Thursday, May 27, 2021

ऐसे थे स्वामी संवित् सोमगिरिजी

बीकानेर के शिवबाड़ी में उजाड़ पड़े लालेश्वर महादेव मन्दिर परिसर स्थित शिवमठ की लगभग साढ़े छह वर्षों से खाली पड़ी महन्त गद्दी सम्भालने की हां स्वामी संवित सोमगिरिजी ने भरी तो इस परिसर के साथ लगाव रखने वालों की आस्था उल्लासित हुई। 20 नवम्बर 1994 में उन्होंने यह जिम्मेदारी संभाली। बीकानेर में ही पले-बढ़े जीवनराम (संन्यास पूर्व नाम) मैकेनिकल इंजीनियरिंग की कक्षाएं लेते-लेते विरक्त हुए और स्वामी ईश्वरानन्दजी गिरि से दीक्षा लेकर विज्ञान से अध्यात्म की ओर प्रवृत्त हो लिए। 

छात्र जीवन में कविताएं लिखने वाले जीवनराम से यहां के साहित्यिक क्षेत्र के अनेक लोग परिचित थे। शिवमठ के महंत बनने पर उन्हीं में से एक कवि-नाटककार नन्दकिशोर आचार्य ने जिज्ञासा रखी कि संन्यासी होने के बाद महंत होना प्रबन्धकीय पचड़ों में फंसना नहीं है? सोमगिरिजी ने उत्तर दिया कि उनके जीवन की पहली आध्यात्मिक अनुभूति मुझे इसी मन्दिर में हुई थी, जब इसी परिसर स्थित मठ की जिम्मेदारी का प्रस्ताव मिला तो मैंने प्रसाद समझकर ग्रहण कर लिया। 

सोमगिरिजी की शोभा सुन चुका था इसलिए उनके बीकानेर लौटने पर उन्हें सुनने की उत्सुकता जगी रही। जल्द ही अवसर भी आ गया। 1995 की अक्षय तृतीया को परशुराम जयंती थी। बीकानेर के सर्व विप्र समाज ने रानी बाजार स्थित गौड़ सभा भवन में सोमगिरिजी का उद्बोधन रखा। वर्ग विशेष का आयोजन होने के बावजूद डॉ. श्रीलाल मोहता से चर्चा की और दोनों ने जाना तय कर लिया। गौड़ सभा भवन के खचाखच भरे प्रांगण में बैठने का स्थान नहीं बचा सो हम किनारे खड़े हो गये। उस एक में मैं बाहरी कुछ लोगों की नजर में आया भी, लेकिन ना वे मुखर हुए और ना मैंने संज्ञान लिया। सोमगिरिजी ने प्रवचन शुरू किया-उपस्थितों की आकांक्षाओं के उलट उन्होंने बजाय विप्र-गौरव या विप्र हित की बात करने के, उन्होंने सामाजिक समरसता की जरूरत बताते हुए समाज में दबे-कुचले वर्गों को बराबरी का सम्मान देने की बात की, सर्व समाज के कल्याण की बात की। स्वामीजी का पूरा प्रवचन इसी लय में था। मैं और डॉ. श्रीलाल मोहता इशारों में एक दूसरे को आश्वस्त करते रहे कि हमारा आना सार्थक हुआ। जैसी उम्मीद थी, स्वामीजी वैसा ही बोले।

हमारे बचपन और किशोरवय में शिवबाड़ी का मन्दिर परिसर हरा-भरा और सुव्यवस्थित था। वह वर्षों से बिना महन्त के उजाड़ और जर्जर होने के कगार पर था। स्वामी सोमगिरिजी के आते ही परिसर स्पन्दित होने लगा। 'राजकीय प्रत्यक्ष प्रभार श्रेणी' में होने के बावजूद स्वामीजी ने इस परिसर को 'सुपुर्दगी श्रेणी' का मानकर वर्षों तक लगातार ना केवल मरम्मत का काम चलाया बल्कि पौधारोपण के साथ-साथ दूब के मैदान भी विकसित किये। श्रद्धालुओं की रौनक बढ़ते-बढ़ते मन्दिर परिसर अपने पुराने वैभव को लौटा लाया। हालांकि आगौर क्षेत्र में कॉलोनियों की बसावट से शिवबाड़ी तालाब इन वर्षों में लबालब कभी नहीं हुआ।

गांव से शहरी बस्ती बना दलित-बहुल शिवबाड़ी के दलित बाशिन्दों ने अपने क्षेत्र के मन्दिरों में प्रवेश का कभी सोचा नहीं होगा। लेकिन सोमगिरिजी के आने के बाद उन्हें ना केवल मन्दिर में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित किया गया बल्कि मठ की गद्दी वाले भवन में बैठकर प्रवचन सुनने की छूट दलितों को दी गयी। शाम के नियमित आयोजनों में शिवबाड़ी के दलित शिरकत करने लगे। बस्ती में लालेश्वर-डूंगरेश्वर महादेव मन्दिर के अलावा दो भव्य मन्दिर और भी हैं—एक जैन मन्दिर और दूसरा लक्ष्मीनाथ मन्दिर, लेकिन दलितों को ससम्मान प्रवेश सोमगिरिजी के बाद शिवबाड़ी मन्दिर में ही मिला।

और यह भी कि मठ परिसर में प्रवास के नियमों में सोमगिरिजी ने लिखवा दिया कि कोई प्रवासी साधु-संन्यासी, पंडित मन्दिर परिसर में रहते तंत्र-मंत्र-ज्योतिष की बात नहीं कर सकेगा। स्वामीजी संकीर्णता और कट्टरपन को पसंद नहीं करते थे, संघी पठन सामग्री (तब सोशल मीडिया नहीं आया था) पढऩे वाले की जानकारी उन्होंने मुझे बड़ी हिकारत से दी।

ऐसी ही तकलीफ स्वामीजी ने एक बार और जाहिर की। लालेश्वर और डूंगरेश्वर महादेव मन्दिर को राजकीय प्रत्यक्ष प्रभार श्रेणी से सुपुर्दगी श्रेणी में लाने के लिए स्वामीजी ने हर तरह से प्रयास किये। वर्ष 2007-08 की बात है। स्वामीजी के एक प्रकल्प 'मानव प्रबोधन प्रन्यास' के ट्रस्टी सूबे से संबंधित मंत्री से इस बाबत मिले। मंत्रीजी के आदमी ने एक बड़ी रकम की मांग की। ट्रस्टियों ने इस बिना पर स्वामीजी को तैयार कर लिया कि इस रकम को हम जुटायेंगे, आप तो बस हां कर दो। स्वामीजी ने मन मसोज कर एक बार तो हां कर दी। ट्रस्टी रकम लेकर जयपुर के लिए एक सुबह रवाना भी हो गये, लेकिन स्वामीजी की आत्मा इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी, उक्त ट्रस्टी को फोन करके बीच रास्ते सीकर से वापस बुलवा लिया। स्वामीजी ने इस वाकिये का जिक्र करते हुए कहा कि देखो—हिन्दू हित की बात करने वाली पार्टी के मंत्रियों की यह स्थिति है कि मन्दिर को भी नहीं छोड़ते।

एक दिन मैं दर्शन लाभ के लिए शिवबाड़ी गया तो स्वामीजी मठ परिसर में नहीं थे। पता लगा कि पीछे कुएं की तरफ गये हैं। वे वहां टैंकर भरने की पर्चियां काट रहे थे। मैं पहुंचा तो स्वामीजी ने अपनी समस्या बतायी कि क्या करूं आज पर्ची काटने वाला नहीं आया। मन्दिर परिसर में पिस्टल शूटिंग रेंज के माध्यम से युवकों को निशानेबाजी का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। यहां से प्रशिक्षित युवकों ने नेशनल तक नाम कमाया। लेकिन देवस्थान विभाग ने इस तरह की गतिविधियों पर एतराज जता दिया। आखिर संवित् शूटिंग संस्थान के लिए दूसरी जमीन लेकर रेंज वहां विकसित करनी पड़ी।

सरकारी होने के बावजूद मन्दिर-मठ की लम्बी चौड़ी सम्पत्तियों की सार-संभाल की प्रबन्धकीय और अदालती पेचीदगियों के चलते स्वामीजी अपने अलग तरह के आचार-व्यवहार को लम्बे समय तक साध नहीं पाए। जिसकी एक बड़ी वजह यह कि जिन समान विचार के लोगों से वे यह उम्मीद करते थे कि समय देकर मन्दिर-मठ व्यवस्था और आयोजनों में सहयोग करेंगे, उनमें से कोई भी उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। हुआ यह कि जिस तरह के लोग मन्दिर-मठ से जुड़े उनकी अपनी सोच के दबाव भी कम नहीं थे वहीं रोजमर्रा के राजकीय झंझटों से मुक्ति के लिए मन्दिर को 'सुपुर्दगी श्रेणी' में लाने के प्रयासों  के चलते स्वामीजी अपने व्यवहार को सहयोगियों की अनुकूलता अनुसार ढालने लग गये। इसी वजह से स्वामीजी की सोच में भी बदलाव आने लगा।

बावजूद इन सबके मन्दिर भूमि पर लगातार नवनिर्माण, जीर्णोद्धार और चारदिवारी-तारबन्दी करके पड़े-पौधों से पूरे परिसर को हरा-भरा और भव्य बनाने में स्वामीजी लगे रहे। सहयोगियों की संगत और सोशल मीडिया पर फैलाये जा रहे साम्प्रदायिक झूठ से स्वामीजी प्रभावित होने लगे। पांच-सात वर्ष पूर्व की बात है, मैं स्वामीजी के एक प्रवचन में गया हुआ था। वह पूरा प्रवचन बजाय आध्यात्म के तथाकथित हिन्दुत्वी था। स्वामीजी को लगने लगा हिन्दू धर्म पर जबरदस्त खतरा मंडरा रहा है। उन्होंने कहा कि असम में 3 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिये आ गये हैं और वे वहां की धर्म-संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं। इन प्रवचनों बाद एक दिन मैं सेवा में गया तो पूछ बैठा, महाराज यह तीन करोड़ घुसपैठिये वाला तथ्य सही नहीं, कहां से आया। इधर-उधर देखते हुए स्वामीजी बोले कि सभी कह रहे हैं। जबकि तब असम की कुल जनसंख्या ही ढाई से पौने तीन करोड़ थी। उसके बाद केन्द्र और असम दोनों जगह आई भाजपा की सरकार के चलते वहां एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन) करवाई गयी। एनआरसी के आंकड़ों के अनुसार वहां घुसपैठिए 19 लाख के लगभग ही निकले जिनमें मुस्लिम घुसपैठिये 5 से 6 लाख के बीच ही हैं, शेष में से 12 लाख हिन्दू और कुछ अन्य।

झूठ का जहर जिस तरह चढ़ता है उसका एक और उदाहरण साझा करना चाहूंगा। 7-8 वर्ष पूर्व की बात होगी, स्वामीजी के गुरु श्री ईश्वरानंदजी का शिवबाड़ी मन्दिर परिसर में प्रवचन था। उनकी शोभा के आकर्षण में सुनने जाना ही था। ईश्वरानंदजी का आध्यात्मिक प्रवचन सुनकर अभिभूत हुआ। 

कुछेक वर्ष पूर्व ईश्वरानंदजी का बीकानेर फिर पधारना हुआ। स्थानीय पार्क पैराडाइज में प्रवचन रखा गया। अपने उसी जिज्ञासु भाव से मैं प्रवचन सुनने गया, जो भाव उनके पिछले प्रवचन से पल्लवित हुआ था। लेकिन वहां क्या सुनता हूं कि ईश्वरानन्दजी भी बजाय अध्यात्म के धर्म-संस्कृति पर खतरे की तर्ज पर ही बोले—नोर्थ ईस्ट के हवाले से उनका पूरा भाषण सोशल मीडिया के झूठ से संक्रमित था। उस दिन मैं बहुत निराश हुआ।

इस तरह बनायी और घड़ी गयी परिस्थितियां विचार में, व्यवहार में जिस तरह बदलाव लाती हैं, वह संन्यास के साधना मार्ग में विचलन पैदा करती ही है। यहां तक 2017-18 में स्वामी सोमगिरिजी मध्यप्रदेश सरकार के बुलावे पर दल विशेष द्वारा प्रायोजित धार्मिक आयोजनों के संयोजन में लग गये। स्वामीजी के विचार-व्यवहार में आए परिवर्तन से समझ में आ गया कि महन्त जैसे प्रबन्धकीय पद को ग्रहण करने पर श्री नन्दकिशोर आचार्य ने शंका क्यों प्रकट की थी।

मन्दिर परिसर को सुपुर्दगी श्रेणी में करवाने की स्वामी सोमगिरिजी की उत्कट इच्छा में आस्था के चलते स्वामीजी के बिना कहे देवस्थान विभाग में पदारूढ़ अपने परिचित आयुक्त से जयपुर सचिवालय में मिला और जानना चाहा कि प्रत्यक्ष प्रभार से सुपुर्दगी श्रेणी में करने पर सरकार को एतराज क्यों है, जबकि स्वामीजी ना केवल भले हैं बल्कि पूरे परिसर की देखभाल बहुत संजीदगी से कर रहे हैं। उन्हें यह भी बताया कि स्वामीजी के मठ संभालने से पूर्व मन्दिर परिसर की इतनी लम्बी-चौड़ी जमीन पर कब्जे होने लगे थे। आयुक्त महोदय ने कहा 'सांखलाजी अभी तो सोमगिरिजी हैं, भले हैं। बाद में कौन किस तरह के लोग आते हैं, क्या पता। देवस्थान विभाग की सम्पत्तियों के साथ क्या-क्या नहीं हो रहा, आपको पता ही है।'

अब जब स्वामीजी नहीं रहे तो उनके उत्तराधिकारियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे ना केवल स्वामी सोमगिरिजी की मूल (प्रारंभिक) भावना को चेतन रखेंगे बल्कि उक्त आयुक्त महोदय की आशंकाओं को भी निर्मूल साबित करेंगे। इतना ही नहीं, जिस परिसर को स्वामीजी ने अपनी साधना की कीमत पर रात-दिन चमन बनाये रखा, उसे भी क्षीण नहीं होने देंगे। एक बात और स्वामीजी ने इस गद्दी पर आसीन होने के बाद कितने तरह के लोगों को जोड़ा और परोटा उसी भावना के साथ ना केवल उन सभी को जोड़े रखना, नये-भले और सच्चे लोगों को और जोडऩा कम चुनौतीपूर्ण नहीं है।

स्वामीजी से मिले सान्निध्य की अनुभूतियां तथा अनुभव और भी अनेक हैं लेकिन इस बार इतना ही...

—दीपचन्द सांखला

27 मई, 2021

Wednesday, May 19, 2021

मुक्तप्राण की जयध्वनि : डॉ. श्रीलाल मोहता

हृदय हिला हुआ है, इसकी प्रतीती लिखते समय काँपती अंगुलियों से हो रही है। डॉ. श्रीलाल मोहता मानो बीकानेर की संस्कृति के ईश्वर-नियुक्त राजदूत थे। उनकी उपस्थिति में एक अद्भुत ऋजुता परिलक्षित होती थी। वे अपनी चुप्पी तक में सदाशयता की एक मुखर मूर्ति थे। गत तीन दशक से वे 'परम्परा' संस्था के निमित्त से लोक और लोकेतर के अर्थ के अनुसंधान में, बीकानेर के समग्र सांस्कृतिक जन को अपने साथ जोड़कर अग्रसर थे। इस उपक्रम के अनेक अंगोपांग थे। आज (16 मई, 2021) सुबह उनके न रहने के समाचार की पीड़ा की सांत्वना मैंने उन्हीं की संस्था के एक प्रकाशन—गुजराती चिन्तक मकरंद दवे की कृति 'तपोवन के पथ पर'—के पारायण में खोजी। इसके प्रकाशकीय में डॉ. श्रीलाल मोहता मकरंद दवे का नहीं, मानो अपना ही परिचय दे रहे हैं। लिखते हैं, 'श्री मकरंद दवे प्राचीनता के पक्षधर तो हैं, लेकिन साथ ही वे आधुनिकता को नकारते भी नहीं हैं, वे पुराने प्रेतों को जीवित नहीं करना चाहते हैं, आज के आधुनिक विचारक, जिन्हें वे ऋषितुल्य चिन्तक कहते हैं, जैसे एरिक फ्रॉम, मार्टिन बूबर, विक्टर फ्रेकल, रूथ बेनेडिक्ट या फिर अब्राहम मास्लो आदि ने जो कुछ कहा है, उन्हीं बातों को वे हमारी संस्कृति के मूलाक्षर में कहना चाहते हैं।' डॉ. मोहता ने समाहार में विलक्षण पद-प्रयोग किया है—हमारी संस्कृति के मूलाक्षर। कदाचित् इन्हीं पर उनकी अपनी आंख भी टिकी हुई थी।

यद्यपि कुछ वर्षों से उन्हें 'लोक कला मर्मज्ञÓ के विरुद से अभिहित किया जाता रहा था। मेरे विचार में यह उनके अनेकायामी बौद्धिक और सांस्कृतिक व्यक्तित्व का एकायामी न्यूनीकरण ही था। वे क्या नहीं थे? संगीत, छन्द, आयुर्वेद, इतिहास, पुराण, नई और पुरानी कविता, दर्शनशास्त्र समेत ज्ञान के कितने पक्ष थे जिन पर उनके साथ गपशप की शैली में गंभीर विमर्श किया जा सकता था। उन्होंने हिन्दी के सर्वाधिक सघनरूपेण सत्यान्वेषी कवि नरेश मेहता पर शोध-लेखन कर वाचस्पति (Ph.D) की उपाधि प्राप्त की थी। उनकी असाधारण विनोद-वृत्ति ने उन्हें ज्ञान के अभिमान से सदा दूर रखा। एक अर्थ में वे हनुमानजी की तरह थे। उन्हें उनका गंभीर ज्ञान-पराक्रम अक्सर याद दिलाना पड़ता था। जैसे किष्किंधा कांड के अन्त में जामवन्त हनुमानजी को याद दिलाते हैं—पवन तनय बल पवन समाना। बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना।। वे भी तो डॉ. छगन मोहता जैसे समकालीन ऋषि-मनीषी के तनय थे। हनुमानजी और उनमें एक ही अन्तर था; हनुमान दुष्टों को दंड देते थे, किन्तु डॉ. श्रीलाल मोहता ने जीवन में किसी को दंडित या प्रताडि़त किया ही नहीं। वे अच्छे अथवा बुरे, अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रत्येक व्यवहार का एक ही उत्तर देते थे-सरलप्राण मुस्कान मात्र। उनके जैसा संपूर्णरूपेण सकारात्मक मनुष्य शहर तो क्या संसार में मिलना भी दुर्लभ है। उन्हें किसी के अवगुणों से मानो कुछ लेना-देना ही नहीं था; और गुण ग्राहकी ऐसी कि मेरे जैसे अनेक छोटों के मान देने पर भी वे संकोच की सांसत में घिरे दिखाई पड़ते। उनकी यह अनसूया-वृत्ति इतनी सिद्ध थी कि भरी सभा में अपमान होने पर भी वे अविचलित भाव से अपनी भूमिका निभाते रहते थे।

मुझे मिला 'साहित्य अकादमी' पुरस्कार भी एक तरह से उन्हीं का कर्तृत्व कहा जा सकता है। नब्बे के दशक में उन्होंने युवा रचनाशीलता को मंच देने के लिए 'प्रज्ञा परिवृत' के बैनर तले एक मासिक एकल काव्य-पाठ शृंखला शुरू की थी। मैं कहानियां लिखकर यत्किंचित् पहचान अर्जित कर चुका था, किन्तु कविताएं लिखना मेरा एक गोपन व्यापार था। उन्हीं के लाड़ भरे आग्रह पर मैंने अपनी राजस्थानी कविताओं को एकल-पाठ के लिए इकजाई किया था। इन्हीं कविताओं के संकलन 'उतर्यो है आभो' पर मुझे वर्ष 1997 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उनके कहने पर मैंने कितने ही मौलिक सर्जनात्मक प्रयोग किए। उन्होंने 'परम्परा' की 'आस्वाद' शृंखला में मुझसे वात्स्यायनजी (अज्ञेय) की कविताओं का पाठ करवाया, जो एक अद्भुत काव्य-संध्या थी। संस्था की छत पर हुए इस पाठ में बादलों के सुन्दर वितान के बीच इन्द्रधनुष दिखाई पड़ रहा था। मानो वात्स्यानजी ही नभ के झरोखे से अपनी कविताएं सुन रहे थे। उनके साथ कई पुस्तकें संपादित कीं। 'गणगौर गाथा' की सारी दृष्टि, समूचा विचार उनका था, पर जब भी मिलते सारे श्रेय का भागीदार मुझे बना देते थे। पीयूष दईया के साथ उन्होंने 'लोक का आलोक' संपादित की, जो हिन्दी में लोक-विमर्श की एक सर्वाधिक विलक्षण कृति है।

मैं उन्हें याद करता रहूंगा और उनके न रहने पर जो-जो दिल पर गुजरेगी, उसे रकम करता (लिखता) रहूंगा। फैज़ अहमद 'फैज़ इस 'घनीभूत पीड़ा' की घड़ी में मुझसे कह रहे हैं :

हम परवरिश-ए-लौह-ओ-कलम करते रहेंगे

जो दिल पे गुजरती है रक़म करते रहेंगे।

(शीर्षक : मकरंद दवे की सन्दर्भित कृति की 'भूमिका' से साभार।)

—मालचन्द तिवाड़ी

Thursday, April 15, 2021

ज्योतिराव फुले और भीमराव अंबेडकर

ज्योतिराव फुले का जन्म 11 अप्रेल, 1827 को और डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रेल 1891 को। 19वीं ईस्वी शताब्दी के अप्रेल में जन्मीं दोनों विभूतियों ने भारतीय समाज के दबे-कुचले वर्गों में आत्मविश्वास का उल्लेखनीय भाव पैदा किया। कह सकते हैं ज्योतिराव फुले ने जिस क्षेत्र में दबे-कुचले वर्गों में आत्मविश्वास जगाने के लिए जो जमीन तैयार की—डॉ. अम्बेडकर उसी में फले-फूले। मध्यप्रदेश के मालवा से महाराष्ट्र के कोंकण और विदर्भ के बीच का भू-भाग ज्योतिराव फुले की सक्रीयता से जाग्रत हुआ। इन दोनों विभूतियों पर फेसबुक मित्र संजय श्रमण ने एक अच्छी टिप्पणी की है जिसे 'विनायक' के पाठकों से साझा करना जरूरी लगा।

यह अनायास नहीं है कि इसके ठीक उलट 'क्रिया की प्रतिक्रिया' होने का कुतर्क देने वाली विचारधारा के उच्चवर्गीय संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवर प्रतिक्रिया के तौर पर उसी क्षेत्र में पनपे, और यह भी कि इसी संगठन के दूसरे और तीसरे सर संघचालक भी इसी क्षेत्र से आए जहां ज्योतिराव फुले ने दलित और पिछड़ों को जागरूक किया। —दीपचन्द सांखला

ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब अंबेडकर का जीवन और कर्तृत्व बहुत ही बारीकी से समझे जाने योग्य है। आज जिस तरह की परिस्थितियां हैं उनमें ये आवश्यकता और अधिक मुखर और जरूरी बन पड़ी है।

दलित आन्दोलन या दलित अस्मिता को स्थापित करने के विचार में भी एक 'क्रोनोलॉजिकल' प्रवृत्ति है, समय के क्रम में उसमें एक से दूसरे पायदान तक विकसित होने का एक पैटर्न है और एक सोपान से दूसरे सोपान में प्रवेश करने के अपने कारण हैं। ये कारण सावधानी से समझे और समझाये जा सकते हैं।

अधिक विस्तार में न जाकर ज्योतिबा फुले और अंबेडकर के उठाये कदमों को एक साथ रखकर देखें। दोनों में एक जैसी त्वरा और स्पष्टता है। समय और परिस्थिति के अनुकूल दलित समाज के मनोविज्ञान को पढऩे, गढऩे और एक सामूहिक शुभ की दिशा में उसे प्रवृत्त करने की दोनों में मजबूत तैयारी दिखती है। और चूंकि कालक्रम में उनकी स्थितियां और उनसे अपेक्षाएं भिन्न हैं, इसलिए एक ही ध्येय की प्राप्ति के लिए उठाये गए उनके कदमों में समानता होते हुए भी कुछ विशिष्ट अंतर भी नजर आते हैं। 

ज्योतिबा के समय में जब कि शिक्षा दलितों के लिए दुर्लभ थी, और शोषण के हथियार के रूप में निरक्षरता और अंधविश्वास जैसे 'भोले-भाले' कारणों को ही मुख्य कारण माना जा सकता था—ऐसे वातावरण में शिक्षा और कुरीति निवारण—इन दो उपायों पर पूरी ऊर्जा लगा देना आसान था, न केवल आसान था बल्कि यही संभव भी था।  और यही ज्योतिबा ने अपने जीवन में किया भी। क्रान्ति-दृष्टाओं की नैदानिक दूरदृष्टि और चिकित्सा कौशल की सफलता का निर्धारण भी समय और परिस्थितियां ही करती हैं।  

इस विवशता से इतिहास का कोई क्रांतिकारी या महापुरुष कभी नहीं बच सका है।  ज्योतिबा और उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी अंबेडकर के कर्तृत्व में जो भेद हैं उन्हें भी इस विवशता के आलोक में देखना उपयोगी है। इसलिए नहीं कि एक बार बन चुके इतिहास में अतीत से भविष्य की ओर चुने गये मार्ग को हम इस भांति पहचान सकेंगे, बल्कि इसलिए भी कि अभी के जागृत वर्तमान से भविष्य की ओर जाने वाले मार्ग के लिए पाथेय भी हमें इसी से मिलेगा।

ज्योतिबा के समय की 'चुनौती' और अंबेडकर के समय के 'अवसर' को तत्कालीन दलित समाज की उभर रही चेतना और समसामयिक जगत में उभर रहे अवसरों और चुनौतियों की युति से जोड़कर देखना होगा। जहां ज्योतिबा एक पगडंडी बनाते हैं उसी को अंबेडकर एक राजमार्ग में बदलकर न केवल यात्रा की दशा बदलते हैं बल्कि गंतव्य की दिशा भी बदल देते हैं।

नए लक्ष्य के परिभाषण के लिए अंबेडकर न केवल मार्ग और लक्ष्य की पुनर्रचना करते हैं बल्कि अतीत में खो गए अन्य मार्गों और लक्ष्यों का भी पुनरुद्धार करते चलते हैं। फुले में जो शुरुआती लहर है वो अंबेडकर में प्रौढ़ सुनामी बनकर सामने आती है और एक नैतिक आग्रह और सुधार से आरम्भ हुआ सिलसिला, किसी खो गए सुनहरे अतीत को भविष्य में प्रक्षेपित करने लगता है।

आगे यही प्रक्षेपण अतीत में छीन लिए गए 'अधिकार' को फिर से पाने की सामूहिक प्यास में बदल जाता है।

इस यात्रा में पहला हिस्सा जो शिक्षा, साक्षरता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करने जैसे नितांत निजी गुणों के परिष्कार में ले जाता था, वहीं दूसरा हिस्सा अधिकार, समानता और आत्मसम्मान जैसे कहीं अधिक व्यापक, इतिहास सिद्ध और वैश्विक विचारों के समर्थन में कहीं अधिक निर्णायक जन-संगठन में ले जाता है। इतना ही नहीं, बल्कि इसके साधन और परिणाम स्वरूप राजनीतिक उपायों की खोज, निर्माण और पालन भी आरम्भ हो जाता है।

यह नया विकास स्वतंत्रता पश्चात की राष्ट्रीय और स्थानीय राजनीति में बहुतेरी नयी प्रवृत्तियों को जन्म देता है। जो समाज हजारों साल से निचली जातियों को अछूत समझता आया था उसकी राजनीतिक रणनीति में जाति का समीकरण सर्वाधिक पवित्र साध्य बन गया।

ये ज्योतिबा और अंबेडकर का किया हुआ चमत्कार है, जिसकी भारत जैसे रुढि़वादी समाज ने कभी कल्पना भी न की थी। यहां न केवल एक रेखीय क्रम में अधिकारों की मांग बढ़ती जाती है बल्कि उन्हें अपने दम पर हासिल करने की क्षमता भी बढ़ती जाती है। 

इसके साथ-साथ इतिहास और धार्मिक ग्रंथों के अंधेरे और सड़ांध-भरे तलघरों में घुसकर शोषण और दमन की यांत्रिकी को बेनकाब करने का विज्ञान भी विकसित होता जाता है। ये बहुआयामी प्रवृत्तियां जहां एक साथ एक ही समय में इतनी दिशाओं से आक्रमण करती हैं कि शोषक और रुढि़वादी वर्ग इससे हताश होकर 'आत्मरक्षण' की आक्रामक मुद्रा में आ जाता है।

एक विस्मृत और शोषित अतीत की राख से उभरकर भविष्य के लिए सम्मान और समानता का दावा करती हुई ये दलित चेतना, इस पृष्ठभूमि में लगातार आगे बढ़ती जाती है। —संजय श्रमण

15 अप्रेल, 2021

Thursday, April 8, 2021

पाती अशोक गहलोत के नाम/संदर्भ : दांडी मार्च समापन दिवस संगोष्ठी

 मान्य अशोकजी,

नहीं जानता इस पत्र को भी पढऩे का समय आप निकाल पाएंगे। हो सकता है पिछले पत्र के हश्र को यह पत्र भी हासिल हो लेगा। खैर! मैं अपनी जिम्मेदारी पूरी करता हूं। इस पत्र की प्रेरणा 6 अप्रेल, 2021 को ऑनलाइन आयोजित दांडी मार्च समापन दिवस कार्यक्रम से मिली, जिसमें बीकानेर से एक प्रतिभागी में भी था। दांडी मार्च की प्रासंगिकता पर आहूत उक्त गोष्ठी में जो सुझाव देना चाहता थावह इस पत्र के माध्यम से साझा कर रहा हूं।

सनातन शब्दावली में बात करें तो गांधी और नेहरू आजाद भारत के पितृ-पुरुष हैं। इन दोनों पितृ-पुरुषों के बारे में जो झूठ और अनर्गलता आजादी बाद से संगठित और व्यवस्थित रूप से फैलाई जा रही है, सोशल मीडिया आने के बाद तो उस झूठ और अनर्गलता को पंख लग गये हैं। इसी पितृ-दोष के चलते ना केवल लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हुआ बल्कि अब तो संवैधानिक संघीय ढांचा भी ताक पर है।

सोशल मीडिया की चपेट में आये युवकों के बीच गांधी और नेहरू को जिस तरह खारिज किया जा रहा है उसके चलते सक्रिय और मुखर आमजनों काविशेष कर नयी पीढ़ी का गांधी और नेहरू द्वारा स्थापित मूल्यों और संस्थानों पर भरोसा खत्म हो गया है। 

झूठ और अनर्गलताओं का प्रतिरोध जिस स्तर पर और जितना व्यवस्थित होना चाहिए वह हो नहीं रहा। इन सबसे चिन्तित कुछ लोग छिटपुट प्रतिरोध और खंडन-मंडन जरूर कर रहे हैं। लेकिन झूठ की गति और ताकत के सामने वह ऊंट के मुंह में जीरा भी साबित नहीं हो पा रहा। उन्हें झूठा साबित करने के लिए उनके फैलाये झूठ के खिलाफ उनसे भी तेज गति से सत्य को प्रचारित और स्थापित करना जरूरी है जो सोशल मीडिया की व्यवस्थित टीम के बिना संभव नहीं लगता।

मुख्यमंत्री के अलावा आप में एक गांधीनिष्ठ की छवि भी देखी जाती है। इसीलिए उम्मीद भी की जाती है कि शासन-प्रशासन से अलग एक व्यवस्थित अभियान की जरूरत आप समझेंगे और ऐसे अभियान के लिए गैर सरकारी स्तर पर गुंजाइश बनायेंगे।

दांडी मार्च समापन कार्यक्रम के अपने उद्बोधन में आपने 'शान्ति और अहिंसा प्रकोष्ठ' के अब तक किये कार्यक्रमों की अच्छी-खासी प्रशंसा की। लेकिन ऐसे कार्यक्रम औपचारिकता भर हैं, उनकी कैसी भी पैठ जमीनी स्तर पर दिखाई नहीं देती ऐसे खानापूर्ति आयोजनों से ना कुछ हासिल हुआ, ना ही होने वाला है। ऐसे आयोजनों की व्यवस्थित फीडबैक ऊपर तक पहुंचाई जाती है, जिससे आभास मात्र होता है कि बहुत कुछ सार्थक हो रहा है।

इस पत्र को लम्बा ना करते हुए 6 अप्रेल के दांडी मार्च समापन दिवस आयोजन के डिजायन की भी बात करना जरूरी लगता है। हनुमानगढ़ मूर्ति अनावरण कार्यक्रम को दांडी मार्च प्रासंगिकता वाली संगोष्ठी के साथ घालमेल नहीं किया जाना चाहिए था। दोनों कार्यक्रमों की प्रकृति भिन्न हैं। जहां मूर्ति अनावरण पब्लिक प्रोग्राम होता है, वहीं संगोष्ठी विशेष, जिसमें किसी विशेष विषय पर विमर्श कर भविष्य की दिशा तय की जाती है। उक्त संयुक्त आयोजन में हुआ यह कि शान्ति धारीवाल को अपनी उपलब्धियां गिनवानी पड़ी वहीं मंत्रीद्वय कल्ला और यादव तथा आरपीएससी के पूर्व चेयरमैन बीएम शर्मा ने भी दांडी मार्च तथा गांधी के इतिहास को बताने में बहुत समय ले लिया। इसकी जानकारी संगोष्ठी के संभागीयों को पहले से थी।

दो कार्यक्रमों के उलझन में हुआ यह कि जिला स्तर पर जुड़े संभागीयों को अपनी बात कहने का अवसर ही नहीं मिला। मिलता तो हो सकता है कुछ सार्थक बात और सुझाव निकल कर आते। इस संगोष्ठी के लिए जयपुर कलेक्ट्रेट से नन्दकिशोर आचार्य जैसे काम की बात करने वाले जुड़े थे, अन्य संभागों से ऐसे ही सुझाव देने वाले विद्वजन जुड़े होंगे।

ऐसे में अब जब आपके इस कार्यकाल का आधा ही समय बचा है, उम्मीद है गांधी और नेहरू के खिलाफ फैलाये जा रहे झूठ और अर्नगलता के बरक्स आप ऐसा कुछ करवा पायेंगे जो सोशल मीडिया पर स्थायी प्रभाव छोड़ सके।

दीपचन्द सांखला

8 अप्रेल, 2021