Wednesday, May 19, 2021

मुक्तप्राण की जयध्वनि : डॉ. श्रीलाल मोहता

हृदय हिला हुआ है, इसकी प्रतीती लिखते समय काँपती अंगुलियों से हो रही है। डॉ. श्रीलाल मोहता मानो बीकानेर की संस्कृति के ईश्वर-नियुक्त राजदूत थे। उनकी उपस्थिति में एक अद्भुत ऋजुता परिलक्षित होती थी। वे अपनी चुप्पी तक में सदाशयता की एक मुखर मूर्ति थे। गत तीन दशक से वे 'परम्परा' संस्था के निमित्त से लोक और लोकेतर के अर्थ के अनुसंधान में, बीकानेर के समग्र सांस्कृतिक जन को अपने साथ जोड़कर अग्रसर थे। इस उपक्रम के अनेक अंगोपांग थे। आज (16 मई, 2021) सुबह उनके न रहने के समाचार की पीड़ा की सांत्वना मैंने उन्हीं की संस्था के एक प्रकाशन—गुजराती चिन्तक मकरंद दवे की कृति 'तपोवन के पथ पर'—के पारायण में खोजी। इसके प्रकाशकीय में डॉ. श्रीलाल मोहता मकरंद दवे का नहीं, मानो अपना ही परिचय दे रहे हैं। लिखते हैं, 'श्री मकरंद दवे प्राचीनता के पक्षधर तो हैं, लेकिन साथ ही वे आधुनिकता को नकारते भी नहीं हैं, वे पुराने प्रेतों को जीवित नहीं करना चाहते हैं, आज के आधुनिक विचारक, जिन्हें वे ऋषितुल्य चिन्तक कहते हैं, जैसे एरिक फ्रॉम, मार्टिन बूबर, विक्टर फ्रेकल, रूथ बेनेडिक्ट या फिर अब्राहम मास्लो आदि ने जो कुछ कहा है, उन्हीं बातों को वे हमारी संस्कृति के मूलाक्षर में कहना चाहते हैं।' डॉ. मोहता ने समाहार में विलक्षण पद-प्रयोग किया है—हमारी संस्कृति के मूलाक्षर। कदाचित् इन्हीं पर उनकी अपनी आंख भी टिकी हुई थी।

यद्यपि कुछ वर्षों से उन्हें 'लोक कला मर्मज्ञÓ के विरुद से अभिहित किया जाता रहा था। मेरे विचार में यह उनके अनेकायामी बौद्धिक और सांस्कृतिक व्यक्तित्व का एकायामी न्यूनीकरण ही था। वे क्या नहीं थे? संगीत, छन्द, आयुर्वेद, इतिहास, पुराण, नई और पुरानी कविता, दर्शनशास्त्र समेत ज्ञान के कितने पक्ष थे जिन पर उनके साथ गपशप की शैली में गंभीर विमर्श किया जा सकता था। उन्होंने हिन्दी के सर्वाधिक सघनरूपेण सत्यान्वेषी कवि नरेश मेहता पर शोध-लेखन कर वाचस्पति (Ph.D) की उपाधि प्राप्त की थी। उनकी असाधारण विनोद-वृत्ति ने उन्हें ज्ञान के अभिमान से सदा दूर रखा। एक अर्थ में वे हनुमानजी की तरह थे। उन्हें उनका गंभीर ज्ञान-पराक्रम अक्सर याद दिलाना पड़ता था। जैसे किष्किंधा कांड के अन्त में जामवन्त हनुमानजी को याद दिलाते हैं—पवन तनय बल पवन समाना। बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना।। वे भी तो डॉ. छगन मोहता जैसे समकालीन ऋषि-मनीषी के तनय थे। हनुमानजी और उनमें एक ही अन्तर था; हनुमान दुष्टों को दंड देते थे, किन्तु डॉ. श्रीलाल मोहता ने जीवन में किसी को दंडित या प्रताडि़त किया ही नहीं। वे अच्छे अथवा बुरे, अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रत्येक व्यवहार का एक ही उत्तर देते थे-सरलप्राण मुस्कान मात्र। उनके जैसा संपूर्णरूपेण सकारात्मक मनुष्य शहर तो क्या संसार में मिलना भी दुर्लभ है। उन्हें किसी के अवगुणों से मानो कुछ लेना-देना ही नहीं था; और गुण ग्राहकी ऐसी कि मेरे जैसे अनेक छोटों के मान देने पर भी वे संकोच की सांसत में घिरे दिखाई पड़ते। उनकी यह अनसूया-वृत्ति इतनी सिद्ध थी कि भरी सभा में अपमान होने पर भी वे अविचलित भाव से अपनी भूमिका निभाते रहते थे।

मुझे मिला 'साहित्य अकादमी' पुरस्कार भी एक तरह से उन्हीं का कर्तृत्व कहा जा सकता है। नब्बे के दशक में उन्होंने युवा रचनाशीलता को मंच देने के लिए 'प्रज्ञा परिवृत' के बैनर तले एक मासिक एकल काव्य-पाठ शृंखला शुरू की थी। मैं कहानियां लिखकर यत्किंचित् पहचान अर्जित कर चुका था, किन्तु कविताएं लिखना मेरा एक गोपन व्यापार था। उन्हीं के लाड़ भरे आग्रह पर मैंने अपनी राजस्थानी कविताओं को एकल-पाठ के लिए इकजाई किया था। इन्हीं कविताओं के संकलन 'उतर्यो है आभो' पर मुझे वर्ष 1997 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उनके कहने पर मैंने कितने ही मौलिक सर्जनात्मक प्रयोग किए। उन्होंने 'परम्परा' की 'आस्वाद' शृंखला में मुझसे वात्स्यायनजी (अज्ञेय) की कविताओं का पाठ करवाया, जो एक अद्भुत काव्य-संध्या थी। संस्था की छत पर हुए इस पाठ में बादलों के सुन्दर वितान के बीच इन्द्रधनुष दिखाई पड़ रहा था। मानो वात्स्यानजी ही नभ के झरोखे से अपनी कविताएं सुन रहे थे। उनके साथ कई पुस्तकें संपादित कीं। 'गणगौर गाथा' की सारी दृष्टि, समूचा विचार उनका था, पर जब भी मिलते सारे श्रेय का भागीदार मुझे बना देते थे। पीयूष दईया के साथ उन्होंने 'लोक का आलोक' संपादित की, जो हिन्दी में लोक-विमर्श की एक सर्वाधिक विलक्षण कृति है।

मैं उन्हें याद करता रहूंगा और उनके न रहने पर जो-जो दिल पर गुजरेगी, उसे रकम करता (लिखता) रहूंगा। फैज़ अहमद 'फैज़ इस 'घनीभूत पीड़ा' की घड़ी में मुझसे कह रहे हैं :

हम परवरिश-ए-लौह-ओ-कलम करते रहेंगे

जो दिल पे गुजरती है रक़म करते रहेंगे।

(शीर्षक : मकरंद दवे की सन्दर्भित कृति की 'भूमिका' से साभार।)

—मालचन्द तिवाड़ी

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