लागू कर दिए गए, तब भी
इसके दुरुपयोग के खतरे तो बने ही हुए हैं। बावजूद इसके हम संचार के इन साधनों पर मानवीय अस्मिता पर खतरे के हवाले से निर्मलमन से क्यसें नहीं चिन्तित हैंं। इस विचार को जानने की स्वतंत्रता के तर्क से खारिज कर सकते हैं लेकिन तब हम यह भूल जाते हैं कि स्वतंत्रता की पहली शर्त परस्परता की रक्षा भी है। एक की स्वतंत्रता दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा है तो उसे स्वतंत्रता कतई नहीं कहा जा सकता।
19 मार्च
2014
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