Thursday, May 30, 2019

जनादेश 2019 : ताक पर लोकतंत्र, संकट में संविधान

जिन्हें एतराज है कि जनादेश की आलोचना नहीं होनी चाहिए, उन्हें इसे यूं समझना चाहिए। 2019 के इन चुनावों में कुल 90 करोड़ मतदाताओं में से 67 प्रतिशत ने मतदान किया। यानी 54 करोड़ 27 लाख लोगों ने ही वोट डाला है। अब बात करते हैं भाजपा को मिले वोटों की। भाजपा को कुल मतदान में से 38.5 प्रतिशत वोट मिले हैं, यानी 22 करोड़ के लगभग। जिस निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार किया गया है उसे भारत जैसे देश के सन्दर्भ में अधिकतम ठीक प्रणाली कह सकते हैं। शत-प्रतिशत सही कोई भी निर्वाचन प्रणाली नहीं मानी गई है, इसीलिए अलग-अलग देशों में निर्वाचन की अलग-अलग प्रणालियां हैं। भारत की निर्वाचन प्रणाली के हिसाब से भाजपा ने सरकार बनाने की पात्रता हासिल की है, जिसे नकारना तो असंवैधानिक-अलोकतांत्रिक है लेकिन यहां विचार इस पर कर रहे हैं कि सरकार की या उसके नेता की आलोचना पर कोई एतराज वाजिब है या नहीं। पहली बात तो यह कि हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं, इस नाते राज के किसी भी अंग की आलोचना का संवैधानिक हक हमें हासिल है फिर वह चाहे शत-प्रतिशत वोट हासिल करके ही क्यों ना चुनी गई हो। हो सकता वोट देने के बाद वोटर की धारणा बदल गई हो।
चुनी जाने वाली सरकार और उसके नेता नरेन्द्र मोदी के सन्दर्भ से बात करें तो इस सरकार के विरोध में 61.5 प्रतिशत वोटरों ने मतदान किया है। यानी वोट करने वाले 54 करोड़ मतदाताओं में से 32 करोड़ के लगभग मतदाताओं ने भाजपा में विश्वास जताने से इनकार किया है। जो वोट डालने ही नहीं गये उन्हें जोड़कर प्रदेश के कुल मतदाताओं के सन्दर्भ से बात करने पर मालूम चलेगा कि 75 प्रतिशत से ज्यादा मतदाताओं ने भाजपा की नई सरकार को चुनने में रुचि नहीं दिखाई है। उक्त गणना का जिक्र केवल अपने इस हक को बताने के लिए कर रहे हैं कि सरकार और उसके नेता प्रधानमंत्री की आलोचना करने से रोकना ना केवल असंवैधानिक है बल्कि अलोकतांत्रिक भी है। प्रकारान्तर से जनादेश की आलोचना करने और उसके सभी पक्षों की समीक्षा करने का हक भी प्रत्येक नागरिक को हासिल है।
आज जो भी बात करेंगे नये जनादेश के सन्दर्भ से करेंगे। चूंकि जनादेश भाजपा को मिला है, उसके नेता नरेन्द्र मोदी को मिला है।
पहले भी कई बार उल्लेख किया गया है कि 2014 में जनादेश हासिल करने के लिए भाजपा और उसके नेता होने के नाते नरेन्द्र मोदी ने तब जो भी वादे किए, गत पांच वर्षों की अवधि में उन्हें पूरा करना तो दूर, उनका जिक्र करने तक में भाजपा और इसके नेता बगले झांकते रहे। कई योजनाएं यह सरकार लेकर आईं, जिसमें उल्लेखनीय उज्ज्वला योजना, फसल बीमा योजना, स्वच्छ भारत, गंगा सफाई, स्टार्टअप, मेक इन इंडिया आदि आदिये सभी औंधे मुंह गिरी दिखाई पड़ी। अपनी इन योजनाओं पर भाजपा पहले तो जिक्र ही नहीं करती और किया तो झूठे और गुमराह करने वाले आंकड़े पेश करती रही। भ्रष्टाचार देश में ना केवल बदस्तूर जारी है, बल्कि नोटबंदी, फसल बीमा योजना, रफाल सौदे में हुए भ्रष्टाचारों के उजागर होने में खुद सरकार और इसकी एजेन्सियां बड़ी बाधा है। CAG, CBI, RTI को इस सरकार ने पूरी तरह पंगु बना छोड़ा है। इन एजेन्सियों का अपने हित में उपयोग कांग्रेस सहित पिछली सभी सरकारें करती आयी हैं, लेकिन नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली पिछली सरकार ने तो इनके दुरुपयोग में सभी हदें पार कर दीं।
इस जनादेश में जनता ने अन्य सभी को नजरअंदाज कर मोदीजी के नेतृत्व में भाजपा को जिस आधार पर जनादेश दिया है वह ना केवल झूठ पर आधारित है बल्कि संविधान की प्रस्तावना के भी खिलाफ है। भाजपा ने इस चुनाव को राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तर्ज पर तो लड़ा ही, 2014 के वादों और घोषित योजनाओं की उपलब्धियों पर ना लड़कर मुख्यतौर पर राष्ट्रवाद जैसे हवाई मुद्दे और अन्दरखाने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर केन्द्रित कर यह सफलता हासिल की है।
संसदीय शासन प्रणाली में विपक्ष की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। लेकिन इन चुनावों को विपक्ष जहां असल मुद्दे पर लाने में असफल रहा वहीं नरेन्द्र मोदी के झूठ, उनके द्वारा बांटे भ्रमों और असंवैधानिक करतूतों को काउंटर करने में भी पूरी तरह असफल ही रहा। चुनाव आयोग की पक्षपाती भूमिका भी इस सरकार के बनने में कम सहयोगी नहीं रही।
आजादी के 70 वर्षों बाद भी जनता भ्रमित होकर और संविधान की मूल भावना के खिलाफ शासक चुनती है तो इसके लिए पिछली सरकारों को भी बरी नहीं किया जा सकता। चूंकि आजादी बाद केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस ने सर्वाधिक शासन किया है इसलिए मुख्य तौर पर वही जिम्मेदार है। कांग्रेस ने देश के मतदाताओं को संवैधानिक नागरिक के तौर पर शिक्षित करने की जिम्मेदारी को नहीं निभाया। कांग्रेस खुद तो इसका खमियाजा भुगत ही रही है लेकिन संविधान को नकारते रहने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक इकाई भाजपा को इस तरह सत्ता हासिल होना और वह भी कट्टर मानसिकता वाले के नेतृत्व में, देश के संवैधानिक-लोकतांत्रिक ढांचे के लिए कतई शुभ संकेत नहीं है। भाजपा और संघ की ओर से वर्तमान में संविधान के प्रति प्रकट की जाने वाली आस्था और श्रद्धा कोरा ढोंग है। इन्हें इस देश के साथ वही करना है जो बीते 90 वर्षों से इनके ऐजेन्डे में है। अपने उस ऐजेन्डे को पूरी तरह लागू करने की अनुकूलता हासिल करने की कोशिश संघ विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थाओं और संगठनों के माध्यम से लगातार करता रहा और उसमें सफल भी हुआ है।
भारतीय लोकतंत्र के आधिकारिक तीन आधार स्तंभों में से एक कार्यपालिका (सरकार) पर पूरी तरह और दूसरी व्यवस्थापिका (संसद) पर संघ विचारी लगभग काबिज हो लिए हैं तीसरे आधार न्यायपालिका को प्रभावित करने के यत्न भी हो ही रहे हैं और स्वयं-भू घोषित चौथा आधार मीडिया गत 5-7 वर्षों में पालतू होकर बुरे हश्र को हासिल हो चुका है। इन परिस्थितियों में जागरूक नागरिकों से उम्मीद है कि ना केवल वे खुद सावचेत हों बल्कि इस नक्कारखाने में अन्यों को सावचेत करने के लिए वे तूती भी बजाते रहें अन्यथा जिस बुरे दौर में देश के फंस जाने की आशंका प्रबल दिख रही है उसके लिए आने वाली पीढिय़ां हमें जिम्मेदार मानने से नहीं चूकेंगी, इतिहास इसकी चेतावनी देता रहा है। जनता ने चुन के किसी को थरप दिया है तो लोकतंत्र में उसका मतलब यह नहीं वह आलोच्य ही नहीं है।
मोदी की तानाशाह कायशैली की बात करने पर इन्दिरा गांधी के तानाशाही मिजाज की याद दिलाने वाले उस परिप्रेक्ष्य पर गौर नहीं कर रहे हैं कि इंदिरा गांधी गांधी-नेहरू के सान्निध्य में पली बड़ी हुईं इसलिए वह कुछ तो लोकतांत्रिक संस्कार लिए हुए थीं, आपातकाल हटाने को मजबूर उन्हें इन्हीं संस्कारों ने किया था। वहीं मोदी जिस संघ से संस्कारित है वहां लोकतांत्रिक मूल्यों की कोई गुंजाइश ही नहीं है।
—दीपचन्द सांखला
30 मई, 2019

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