भारतीय राजनीति में 1977 के उफान के बाद समाजवादी पार्टियों में जो बिखराव आया उसे सहेजने की कोशिशें तो जारी हैं पर ऐसा किसी व्यापक जनाधार वाले समाजवादी नेता की तरफ से नहीं हो रहा। चन्द्रशेखर और मुलायमसिंह यादव जैसे जनाधार वाले नेता व्यक्तिगत एषणाओं को विचार पर हावी नहीं होने देते तो राजनीति में आज के इस अंधकार में वे उम्मीदें बनाए रख सकते थे। हालांकि किशन पटनायक आजीवन लगे रहे, उन्होंने चुनाव भी लड़े पर व्यक्तित्व में मास अपीलिंग के अभाव में प्रदर्शन कला के इस राजनीतिक पेशे में कुछ विशेष कर नहीं पाए।
आजादी बाद राजस्थान में खासकर बीकानेर और उदयपुर संभाग के आदिवासी क्षेत्रों में समाजवादियों ने व्यावहारिक राजनीति में अपनी पैठ बनाई। आजादी बाद 1948 में समाजवादी दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक और पहला प्रांतीय अधिवेशन बीकानेर में हुआ। राजस्थान में मानिकचन्द सुराना उन राजनेताओं में से हैं जिन्होंने राजनीति को वैचारिक उद्देश्य पूर्ति के लिए अपनाया और अपने अधेड़ होने तक इस पर दृढ़ भी रहे। पर पिछली सदी के आठवें दशक के बाद लगता है उन्होंने विचार को खूंटी पर टांग दिया और राजनीति को पेशा मान लिया। बावजूद इस सबके वे राजस्थान के गिने-चुने उन नेताओं में थे जिन्होंने अपने राजनीतिक पेशे को शिद्दत से परोटा, उसी का नतीजा है कि विचारशून्यता और जाति प्रभावी इस युग में भी न्यूनतम जातीय समुदाय से होने के बावजूद पार्टी से बगावत करके उन्होंने चुनाव लड़ा और जीता। समाजवादी सुराना 1998 से अपनी व्यावहारिक और चुनावी राजनीति भाजपा के बैनर से कर रहे थे।
मानिकचन्द सुराना बीकानेर ही नहीं राजस्थान की राजनीति में ऐसा नाम है जिन्हें सही मायने में जनप्रतिनिधि कहा जा सकता है। चिन्तक एम एन राय के विचारों से प्रभावित सुराना की छात्र जीवन में पहचान युवा तुर्क की थी। बीकानेर के 5, डागा बिल्डिंग में मनीषी डॉ. छगन मोहता के साथ जिन युवाओं की चर्चा-विमर्श-बहसें होतीं, उनमें अर्थशास्त्री प्रो. विजयशंकर व्यास, हरीश भादानी, डॉ. पूनम दइया के साथ सुराना भी थे।
31 मार्च 1931 को जन्मे सुराना छात्र जीवन से ही सक्रिय थे, वे बीकानेर राज्य छात्र संघ के अध्यक्ष रहे। सुराना जब डूंगर कॉलेज छात्र संघ के अध्यक्ष थे—संयोगवश तभी कॉलेज का स्वर्ण जयन्ति वर्ष था। सुराना के नेतृत्व में भव्य आयोजनों के साथ मनाया।
1951-52 के पहले विधानसभा चुनाव में बीकानेर जिले में तीन सीटें थीं—बीकानेर शहर, नोखा-मगरा (कोलायत सहित) तथा बीकानेर तहसील, जिसे 1957 के चुनाव में लूनकरणसर नाम दिया गया। 1951-52 के चुनाव में बीकानेर तहसील से जसवंतसिंह दाउदसर चुने गये। संसद के उच्च सदन राज्यसभा का गठन हुआ तो जसवंतसिंह राजस्थान से चुनकर राज्यसभा सांसद हो गये। बीकानेर तहसील की सीट खाली हो गयी। 1956 में उपचुनाव हुए। 1956 में 25 वर्ष के हुए सुराना तो जैसे चुनाव लडऩे को उतावले ही थे। प्रजा समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव में उतर गये लेकिन कांग्रेस के रामरतन कोचर से हार गये।
पिछली सदी के अन्त तक आते-आते और जनता पार्टी/जनता दल के बिखराव के बाद वे सभी समाजवादी दुविधा में आ गये जिन्होंने अन्य पार्टियों के नेताओं की तरह राजनीति को पेशे के रूप में नहीं अपनाया था। मुलायम-लालू जैसे जो चतुर और सक्षम थे और जिनके वैचारिक आग्रह नहीं थे वे अपनी अलग-अलग दुकानें खोल कर राजनीति करने लगे। जयपाल रेड्डी और मोहनप्रकाश जैसों ने समय रहते कांग्रेसी छूत को झड़का दिया। ऐसों को सफल इसलिए भी कहा जा सकता है कि इन्होंने न केवल कांग्रेस में ठीक-ठाक हैसियत पा ली बल्कि उसे बनाये भी रखी। पूरा राजनीतिक जीवन कांग्रेस विरोध करने की छाप से अपने को मुक्त न कर सकने वाले सुराना जैसे लोग भारतीय जनता पार्टी में चले गये। सुराना ने संभवत: जानते हुए भी इस सचाई को नजरअन्दाज किया कि भाजपा में वे तीसरे दर्जे की हैसियत से ज्यादा कभी हासिल नहीं कर पाएंगे। वहां पहले दर्जे का भरोसा संघनिष्ठों में और दूसरा दर्जे का नये जुड़े ऐसे नेताओं को मिलता है जिनकी स्लेट साफ होती है।
सुराना की राजनीतिक जीवन की बात करें तो उन्होंने 1956 के बाद 1957 का चुनाव भी प्रजा समाजवादी पार्टी से नोखा-मगरा से लड़ा, 7525 वोट लेकर दूसरे नंबर पर रहे। विजयी हुए निर्दलीय गिरधारी लाल भोबिया। पेशे से वकील सुराना को सन्देह हुआ कि भोबिया 25 की उम्र के तो नहीं है। फिर क्या—प्रमाण में भोबिया की 10वीं की मार्कशीट मिल गयी—सन्देह पुख्ता हुआ। न्यायालय में चुनौती दी और भोबिया को सीट छोडऩी पड़ी। जिसकी वजह से 1960 में नोखा में उप चुनाव हुवे, प्रजा समाजवादी पार्टी से सुराना प्रत्याशी, लेकिन इस बार भी वे कांग्रेस के रावतमल पारीक से हार गये।
सुराना का चुनाव लडऩे का सिलसिला 1956 में शुरू हुआ जो 2008 के एक चुनाव को छोड़, 2013 तक जारी रहा। 2008 में भाजपा को लूनकरणसर की सीट चुनावी समझौते के तहत इनेलोद के लिए छोडऩी पड़ गयी थी।
1957 के चुनाव में नोखा से दो विधायक चुने गये-एक सामान्य सीट से-गिरधारी लाल भोबिया और दूसरा सुरक्षित सीट से रूपाराम—रेंवतराम पंवार के पिता। सुराना सामान्य सीट से प्रजा समाजवादी पार्टी से उम्मीदवार बने लेकिन दूसरे नम्बर पर रहे।
1962 के चुनाव में कोलायत विधानसभा क्षेत्र अस्तित्व में आ गया। सुराना पीएसपी (प्रजा समाजवादी पार्टी) से उम्मीदवार बने और जीते, सामने कांग्रेस से थे पूर्व विधायक मोतीचन्द खजांची। मोतीचन्द तीसरे नंबर पर रहे। जनसंघ से उम्मीदवार थे मोहनलाल जोशी जो आठवें नंबर पर रहे। इसी चुनाव में बीकानेर शहर से पीएसपी से जीते मुरलीधर व्यास। सुराना और व्यास विधानसभा में लगातार मुखर और सक्रिय रहे—जिससे बीकानेर की चर्चा प्रदेशभर में होने लगी।
1967 में सुराना फिर कोलायत से ही संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से उम्मीदवार हुए। सामने कांग्रेस से थीं कांता कथूरिया। तब के कोलायत जैसे बीहड़ विधानसभा क्षेत्र में कांता कथूरिया ने सुराना की तरह ही चुनाव अभियान जम कर चलाया और जीत गयीं। चूंकि कथूरिया सरकारी वकील थीं, सो पेशे से वकील सुराना ने कथूरिया की जीत में 'ऑफिस ऑफ प्रोफिट' का नुक्ता निकाल लिया। कथूरिया की जीत को न्यायालय में चुनौती दी और मुकदमा जीत गये। कथूरिया को विधायकी से अयोग्य ठहरा दिया गया। कथूरिया हाइकोर्ट गयीं। वहां भी फैसला सुराना के पक्ष में गया। कथूरिया के पक्ष में अब राजस्थान सरकार आ खड़ी हुई, अध्यादेश लाकर पिछली तारीख से सरकारी वकील को लाभ के पद से बाहर कर दिया। इस अध्यादेश के खिलाफ सुराना सुप्रीम कोर्ट चले गये और दलील दी कि ऐसा पिछली तारीख से नहीं किया जा सकता। वहां भी पैरवी सुराना ने खुद ही की। पांच जजों की पीठ गठित हुई, दो के मुकाबले तीन जजों ने सुराना की दलील के खिलाफ और राजस्थान सरकार के पक्ष में फैसला दिया। यहां उल्लेखनीय यह है कि इलाहाबाद हाइकोर्ट में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अयोग्य ठहराए जाने के फैसले में सुराना बनाम राजस्थान सरकार वाला मुकदमा भी नजीर बना। यह सब बताने का मकसद यही है कि सुराना हर क्षेत्र में प्रतिभाशाली थे।
लगातार मुकदमे में उलझे रहने के बावजूद विधायक कान्ता कथूरिया ने अपने क्षेत्र में पांव जमा लिए। वहीं 1971-72 में समाजवादी पार्टियों के टूटने-जुडऩे की प्रक्रिया के चलते और इन्दिरा गांधी के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स समाप्त करने जैसे फैसलों से प्रभावित उत्तरप्रदेश के समाजवादी नेता और सुराना के मित्र सालिगराम जायसवाल अपने साथियों के साथ कांग्रेस में चले गये। राजस्थान में खबरें लग गयीं कि सुराना भी कांग्रेस में जा रहे हैं। सुराना का पक्ष था कि खबरें जायसवाल से मित्रता के चलते अखबारों ने अनुमान से लगाई, वहीं सुराना के साथी समाजवादियों का मत दूसरा था, उनका कहना था—कि सुराना की शर्तों पर कांग्रेस से बात बैठी नहीं, सो लौट आए। इसीलिए 1972 के चुनाव में सुराना पार्टी का अधिकृत चुनाव चिह्न नहीं ले पाये। सुराना को निर्दलीय पर्चा भरना पड़ा—चुनाव चिह्न मिला हलधर। इन्हीं सब वजहों से सुराना पिछड़ गये और वोटों के लंबे अंतर से अपना दूसरा चुनाव क्षेत्र में लगातार सक्रियता के बावजूद हार गये।
इस बीच जून 1975 में आपातकाल लगा। 1976 में लंबित लोकसभा चुनाव लगभग एक वर्ष देरी से 1977 में करवाए गये। आपातकाल की ज्यादतियों में एक हुए विपक्ष ने जनता पार्टी का गठन किया। माहौल इन्दिरा गांधी और कांग्रेस के खिलाफ था। लोकदल के 'चक्र में हलधर' के निशान पर जनता पार्टी ने चुनाव जीत केन्द्र में सरकार बनायी। राज्यों में कांग्रेस की सरकारों को भंग कर चुनाव करवाए। सुराना ने चुनाव क्षेत्र बदल जनता पार्टी से लूनकरणसर से उम्मीदवारी हासिल की। चूंकि कोलायत से कांग्रेस की उम्मीदवारी एडवोकेट विजयसिंह ले आये तो कान्ता कथूरिया को भी लूनकरणसर से चुनाव लडऩा पड़ा। परम्परागत प्रतिद्वंद्वी फिर आमने-सामने! सुराना अच्छे-खासे वोटों से जीते और सूबे में भैंरोसिंह शेखावत के नेतृत्व में बनी जनता पार्टी सरकार में केबीनेट मंत्री बने। क्षेत्र में लगातार सक्रियता और काम के बल पर जाट प्रभावी इस विधानसभा क्षेत्र में वणिक समुदाय से आने वाले सुराना ने अच्छी पैठ बनाई जो आजीवन बनी रही।
जनता पार्टी में आयी टूट की वजह से पहले 1979 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली और 1980 में चरणसिंह के नेतृत्व वाली केन्द्र की सरकारें गिर गयीं। न केवल सरकारें गिरीं, जनता में पार्टी की साख भी गिर गयी। 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जीत कर केन्द्र में पुन: सरकार बना ली। 1977 की तर्ज पर केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने जनता पार्टी के बहुमत वाले विधानमंडलों को भंग कर राज्य-सरकारें गिरा दीं। 1980 में राजस्थान विधानसभा चुनाव हुए। सुराना कांग्रेस के मालूराम लेघा से हार गये।
1985 में कांग्रेस के गोपाल जोशी लूनकरणसर से उम्मीदवारी ले आये। सामने थे सुराना। टक्कर वाला चुनाव हुआ। सुराना जीते तो सही लेकिन बहुत मामूली अंतर से।
1985-90 के बीच पूर्व जनता पार्टी के कुछ घटक फिर इकट्ठे हुए। जनता दल का गठन किया। 90 के चुनाव में जनता दल में चौधरी देवीलाल की ही चली। लूनकरणसर के जाट प्रभावी आधार पर जनता दल ने सुराना को टिकट देने से इंकार कर दिया। बीकानेर सीट से जनता दल के असल दावेदार मक्खन जोशी को दरकिनार कर सुराना को उम्मीदवार बनाया गया। सामने थे दो बार के विधायक और सूबे की सरकार में मंत्री बीडी कल्ला। कल्ला इस कार्यकाल में बहुत बदनाम हुए, भाइसा की पर्ची मुद्दा बना। दो दिन पूर्व तक कल्ला के खिलाफ माहौल ऐसा बना कि वे पक्का हारेंगे। चुनाव प्रचार बंद होने के दिन बीकानेर में उम्मीदवारों की रैली की परम्परा रही है। सुराना की रैली जबरदस्त थी। रैली शहर के अंदरून मोहता चौक से गुजर रही थी। वहां लगे पाटों पर प्रभावी समाज के बुजुर्ग बैठे ही रहते हैं, रैली के एक किशोर ने पर्ची फाड़—भाइसा री पर्ची फाटगी—कहते हुए वहां बैठे बुजुर्गों को चिड़ाया। सामने कांग्रेस के कल्ला इसी प्रभावी समाज से आते हैं। इस घटना ने ऐसा तूल पकड़ा कि उस प्रभावी समाज से जो भी सुराना के साथ मुखर थे, शान्त हो गये, वोटों का धु्रवीकरण हो गया और हारते-हारते कल्ला जीत गये।
1993 में हुए मध्यावधि चुनाव में सुराना ने जनता दल (प्रगतिशील) नाम से अपनी पार्टी बनाई और पुन: लूनकरणसर लौट गये। उस चुनाव में सुराना के सामने कांग्रेस के भीमसेन चौधरी के अलावा भाजपा और जनता दल के भी उम्मीदवार थे। भीमसेन चौधरी का पुराना चुनाव क्षेत्र था और प्रदेश की सरकार में वे उपमंत्री भी रह चुके थे। सुराना भीमसेन चौधरी से लगभग छह हजार वोटों से हारे और दूसरे नम्बर पर रहे।
1993 के बाद कांग्रेस विरोध के चलते सुराना अन्तत: विपरीत विचारों वाली भाजपा में चले गये। कांग्रेस के अंधे-विरोध के चलते देशभर के अधिकतर समाजवादी विचारभ्रमित हो अप्रासंगिक होते गये।
1998 के चुनाव में भाजपा के सुराना के सामने भीमसेन चौधरी ही थे। जो लगभग छह हजार वोटों से फिर जीत गये। वयोवृद्ध भीमसेनजी का बीच कार्यकाल में निधन हो गया। वर्ष 2000 में मध्यावधि चुनाव हुए। समाने कांग्रेस से भीमसेन चौधरी के पुत्र वीरेन्द्र बेनीवाल थे। सूबे में कांग्रेस की सरकार होते हुए भी भाजपा के सुराना 21 हजार से ज्यादा वोटों से विजयी हुए।
2003 के चुनाव में वीरेन्द्र बेनीवाल और सुराना फिर आमने-सामने हुए, बेनीवाल 20 हजार से ज्यादा वोटों से जीत गये।
इस हार के बाद और उदार विचारों के भाजपाई दिग्गज सुराना से अच्छे परिचित भैंरोसिंह शेखावत के सूबे की राजनीति से रुख्सत होने से सूबे की भाजपा में प्रोग्रेसिव सुराना की पूछ कम होती गयी। 2008 के चुनावों में भाजपा ने अन्तिम समय में लूनकरणसर की सीट चुनावी समझौते में इनेलोद को दे दी। सुराना की न केवल तैयारी धरी रह गयी बल्कि चुनाव लडऩे के विकल्प पर विचार करने की गुंजाइश भी नहीं रही। 1956 के बाद यह पहला चुनाव था जिसमें सुराना को मन मसोसकर बैठे रहना पड़ गया।
इस चुनाव के बाद सुराना समझ गये थे कि उनकी दाल भाजपा में अब नहीं गलेगी। एकला चालो रे की धुन पर वे 2013 के चुनाव की तैयारी में जुट गये, 'फल-टोकरी' जैसे चुनाव चिह्न के साथ निर्दलीय चुनाव में उतरे और कांग्रेस, भाजपा, सीपीएम, बीएसपी आदि-आदि के मैदान में होने के बावजूद लगभग पांच हजार वोटों से जीत गये।
सुरानाजी की बड़ी खासियत यह थी कि वे चुनाव को खेल की भावना से लड़ते, हार-जीत का उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। चुनाव बाद फिर अपने जन-प्रतिनिधि के धर्म निर्वहन में लग जाते।
2013 का यह चुनाव सुरानाजी का आखिरी था—85 की उम्र की वजह से अस्वस्थ रहने लगे। बावजूद इसके वे अपने क्षेत्र में लगातार दौरे करते, लोगों के काम करवाते।
अस्वस्थता की वजह से 2018 का चुनाव उन्होंने नहीं लड़ा। लेकिन बावजूद इसके 25 नवम्बर 2020 को निधन तक—संभव होने पर अपने क्षेत्र में भी जाते और बीकानेर और जयपुर के निज निवास पर आने वाले किसी को भी निराश नहीं करते। उनकी साख ऐसी थी कि 2019 का चुनाव न लड़ पाने और 88 की वय के बावजूद शासन-प्रशासन के हर स्तर के कारिन्दे से वे उसी रूआब-रूतबे से आमजन का काम कहते जैसे वे सत्ता में थे और अधिकारी और राजनेता तक भी अन्त तक उन्हें वैसा ही महत्त्व देते।
सुरानाजी के लिए इसीलिए कहता रहा हूं कि बीते 50 वर्षों में वे ऐसे बिरले राजनेता थे जिन्हें सही मायनों में जनप्रतिनिधि कहा जा सकता है।
व्यावहारिक राजनीति करने वालों को समाजवाद की समझ अपने में भले ही पैदा न करनी हो, पर जमीन से जुडऩे की कुव्वत उन्हें सुराना से सीखनी चाहिए थी। सुराना ही थे जो समाजवादी राजनीति को कुशलता और बिना गुरुडम से समझा-सिखा सकते थे, जिसकी जरूरत फिलहाल देश को है।
हाँ, ऐसी उम्मीद सुरानाजी से भी थी कि अपने अंतिम वर्षों में वे पेशेवर राजनीति छोड़कर कुछ नवयुवकों को समय देते। इससे एक वैचारिक टीम तैयार होती तो देश और समाज के प्रति असल कर्तव्य की पूर्ति भी वे करते और बौद्धिक ऋण से उऋण भी होते। ऐसा करने में सुराना सभी तरह से सक्षम और समर्थ थे। देश को फिलहाल ऐसे ही प्रयासों की जरूरत है। समाप्त
—दीपचन्द सांखला
6 सितंबर, 2024
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