Thursday, May 30, 2019

जनादेश 2019 : ताक पर लोकतंत्र, संकट में संविधान

जिन्हें एतराज है कि जनादेश की आलोचना नहीं होनी चाहिए, उन्हें इसे यूं समझना चाहिए। 2019 के इन चुनावों में कुल 90 करोड़ मतदाताओं में से 67 प्रतिशत ने मतदान किया। यानी 54 करोड़ 27 लाख लोगों ने ही वोट डाला है। अब बात करते हैं भाजपा को मिले वोटों की। भाजपा को कुल मतदान में से 38.5 प्रतिशत वोट मिले हैं, यानी 22 करोड़ के लगभग। जिस निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार किया गया है उसे भारत जैसे देश के सन्दर्भ में अधिकतम ठीक प्रणाली कह सकते हैं। शत-प्रतिशत सही कोई भी निर्वाचन प्रणाली नहीं मानी गई है, इसीलिए अलग-अलग देशों में निर्वाचन की अलग-अलग प्रणालियां हैं। भारत की निर्वाचन प्रणाली के हिसाब से भाजपा ने सरकार बनाने की पात्रता हासिल की है, जिसे नकारना तो असंवैधानिक-अलोकतांत्रिक है लेकिन यहां विचार इस पर कर रहे हैं कि सरकार की या उसके नेता की आलोचना पर कोई एतराज वाजिब है या नहीं। पहली बात तो यह कि हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं, इस नाते राज के किसी भी अंग की आलोचना का संवैधानिक हक हमें हासिल है फिर वह चाहे शत-प्रतिशत वोट हासिल करके ही क्यों ना चुनी गई हो। हो सकता वोट देने के बाद वोटर की धारणा बदल गई हो।
चुनी जाने वाली सरकार और उसके नेता नरेन्द्र मोदी के सन्दर्भ से बात करें तो इस सरकार के विरोध में 61.5 प्रतिशत वोटरों ने मतदान किया है। यानी वोट करने वाले 54 करोड़ मतदाताओं में से 32 करोड़ के लगभग मतदाताओं ने भाजपा में विश्वास जताने से इनकार किया है। जो वोट डालने ही नहीं गये उन्हें जोड़कर प्रदेश के कुल मतदाताओं के सन्दर्भ से बात करने पर मालूम चलेगा कि 75 प्रतिशत से ज्यादा मतदाताओं ने भाजपा की नई सरकार को चुनने में रुचि नहीं दिखाई है। उक्त गणना का जिक्र केवल अपने इस हक को बताने के लिए कर रहे हैं कि सरकार और उसके नेता प्रधानमंत्री की आलोचना करने से रोकना ना केवल असंवैधानिक है बल्कि अलोकतांत्रिक भी है। प्रकारान्तर से जनादेश की आलोचना करने और उसके सभी पक्षों की समीक्षा करने का हक भी प्रत्येक नागरिक को हासिल है।
आज जो भी बात करेंगे नये जनादेश के सन्दर्भ से करेंगे। चूंकि जनादेश भाजपा को मिला है, उसके नेता नरेन्द्र मोदी को मिला है।
पहले भी कई बार उल्लेख किया गया है कि 2014 में जनादेश हासिल करने के लिए भाजपा और उसके नेता होने के नाते नरेन्द्र मोदी ने तब जो भी वादे किए, गत पांच वर्षों की अवधि में उन्हें पूरा करना तो दूर, उनका जिक्र करने तक में भाजपा और इसके नेता बगले झांकते रहे। कई योजनाएं यह सरकार लेकर आईं, जिसमें उल्लेखनीय उज्ज्वला योजना, फसल बीमा योजना, स्वच्छ भारत, गंगा सफाई, स्टार्टअप, मेक इन इंडिया आदि आदिये सभी औंधे मुंह गिरी दिखाई पड़ी। अपनी इन योजनाओं पर भाजपा पहले तो जिक्र ही नहीं करती और किया तो झूठे और गुमराह करने वाले आंकड़े पेश करती रही। भ्रष्टाचार देश में ना केवल बदस्तूर जारी है, बल्कि नोटबंदी, फसल बीमा योजना, रफाल सौदे में हुए भ्रष्टाचारों के उजागर होने में खुद सरकार और इसकी एजेन्सियां बड़ी बाधा है। CAG, CBI, RTI को इस सरकार ने पूरी तरह पंगु बना छोड़ा है। इन एजेन्सियों का अपने हित में उपयोग कांग्रेस सहित पिछली सभी सरकारें करती आयी हैं, लेकिन नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली पिछली सरकार ने तो इनके दुरुपयोग में सभी हदें पार कर दीं।
इस जनादेश में जनता ने अन्य सभी को नजरअंदाज कर मोदीजी के नेतृत्व में भाजपा को जिस आधार पर जनादेश दिया है वह ना केवल झूठ पर आधारित है बल्कि संविधान की प्रस्तावना के भी खिलाफ है। भाजपा ने इस चुनाव को राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तर्ज पर तो लड़ा ही, 2014 के वादों और घोषित योजनाओं की उपलब्धियों पर ना लड़कर मुख्यतौर पर राष्ट्रवाद जैसे हवाई मुद्दे और अन्दरखाने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर केन्द्रित कर यह सफलता हासिल की है।
संसदीय शासन प्रणाली में विपक्ष की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। लेकिन इन चुनावों को विपक्ष जहां असल मुद्दे पर लाने में असफल रहा वहीं नरेन्द्र मोदी के झूठ, उनके द्वारा बांटे भ्रमों और असंवैधानिक करतूतों को काउंटर करने में भी पूरी तरह असफल ही रहा। चुनाव आयोग की पक्षपाती भूमिका भी इस सरकार के बनने में कम सहयोगी नहीं रही।
आजादी के 70 वर्षों बाद भी जनता भ्रमित होकर और संविधान की मूल भावना के खिलाफ शासक चुनती है तो इसके लिए पिछली सरकारों को भी बरी नहीं किया जा सकता। चूंकि आजादी बाद केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस ने सर्वाधिक शासन किया है इसलिए मुख्य तौर पर वही जिम्मेदार है। कांग्रेस ने देश के मतदाताओं को संवैधानिक नागरिक के तौर पर शिक्षित करने की जिम्मेदारी को नहीं निभाया। कांग्रेस खुद तो इसका खमियाजा भुगत ही रही है लेकिन संविधान को नकारते रहने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक इकाई भाजपा को इस तरह सत्ता हासिल होना और वह भी कट्टर मानसिकता वाले के नेतृत्व में, देश के संवैधानिक-लोकतांत्रिक ढांचे के लिए कतई शुभ संकेत नहीं है। भाजपा और संघ की ओर से वर्तमान में संविधान के प्रति प्रकट की जाने वाली आस्था और श्रद्धा कोरा ढोंग है। इन्हें इस देश के साथ वही करना है जो बीते 90 वर्षों से इनके ऐजेन्डे में है। अपने उस ऐजेन्डे को पूरी तरह लागू करने की अनुकूलता हासिल करने की कोशिश संघ विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थाओं और संगठनों के माध्यम से लगातार करता रहा और उसमें सफल भी हुआ है।
भारतीय लोकतंत्र के आधिकारिक तीन आधार स्तंभों में से एक कार्यपालिका (सरकार) पर पूरी तरह और दूसरी व्यवस्थापिका (संसद) पर संघ विचारी लगभग काबिज हो लिए हैं तीसरे आधार न्यायपालिका को प्रभावित करने के यत्न भी हो ही रहे हैं और स्वयं-भू घोषित चौथा आधार मीडिया गत 5-7 वर्षों में पालतू होकर बुरे हश्र को हासिल हो चुका है। इन परिस्थितियों में जागरूक नागरिकों से उम्मीद है कि ना केवल वे खुद सावचेत हों बल्कि इस नक्कारखाने में अन्यों को सावचेत करने के लिए वे तूती भी बजाते रहें अन्यथा जिस बुरे दौर में देश के फंस जाने की आशंका प्रबल दिख रही है उसके लिए आने वाली पीढिय़ां हमें जिम्मेदार मानने से नहीं चूकेंगी, इतिहास इसकी चेतावनी देता रहा है। जनता ने चुन के किसी को थरप दिया है तो लोकतंत्र में उसका मतलब यह नहीं वह आलोच्य ही नहीं है।
मोदी की तानाशाह कायशैली की बात करने पर इन्दिरा गांधी के तानाशाही मिजाज की याद दिलाने वाले उस परिप्रेक्ष्य पर गौर नहीं कर रहे हैं कि इंदिरा गांधी गांधी-नेहरू के सान्निध्य में पली बड़ी हुईं इसलिए वह कुछ तो लोकतांत्रिक संस्कार लिए हुए थीं, आपातकाल हटाने को मजबूर उन्हें इन्हीं संस्कारों ने किया था। वहीं मोदी जिस संघ से संस्कारित है वहां लोकतांत्रिक मूल्यों की कोई गुंजाइश ही नहीं है।
—दीपचन्द सांखला
30 मई, 2019

Thursday, May 16, 2019

मतदान के दस दिन बाद : बीकानेर क्षेत्र की चुनावी पड़ताल

बीकानेर लोकसभा क्षेत्र में मतदान हुए दस दिन बीत रहे हैं। परिणामों के कयास वही हैं जो मदनगोपाल मेघवाल के कांग्रेसी उम्मीदवार घोषित होने पर लगाए गये थे। मदन मेघवाल के उम्मीदवार घोषित होते ही यह कहा जाने लगा था कि कांग्रेस ने अपनी एक आसान जीत को हार की भेंट चढ़ा दिया है। इसमें अब दो राय नहीं कि कांग्रेस से उम्मीदवारी सरिता मेघवाल को मिलती तो इस सीट को कांग्रेस बड़ी आसानी से निकाल ले जाती, बावजूद रामेश्वर डूडी की आदतन करतूतों के! अर्जुनराम मेघवाल जीतते हैं तो यह कहने में भी कोई संकोच नहीं कि देवीसिंह भाटी ने भी अर्जुनराम मेघवाल की जीत को और आसान बनाया!
कांग्रेस से मदन मेघवाल के उम्मीदवार घोषित होते ही अपनी एक फेसबुक पोस्ट में लिखा था कि 'बीकानेर के दिग्गज कांग्रेसी अर्जुनराम को जिताने में और दिग्गज भाजपाई अर्जुनराम को हराने में जुटेंगे।' 23 मई को भाजपा प्रत्याशी अर्जुनराम मेघवाल यदि जीतते हैं तो कई कांग्रेसी दिग्गज जीतेंगे और कई भाजपाई दिग्गज हारेंगेे। एक जनप्रतिनिधि के तौर पर देवीसिंह भाटी को घोर धर्मच्युत मानने के बावजूद उनकी इस बात की तारीफ करनी पड़ेगी कि अर्जुनराम के साथ भितरघात की बजाय उन्होंने पार्टी छोड़कर खुले आम मैदान में उतरना उचित समझा। बावजूद इस सबके अर्जुनराम को कोई नुकसान पहुंचने के बजाय उनके विरोध से अर्जुनराम को फायदा ही हुआ है। इसका अनुमान भी फेसबुक की अपनी पोस्ट में जाहिर कर दिया था जिसमें यह लिखा था कि 'यह विरोध अर्जुनराम के लिए सहानुभूति का एक हेतु बनेगा।'
बात कुल जमा यही कि बीकानेर और प्रदेश के अन्य लोकसभा क्षेत्रों के लिए भी कांग्रेस ने टिकट जिस तरह दिए उससे नहीं लगता कि प्रदेश कांग्रेस के नियंताओं को इसका आभास था कि यह चुनाव पार्टी के अस्तित्व का अवसर है।
बात बीकानेर लोकसभा क्षेत्र के सन्दर्भ से कर रहे हैं तो यहीं लौट आते हैं। भाजपा की बात करें तो देवीसिंह भाटी, गोपाल जोशी सहित स्थानीय भाजपाई दिग्गज लोक प्रचलित कही 'ठाकर ने रैकारो ही गाली है' से संक्रमित हैं तो खुद अर्जुनराम ब्यूरोक्रेटिक हेकड़ी से। वहीं कांग्रेस के तथाकथित दोनों बड़े दिग्गज, रामेश्वर डूडी और बीडी कल्ला हीनभावना से ग्रसित हैं। अपने राजनीतिक कॅरिअर की शुरुआत से ही ये दोनों बजाय अपना कद बढ़ाने के अधिकांशत: इसी में लगे रहे कि क्षेत्र में किसी दूसरे का कद ना बढ़े। 2009-2019 तक के लोकसभा चुनावों में बीकानेर कांग्रेस की हार की बिसात रामेश्वर डूडी अपनी हीनभावना से ग्रसित हेकड़ी में ही बिछाते रहे हैं। डूडी इससे ग्रसित नहीं होते और बीडी कल्ला और उनकी टीम बीकानेर पूर्व ना सही बीकानेर पश्चिम में ही अपने चुनाव अभियान की तरह पार्टी कार्य में लगते तो 2009 का चुनाव मात्र 19,575 वोटों से हारने वाली कांग्रेस अच्छे वोटों से जीतती।  
2014 का चुनाव भ्रमित लहर का चुनाव था, उसे अपवाद मान लेते हैं। 2019 के चुनाव पर आ लेते हैं कांग्रेस की अपनी रिपोर्टों में और आम राय से भी स्पष्ट था कि गोविन्द मेघवाल या उनकी पुत्री और खाजूवाला पंचायत समिति की प्रधान सरिता चौहान को कांग्रेस यदि उम्मीदवार बनाती है तो वह यह सीट आसानी से निकाल ले जाएगी। बावजूद इसके डूडी मदनगोपाल मेघवाल के लिए अड़े रहे। मदन मेघवाल यदि यह चुनाव हारते हैं तो खाजूवाला विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिलाने के बहाने वीआरएस दिलाकर कॅरिअर खत्म कर उनकी राजनीतिक हत्या के लिए जिम्मेदार डूडी के अलावा और किसे माना जायेगाïï? सुनते हैं इस चुनाव में मदन गोपाल मेघवाल की सारी जमा पूंजी भी खेत रही है।
अब क्षेत्र के आठों विधानसभा क्षेत्र वार बात कर लेते हैं। गंगानगर में हुआ भारी मतदान गंगानगर हनुमानगढ़ जिले के स्वत: स्फूर्त मतदाताओं की बानगी है, ऐसा वहां हर चुनाव में होता रहा है। गंगानगर में कांग्रेस जीतेगी या भाजपा, दावा करना मुश्किल है। हो सकता है निहालचन्द की एंटी इन्कम्बेंसी मोदी नाम पर भारी पड़े। इसीलिए इस जिले के बीकानेर लोकसभा क्षेत्र में शामिल अनूपगढ़ विधानसभा क्षेत्र पर भी कोई दावा करना मुश्किल है। अनूपगढ़ से भाजपा विधायक संतोष बावरी जहां अनौपचारिक सी अर्जुनराम के लिए लगी हुई थी वहीं कांग्रेस के हारे कुलदीप इन्दौरा भी बीकानेर लोकसभा क्षेत्र के कांग्रेसी उम्मीदवार के लिए कम और गंगानगर के भरत मेघवाल के लिए ज्यादा जुटे रहे। उस क्षेत्र में प्रभावी और माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी से उम्मीदवार श्योपत मेघवाल भी अपनी साख बचाने को अनूपगढ़ से उम्मीदें बांधे हैं। श्योपत के लिए जीतने से ज्यादा जरूरी यह है कि वह कितने वोट प्रतिशत से अपनी पार्टी की राष्ट्रीय स्तर की हैसियत बचाने में सहयोगी बन पाते हैं।
खाजूवाला में गोविन्द और सरिता कांग्रेस के लिए जितने भी जुटे वह राजनीति में चलन से ज्यादा ही माना जाएगा, वहीं कोलायत विधायक और राज में भागीदार भंवरसिंह भाटी मदन गोपाल को तारने के बजाय अपने क्षेत्र से देवीसिंह भाटी को निबटाने में ज्यादा लगे रहे। लूनकरणसर और श्रीडूंगरगढ़ में विधानसभा चुनावों में निपट चुके वीरेन्द्र बेनीवाल और मंगलाराम ने अशोक गहलोत की हिदायत का मान चाहे रखा हो, लेकिन इवीएम इसकी साख भरेगी, लगता नहीं है। सरिता को टिकट मिलता तो ये दोनों भी डूडी की नाक कटवाने को जरूर अच्छे से लगते।
बीकानेर पूर्व और पश्चिम दोनों शहरी विधानसभा क्षेत्र हैं। पूर्वी क्षेत्र को कांग्रेस श्मशान की तर्ज पर आयो-गयो का मानती रही है, शायद इसीलिए यहां से पिछला चुनाव हार चुके कन्हैयालाल झंवर कहीं नजर नहीं आए और ना ही 2013 में विधानसभा का चुनाव हारे और पार्टी से बाहर होकर चुनाव अभियान के दौरान लौटे गोपाल गहलोत के कहीं पगलिए दीखे। ऐसे में सूबे की सरकार में तीसरी हैसियत के मंत्री डॉ. बीडी कल्ला की जिम्मेदारी थी कि शहर की इन दोनों सीटों पर वे अपनी 'फौज' को लगाते। लेकिन 1980 में जब से वे राजनीति में आए तब से, बलराम जाखड़ की उम्मीदवारी के चुनाव को छोड़ किसी भी लोकसभा चुनाव में वे अपने चुनाव की स्फूर्ति से आधी स्फूर्ति से भी किसी को जिताने में लगे हों तो बताएं। कल्ला उन नेताओं में से है जो केवल अपने लिए लगते हैं, पार्टी के लिए कभी नहीं।
अब बात करते हैं राजस्थान विधानसभा में 2013 से 2018 तक नेता प्रतिपक्ष रहे रामेश्वर डूडी कीयह भी जब से राजनीति में आए हैं, हीनभावना और हेकड़ी इनका साथ छोड़ने को तैयार नहीं है। राजनीति की बात करने पर अब यह कहने में भी संकोच नहीं कि डूडी जिस तरह 2009 में रेवंतराम को हराने में जुटे उसी तरह इस बार उनकी मंशा शुरू से ही अर्जुनराम को जिताने की थी। इसीलिए मदनगोपाल मेघवाल को 'बलि के बकरे' के तौर पर चुनाव की बलिवेदी पर चढ़ा दिया। डूडी कभी नहीं चाहते कि लोकसभा में यहां से कोई कांग्रेसी जाए और उनसे लंबी लकीर खींचने की कोशिश करे।
इसी तरह भाजपा की बात करें तो अनूपगढ़ की बात ऊपर कर चुके हैं। कोलायत की मोटा-मोट बात भी देवीसिंह भाटी के हवाले से की जा चुकी है। लूनकरणसर और खाजूवाला में डॉ. विश्वनाथ और सुमित गोदारा पर भाटी खेमे की छाप होने के चलते कभी अर्जुनराम मेघवाल की गुडबुक में रहे नहीं। अर्जुनराम मेघवाल लूनकरणसर में इसीलिए मानिकचंद सुराना से सहानुभूति रखते रहे हैं। श्रीडूंगरगढ़ में अर्जुनराम मेघवाल के शुभचिंतक पूर्व विधायक किसनाराम फाड़ा-फूंची कर चुके हैं। बीकानेर पूर्व हो या पश्चिम, सिद्धिकुमारी किसी के लिए भी कोई काम की नहीं है तो अर्जुनराम मेघवाल उनसे क्या उम्मीद करते। वहीं गोपाल जोशी और अर्जुनराम मेघवाल एक-दूसरे को 'हम चौड़े गली संकड़ी, सड़क का रास्ता किधर है' का अहसास कराते रहे हैं। शहरी युवाओं में हाल तक कायम मोदी मैजिक और कांग्रेसियों की निष्क्रियता दोनों ही इन क्षेत्रों में अर्जुनराम को ही बढ़त दिलाते लग रहे हैं।
अब बचा नोखा, तो नोखा विधायक बिहारी बिश्नोई को चुनाव जीतते ही देहात भाजपा की कमान दे दी गई। यहां डूडी की चतुराई जहां नोखा में भाजपा को आगे कर बिहारी बिश्नोई की साख बचाती दिख रही है वहीं अर्जुनराम मेघवाल यदि जीतते हैं तो न केवल बिहारी बिश्नोई बल्कि अप्रभावी शहर भाजपा अध्यक्ष सत्यप्रकाश आचार्य के नये मालीपाने भी लग सकते हैं।
—दीपचन्द सांखला
15 मई, 2019

Thursday, May 2, 2019

23 मई उपरांत के कुछ अनुमान--कुछ आशंकाएं

मोदी के फिर से प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं लगभग खत्म
लोकसभा चुनाव के कुल 7 चरणों के मतदान के चार चरण पूरे हो चुके हैं। देश के मतदाताओं ने लोकसभा के लगभग 70% सदस्यों को चुन लिया है। 19 मई को मतदान के आखिरी चरण के बाद 23 मई की दोपहर तक नई सरकार का रूप-स्वरूप काफी कुछ तय हो जाना है।
लोकसभा के पिछले चुनाव 2014 में हुए थे। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अनुमान से ज्यादा सीटें जीतीं। 2013 के उत्तरार्द्ध से मोदी की केन्द्र में भूमिका को लेकर जो भी आशंका प्रकट की गईं वे भी अनुमान से ज्यादा बदतर साबित हुईं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कहे का सहारा लें तो मोदी देश के लिए आपदा साबित हुए हैं। वे ना केवल सभी मोर्चों पर असफल साबित हुए बल्कि नोटबंदी जैसे मूर्खतापूर्ण निर्णय और अनाड़ीपने से लागू जीएसटी प्रणाली से देश की अर्थव्यवस्था का ढांचा लगभग चरमरा गया। अलावा इसके मोदी द्वारा घोषित सभी फ्लैगशिप योजनाएं एक-एक कर औंधे मुंह गिर पड़ी हैं।
आरएसएस के लिए मोदी ना निगलते बन रहे हैं और ना उगलते। संघ को शुरू में तो लगा कि मोदी राज में उसके हिन्दुत्वी ऐजेन्डे को गति मिल रही है लेकिन जैसे-जैसे हिन्दुत्वियों में बेधड़कपन बढ़ा, वैसे-वैसे यहां के अल्पसंख्यकों में आशंकाएं पनपने लगी। इन सबके चलते आम भारतीय नाखुश नजर आने लगा। जैसी की मोदी की फितरत है, अपने जोड़ीदार अमित शाह की जुगलबन्दी में उन्होंने ना केवल भाजपा संगठन को ही हाइजेक कर लिया, बल्कि केन्द्र सरकार को भी एक छत्र के नीचे ले आए। यद्यपि संघ इसी तरह के संगठन और शासन प्रणाली का तरफदार है लेकिन अपने एजेण्डे को अचानक मिली अनुकूलताओं और उसकी प्रतिक्रिया में बने प्रतिकूल माहौल से जहां संघ के हाथ-पांव फूल गये वहीं मोदी-शाह की महत्त्वाकांक्षाओं में सिमटते सत्ता केन्द्र के आगे संघ अपने को बेबस भी देखने लगा। नितिन गडकरी के बयानों से संघ की मंशा और मन:स्थिति के अनुमान लगाए जा सकते हैं।
यह तो सब हो चुका, हुए को अनहुआ करने की कोई युक्ति ईजाद नहीं हुई है। वर्तमान संविधान के वशीभूत होकर पांच वर्ष बाद सरकार को फिर जनादेश पाने के लिए जनता के बीच आना पड़ा है। मोदी सरकार ने कुछ किया होता तो उसके नाम पर वोट मांग लेते, नहीं किया तो हिन्दुत्वी ऐजेन्डे को छोड़ फिलहाल वे राष्ट्रवाद के हवाई ऐजेण्डे पर आ लिए हैं। पुलवामा-बालाकोट करवाने के बावजूद माहौल 2014 वाला बन नहीं पा रहा है। वहीं बिखरे होने के बावजूद विपक्ष सावचेत है। सबसे ज्यादा सीटों वाले उत्तरप्रदेश में अधिकतम 40 सीटों के अनुमान के बावजूद भाजपा 175 सीटों का आंकड़ा पार करती लग नहीं रही है। जबकि इस अनुमान के अनुसार महाराष्ट्र में 10, बिहार में 6, कर्नाटक में 13, राजस्थान में 16, गुजरात में 20, मध्यप्रदेश में 16, बंगाल से 10 और ओडिशा में 8 सीटें पाना शामिल है। भाजपा यदि 175 का आंकड़ा पार नहीं करती है तो जदयू, शिवसेना जैसे वर्तमान सहयोगियों और बसपा व टीआरएस जैसे संभावित सहयोगियों के बावजूद उसके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का आंकड़ा 225 को पार करता नहीं लग रहा है। ऐसे में नरेन्द्र मोदी का पुन: प्रधानमंत्री बनना लगभग असंभव है। मान लेते हैं यह अनुमान भी धरा रह जाना है, जिसकी उम्मीद कम लगती है। भाजपा अगर 200 के पार निकल जाये और राजग जैसे तैसे सरकार बनाने की स्थिति में आ जाए तब भी अपनी फितरतों के चलते गठबंधन के साथ राज चलाना मोदी के लिए संभव नहीं लगता। इन्हीं सब आशंकाओं के मद्देनजर और नितिन गडकरी को लेकर संघ की इच्छाओं को धता बताने के लिए मोदी-शाह कंपनी ने जहां खुद अमित शाह को मैदान में उतारा है वहीं नागपुर जैसे लोकसभा क्षेत्र से भी गडकरी को लगभग हरवाने की व्यवस्था की है।
अभी की मोदी सरकार नाममात्र की ही राजग सरकार है। 23 मई के बाद यदि राजग की सरकार अमित शाह के नेतृत्व में बनती है तो एकबारगी तो असल राजग की सरकार होगी लेकिन उसे शाह की सरकार होते देर नहीं लगेगी। यदि ऐसा होगा तो मोदी को थरपने की अनुकूलता बनते ही अमित शाह रामनाथ कोविंंद का राष्ट्रपति पद से ना केवल इस्तीफा दिलवायेंगे बल्कि नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रपति बनाने की कोशिश भी करेंगे, ताकि नरेन्द्र मोदी घूमने-फिरने और खाने-पहनने के अपने बचे-खुचे शौक पूरे कर सकें। ऐसा ही सब हुआ तो देश की स्थितियां ना केवल मोदी राज से बदतर हो जाएंगी बल्कि हो सकता है, भविष्य में चुनाव समय पर ना हों!
भाजपा के 175 सीटों में सिमटने पर कुछ उलट अनुमानों पर चर्चा विपक्षी परिदृश्य के सन्दर्भ से भी कर लेते हैं। विपक्ष में जिनके पास ठीक-ठाक सीटें हो सकती है उनमें या तो वे हैं जो मोदी-शाह के तौर-तरीकों से भयभीत हैं या वे जो इनसे खार खाए हैं। जो अनुमान सामने आ रहे हैं उसके हिसाब से लोकसभा में लगभग 125 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस आती दिख रही है। कांग्रेस यदि 100 के भीतर सिमटती है तो विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए देवेगोड़ा-गुजराल की तरह अचानक नया नाम आयेगा और उस पर सहमति बनेगी। कांग्रेस यदि 125 का आंकड़ा पार कर जाती है तो राहुल गांधी के नेतृत्व में संप्रग-तीन की सरकार बनेगी। ऐसे में वर्तमान चुनावी-सहयोगी डीएमके, एनसीपी, राजद, जेएमएम और जेडीएस के अलावा टीएमसी, सपा और वामपंथी पार्टियां भी समर्थन देकर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को बहुमत तक पहुंचा सकती हैं।
केन्द्र में मोदी-शाह रहित बनने वाली कोई भी सरकार ना केवल वर्तमान मोदी सरकार से बल्कि भारत जैसे विविधताओं वाले लोकतांत्रिक देश के लिए हर तरह से बेहतर होगी। मोदी-शाह के बिना राजग की भी सरकार यदि बनती है, वह भी वर्तमान मोदी सरकार से देश के लिए बेहतर होगी।
जिस तरह एक पार्टी की पूर्ण बहुमत से बनी सरकारों के सभी अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं उसी तरह गठबंधन की सभी सरकारों को भी खराब नहीं कहा जा सकता। भ्रष्टाचार जैसी बुराई को नजरअंदाज कर दें तो अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहनसिंह के नेतृत्व में गठबंधन की सरकारों ने हर मोर्चे पर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली पूर्ण बहुमत की एकदम नाकारा सरकार से बेहतर काम किया। भ्रष्टाचार में तो मोदी सरकार भी आकण्ठ डूबी हुई है, बल्कि मोदी-शाह राज के खत्म होने के बाद इनकी जो करतूतें सामने आएंगी, उनके नीचे पिछली सरकारों के सभी कारनामे दब जाने हैं। गत पांच वर्षों में देश ने अब तक की सबसे निकम्मी और भ्रष्टतम सरकार को भोगा है।
—दीपचंद सांखला
02 मई, 2019

Thursday, April 18, 2019

बीकानेर लोकसभा क्षेत्र : एक और पड़ताल

विधानसभा और लोकसभा चुनावों के माहौल में अन्तर होता है। विधानसभा के चुनावों में कार्यकर्ताओं की सक्रियता जहां शोर-शराबा लिए होती है, वहीं लोकसभा के चुनावों में पहले तो कार्यकर्ता सक्रिय होते ही नहीं, होते भी हैं तो कछुआ चाल में। चुनाव क्षेत्र यदि सुरक्षित हो तो सुस्ती का फिर कहना ही क्या! बीकानेर लोकसभा क्षेत्र पिछले दो चुनावों से अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के लिए सुरक्षित है। 2009 के परिसीमन के बाद हुए इस सुरक्षित क्षेत्र का पहला चुनाव भाजपाइ अर्जुनराम मेघवाल जैसे नये चेहरे और मुख्यमंत्री रहीं वसुंधरा राजे के खेमे से होने के चलते तब के चुनाव अभियान में रिमझिम रही।
2014 में मोदी मैजिक चल रहा था, भ्रमित करने और होने का माहौल जबरदस्त था, अर्जुनराम मेघवाल की नैया आसानी से पार लग गई। मोदी प्रधानमंत्री बने तो, जैसे-तैसे मंत्री भी हो लिए। लेकिन अर्जुनराम यह नहीं समझ पाए कि अपने क्षेत्र को लाभान्वित करना कैसे है। पहली बात तो यह कि उन्हें यह पता ही नहीं है कि क्षेत्र की आधारभूत जरूरतें क्या हैं, अपनी समझ से कहीं कुछ करना तय भी किया तो वह आंटा ही उनके पास नहीं था जो शीर्ष तक पहुंचे नेताओं और ब्यूरोक्रैट को दुह सके। समय कब किसका रहा, दूसरी बार मिले पांच वर्ष भी बीत गये! किया-धिया कुछ नहीं, ऊपर से खुद की ब्यूरोक्रैटिक सनक और क्षेत्र के अन्य नेताओं की जातिय हेकड़ी में टकराहट लगातार जारी रही। नतीजतन, क्षेत्र के आठ विधानसभा क्षेत्रों से कोई नेता हाल-फिलहाल उनके साथ नहीं दिख रहा। जबकि कांग्रेस ने सामने जो उम्मीदवार खड़ा किया, उनके चलते यह सीट निकालना अर्जुनराम के लिए बहुत मुश्किल नहीं था।
दूसरी ओर, क्षेत्रीय कांग्रेस के हालात भी ऐसे ही हैं। विधानसभा चुनावों में कांग्रेसी विधायक बने गोविन्दराम मेघवाल की पुत्री सरिता मेघवाल की उम्मीदवारी अधिकांश स्थानीय नेता चाहते थे, लेकिन पार्टी ने मदन गोपाल मेघवाल को थोप दिया। क्षेत्र के स्वयंभू कांग्रेसी क्षत्रप रामेश्वर डूडी की राजनीति हमेशा से नकारात्मक रही है जिसके परिणाम वे खुद और उनकी पार्टी भी भोगती रही है। संभावित मुख्यमंत्री की सूची में नाम दर्ज होने के बावजूद वे हार चुके हैं। लेकिन अभी भी चैन कहां हैकहा भी गया है कि 'ज्यां का पड़्यो सभाव जासी जीव सूं। दे-दिवा और अड़-अड़ाकर डूडी उन मदन गोपाल को टिकट दिलवा लाए जिन्हें क्षेत्र में कोई जानता तक नहीं। बीते नवम्बर में ही प्रमोटी आइपीएस की नौकरी से उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति इसलिए ली कि खाजूवाला से उम्मीदवारी मिल जाएगी। डूडी को जोम भी था कि टिकट दिलवा दूंगा लेकिन पार पड़ी नहीं--पड़ती भी कैसे? भाजपा में जो हाल अभी अर्जुनराम मेघवाल का हुआ, क्षेत्र की राजनीति में वैसा ही हाल शुरू ही से डूडी ने अपना बना रखा है। पार्टी में सूबे के सुप्रीमो की कौनसी नाड़ डूडी ने दबा रखी है, अभी पता नहीं लगा है, लेकिन इस दबी नाड़ के चलते ही इस चुनाव में गहलोत चौथी बार बीकानेर आ रहे हैं, वे शायद अभी तक आश्वस्त नहीं हुए हैं कि टिकट से नाराज विधानसभा वार क्षत्रप कांग्रेस को जिताने में लगेंगे कि नहीं।
बीकानेर का यह चुनाव मंद-हवाई आकाश में पतंग छोड़कर बिना पेच लड़ाए आनन्द लेने वाले जैसों का हो गया है। भाजपाइयों ने अर्जुनराम मेघवाल को चुनावी आकाश में अकेले छोड़ दिया तो अन्य कांग्रेसियों ने मदनगोपाल को। भाजपा की पतंग की डोर अभी तो अकेले शहर जिलाध्यक्ष सत्यप्रकाश आचार्य थामे हैं तो कांग्रेस में रामेश्वर डूडी, डॉ. बीडी कल्ला और भंवरसिंह भाटी तीनों ही इस फिराक में हैं कि उनके हाथ में सिर्फ लटाई रहे, डोर कोई दूसरा ही पकड़े।
एक तो विधानसभा चुनावों के मुकाबले लोकसभा चुनावों में वोटिंग वैसे भी कम होती है ऊपर से विधानसभावार क्षत्रपों की नाराजगी दोनों ही पार्टियों के उम्मीदवारों की धुकधुकी को बढ़ा रही है। क्षेत्र की आठ सीटों में से केवल एक कोलायत में कांग्रेसी उम्मीदवार को वोट विधानसभा चुनावों में भंवरसिंह भाटी को मिलें वोटों से ज्यादा मिल सकते हैं, वह भी देवीसिंह भाटी की भाजपा से बगावत के चलते, अन्यथा शेष सभी क्षेत्रों में विधानसभा चुनाव में जीते हुए अपने प्रत्याशियों से ज्यादा तो दूर की बात, 20 से 30 प्रतिशत तक वोट कम ही मिलने की संभावना है।
बीकानेर में हार-जीत का अंतर इस बार 50 से 60 हजार के बीच रहता लगता है। ऐसे में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार श्योपत राम मेघवाल का प्रदर्शन बहुत कुछ तय करेगा। सीपीएम के यह प्रत्याशी 50 हजार वोट ले जाए तो हार-जीत इससे कम की ही रहती लगती है। हार-जीत यदि इतनी ही रहेगी तो ताकड़ी की काण श्योपतराम ही तय करने वाले होंगे। श्योपतराम को कमजोर इसलिए भी नहीं मानना चाहिए कि आठ विधानसभा क्षेत्रों में से एक अनूपगढ़ श्रीगंगानगर जिले में है। श्रीगंगानगर के इस क्षेत्र में ना केवल सीपीएम की अपनी पैठ है बल्कि श्योपतराम की अपनी पकड़ भी है। रायसिंहनगर से गत विधानसभा चुनाव लड़कर श्योपतराम ने 34 हजार वोट लिए और कांग्रेस को तीसरे नम्बर पर ढकेल दिया। श्रीगंगानगर जिले से लगते बीकानेर जिले के पानी वाले क्षेत्र के किसानों में भी सीपीएम की अपनी पकड़ है, वहीं श्रीडूंगरगढ़ से सीपीएम के गिरधारी महिया पहली बार विधायक चुने गये हैं। सीपीएम जीते चाहे नहीं कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में भाजपा का खेल बिगाड़नेमें लगे देवीसिंह भाटी से ज्यादा मजबूत रहेगी। कांग्रेस की स्थिति वीरेन्द्र बेनीवाल, मंगलाराम गोदारा और गोविन्द मेघवाल के मन और मंशा पर निर्भर रहेगी है। कांग्रेस में दावं पर डूडी और कल्ला दोनों की साख है। ये दोनों हर चुनाव में गोटियां पार्टी के हिसाब से नहीं, अपने हिसाब से चलते रहे हैं। अस्सी के बाद के सभी लोकसभा चुनावों पर नजर डाल लें, एक बलराम जाखड़ की उम्मीदवारी वाले चुनाव को छोड़ दें तो खुद अपने ही क्षेत्र में चुनाव की डोर कल्ला बन्धु हमेशा बेमन से पकड़े देखे गये हैं।
अर्जुनराम के लिए फिलहाल आसरा केवल मोदी नाम का है। हालांकि देवीसिंह भाटी के तोड़ के लिए संघ के स्थानीय पार्टी संगठन का काम देख चुके दशरथसिंह को लगाया गया है। वे भी बिना गोपाल गहलोत के और लम्बे समय के बाद बदली परिस्थितियों में कुछ असर दिखा पाएंगे, लगता नहीं है।
सिद्धिकुमारी को इस चुनाव से मतलब गोपाल जोशी से थोड़ा कुछ ज्यादा या कहें दिखावे भर का ही हो सकता है। वहीं अनूपगढ़ से भाजपा की संतोष बावरी को लगेगा कि क्षेत्र के वोटरों का मन इस चुनाव में माकपा के श्योपत के साथ है तो वे उलझाड़ में शायद ही पड़े। खाजूवाला, लूनकरणसर से डॉ. विश्वनाथ और सुमित गोदारा के अर्जुनराम को लेकर अपने-अपने आयठाण हैं तो श्रीडूंगरगढ़ में बिखरी पड़ी भाजपा को अभी तो खुद संभलना है। हो सकता है चुनाव तक शायद नहीं संभल पाए। बचे नोखा के विधायक बिहारी बिश्नोई, चूंकि देहात भाजपा की कमान उन्हीं के पास है तो उनकी स्थिति 'मरता क्या नहीं करता’ वाली है। कांग्रेस में दावं पर डूडी और कल्ला दो हैं तो भाजपा में अकेले बिहारी बिश्नोई है।
इस तरह बीकानेर की इस सीट के लिए कोई दावा करना परिणाम आने तक संभव कम ही लगता है।
—दीपचन्द सांखला
18 अप्रेल, 2019

Thursday, April 11, 2019

हेमलीन का बांसुरीवाला और जम्बूदेश का धूर्तमन पर सवार राजा

फिरंगियों के लोक में बांसुरीवाले की एक कथा प्रचलित है। हेमलीन शहर के बाशिन्दे गन्दगी रखने लगे, गन्दगी के चलते शहर में चूहों की भरमार हो गई। बीमारियां बढऩे लगी। त्रस्त बाशिन्दे महापौर के पास पहुंचे। तभी एक उद्बुदा व्यक्ति आया और कहने लगा कि उसकी बांसुरी की धुन में ऐसा आकर्षण है कि जिन्हें चाहे वह सम्मोहित-दिग्भ्रमित कर छुटकारा दिला सकता है। महापौर ने चूहों से छुटकारे का प्रस्ताव रखा, सोने के हजार सिक्कों में अनुबंध हुआ और बांसुरी वाला अपनी बांसुरी की धुन पर सम्मोहित कर सभी चूहों को दूर नदी तक ले गया और डुबो दिया।
काम हो जाने पर महापौर की नीयत बदल जाती है, बांसुरीवाले को वह हजार के स्थान पर सौ सिक्के ही देने की बात करता है। कुपित हो बांसुरीवाले ने जब धुन बदलकर बांसुरी गुंजाई तो हेमलीन शहर के सभी बच्चे उसके पीछे हो लिए। सम्मोहित बच्चों को धुन में खूब सारी चॉकलेट और खिलौनों का प्रलोभन सुनाई देना लगा। बच्चों को ले बांसुरीवाला दूर पहाड़ तक जैसे ही पहुंचा, पहाड़ स्थित गुफा के आगे लगा पत्थर अपने आप हट गया। बांसुरीवाले के साथ सभी बच्चों ने प्रवेश किया, पत्थर ने गुफाद्वार को स्वत: बन्द कर दिया। पीछा करते हुए गुफाद्वार तक पहुंचे हैरान-परेशान हेमलीन के बाशिन्दे महापौर को कोसने लगे। खुद के भी बच्चे चले जाने से वह भी परेशान तो था। महापौर ने बांसुरीवाले की चिरौरी की, अनुबंध अनुसार भुगतान करने का वादा किया, तब ही गुफाद्वार खुला और बच्चों को हासिल कर हेमलीन के बाशिन्दों ने चैन की सांस ली।
अब आप कहेंगे कि इस कथा को यहां लिखने का क्या मतलब। मतलब यह कि बीते छह-सात वर्षों से ठीक हेमलीन शहर जैसी तो नहीं कुछ-कुछ वैसी ही परिस्थितियों से जम्बूदेश भी गुजर रहा है। हेमलीन पहुंचा बांसुरीवादक तो था प्रोफेशनल, वादाखिलाफी हेमलीन के बाशिन्दों के प्रतिनिधि महापौर ने की। यहां भूमिका बदली है। सम्मोहक बांसुरी की धुन वाले का स्थान सम्मोहक बातेरी एक धूर्त ने ले ली तो हेमलीन के बाशिन्दों के प्रतिनिधि के स्थान पर देश के बाशिन्दे हैं। जम्बूदेश के मासूम बाशिन्दों ने धूर्त बातेरी पर भरोसा जतलाया, लेकिन राज मिलने के बाद उस धूर्त बातेरी ने अपना कोई वादा नहीं निभाया।
बांसुरीवाले की कथा के समांतर जम्बूदेश की परिस्थितियों को सिलसिलेवार समझ लें। हेमलीन की गंदगी के बरअक्स हमारे देश में भी भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और अपराध जैसी गन्दगियां लम्बे समय से फैल रहीं थी। जम्बूदेश के बाशिन्दे इस गन्दगी से परेशान जरूर थे लेकिन उकताए नहीं, जो भी शासक आए-गए उन्होंने भी इस गन्दगी में जनता की ही तरह अपने लिए भी अनुकूलता बना ली।
गत पांच वर्षों से जम्बूदेश की सत्ता पर काबिज धूर्त मन के सवार राजा की सनकें भी अजब देखी गई। अच्छा पहनने, अच्छा खाने, घूमने-फिरने और ठाट-बाट की जिन्दगी जीने की इच्छाएं संजोए इस राजा को देश और समाज से कोई लेना-देना नहीं था। वह बीते पचास वर्षों से अनुकूल अवसरों की फिराक में रहा और अवसर मिलते ही लपकने में लगा रहता। पन्द्रह वर्ष पूर्व जैसे ही उसे मालूम चला कि उसका समूह आर्थिक अभावों से जूूझ रहा है, दूसरा कोई आर्थिक जरूरतें पूरी करने वाला रहा नहीं तो अपने उन धन-पशु मित्रों से अपने समूह की आर्थिक जरूरतें पूरी करवाने लगा जिन्हें वह अपनी छोटी चौकीदारी के समय जन-धन में डाका डालने की छूट देता रहा।
सभी तरह की दबी अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने का अवसर पांच-छह वर्ष पूर्व में उसे दीखने लगा। उस सम्मोहक धूर्त ने अपने राष्ट्रीय समूह को मजबूर कर दिया कि उन्हें अपने ठाट-बाट यदि जारी रखने हैं तो अब मेरी दासता स्वीकार करें, ऐसा ही हुआ भी। फिर क्या, धूर्तमन पर सवार होकर वादों की चूसनी से उसने पूरे देश को मोह लिया। वादे जब पूरे करने की मंशा ही ना हो तो करने में क्या जाता है।
इस सबके चलते वह धूर्त बातेरी जम्बूदेश के शासन पर काबिज हो लिया, सहयोग के लिए अपने एक पुराने जोड़ीदार को साथ ले लिया। देश से किए वादों को भूल कर जोड़ीदार के सहयोग से अपनी उन सभी दबी इच्छाओं को पूरा करने में जुट गया, जो कई दशकों से उसके अन्दर कसमसा रही थी। दिन में कई-कई बार नई-नई पोशाकें पहनना, मंहगे ब्यूटीशियन की प्रतिदिन सेवाएं लेना, महंगे डाइटीशियन की सलाह पर दुनिया भर से मंगवाई महंगी चीजें खाना-पीना और देश-विदेश में घूमने-फिरने में ही लग गया। अपने दफ्तर कभी भी न जाना, अपने समूह-सहयोगियों को दबाकर रखना, बीच-बीच में भाषणों से मन की बात के माध्यम से जनता को नित नये लॉलीपोप के प्रलोभन देना। कभी-कभी तो जनता का अंगूठा ही जनता के मुंह में चूसने को देकर उसे चूसते रहने की हिदायत देने लगा।
समय कब किसका साथी हुआ है। पांच वर्ष के लिए हड़पी विलासिता का समय पूरा होने लगा। कुछ भी किया धरा होता तो मासूम जनता फिर भोंदू बन जाती। ऊपर से काले सिक्कों को सफेद करने जैसे तुगलकी फरमान से सफेद सिक्कों को ही दावं पर लगा दिया और अनाड़ीपने से लागू जजिया टैक्स ने अर्थव्यवस्था के कोढ़ में खाज करवादी।
पांच वर्ष के लिए देश को फिर कब्जाना है। सत्तर वर्ष के स्यापे की गूंज मन्द पड़ गई और पूर्व शासक पर रुदन भी काम नहीं आया तो पड़ौसी देश का डर दिखाने लगा, पड़ौसी भी सावचेत इतना कि धौंस में नहीं आ रहा। खुद की खुफिया चूक से कई हमले देश की सेना पर हुए, काउण्टर में सेना हमेशा ही ऐसा करने वालों को बिना ढिंढोरा पीटे सबक सिखाती रही ही है। इस बार धूर्तमनी शासक ने ना केवल पहले ढिंढोरा पीट दिया बल्कि उसकी गूंज के रि-प्ले धूर्त जोड़ीदार अभी तक किए जा रहे हैं। देश की संवैधानिक इकइायों जांच एजेन्सियों का दुरुपयोग धड़ल्ले से कर रहे हैं। कोर्ट को बरगलाया जा रहा है। आचार संहिता की नियति बंद मरतबान के सड़े अचार की सी कर दी है।
पांच वर्ष की विलासिता फिर से हासिल करने के लिए धूर्तमन का घोड़ा फिर दौड़ रहा है। फौजियों की लाशों पर वोट मांगे जाने लगे हैं। ना केवल झूठे वादे फिर किए जाने लगे हैं बल्कि सभी विरोधियों के खिलाफ झूठा प्रचार किया जाने लगा है। देश के बाशिन्दों के विभिन्न समुदायों में एक-दूसरे के प्रति भय बिठाया जा रहा है, परिणाम चाहे कुछ भी हो।
दुविधा यही है कि देश की जनता इस सबके बावजूद भ्रमित होती है तो उसे मासूम कहें या बेवकूफ। इतना तो पक्का है कि अब भी जो इन धूर्तों के मुगालते में आएंगे, उन्हें अपने देश से प्रेम हरगिज नहीं है।
हां, हेमलीन का वह बांसुरीवाला धूर्त नहीं था, वहां की जनता मासूम और अनाड़ी थी और वहां का महापौर जरूरत से ज्यादा सयाना। हमारी व्यथा से बांसुरीवादक की कथा का मेल कोई खास नहीं, फिर भी कुछ समानता तो है। तभी देश के इस बुरे समय में हेमलीन के उस बांसुरीवादक का स्मरण हो आया।
—दीपचन्द सांखला
11 अप्रेल, 2019