Thursday, April 11, 2019

हेमलीन का बांसुरीवाला और जम्बूदेश का धूर्तमन पर सवार राजा

फिरंगियों के लोक में बांसुरीवाले की एक कथा प्रचलित है। हेमलीन शहर के बाशिन्दे गन्दगी रखने लगे, गन्दगी के चलते शहर में चूहों की भरमार हो गई। बीमारियां बढऩे लगी। त्रस्त बाशिन्दे महापौर के पास पहुंचे। तभी एक उद्बुदा व्यक्ति आया और कहने लगा कि उसकी बांसुरी की धुन में ऐसा आकर्षण है कि जिन्हें चाहे वह सम्मोहित-दिग्भ्रमित कर छुटकारा दिला सकता है। महापौर ने चूहों से छुटकारे का प्रस्ताव रखा, सोने के हजार सिक्कों में अनुबंध हुआ और बांसुरी वाला अपनी बांसुरी की धुन पर सम्मोहित कर सभी चूहों को दूर नदी तक ले गया और डुबो दिया।
काम हो जाने पर महापौर की नीयत बदल जाती है, बांसुरीवाले को वह हजार के स्थान पर सौ सिक्के ही देने की बात करता है। कुपित हो बांसुरीवाले ने जब धुन बदलकर बांसुरी गुंजाई तो हेमलीन शहर के सभी बच्चे उसके पीछे हो लिए। सम्मोहित बच्चों को धुन में खूब सारी चॉकलेट और खिलौनों का प्रलोभन सुनाई देना लगा। बच्चों को ले बांसुरीवाला दूर पहाड़ तक जैसे ही पहुंचा, पहाड़ स्थित गुफा के आगे लगा पत्थर अपने आप हट गया। बांसुरीवाले के साथ सभी बच्चों ने प्रवेश किया, पत्थर ने गुफाद्वार को स्वत: बन्द कर दिया। पीछा करते हुए गुफाद्वार तक पहुंचे हैरान-परेशान हेमलीन के बाशिन्दे महापौर को कोसने लगे। खुद के भी बच्चे चले जाने से वह भी परेशान तो था। महापौर ने बांसुरीवाले की चिरौरी की, अनुबंध अनुसार भुगतान करने का वादा किया, तब ही गुफाद्वार खुला और बच्चों को हासिल कर हेमलीन के बाशिन्दों ने चैन की सांस ली।
अब आप कहेंगे कि इस कथा को यहां लिखने का क्या मतलब। मतलब यह कि बीते छह-सात वर्षों से ठीक हेमलीन शहर जैसी तो नहीं कुछ-कुछ वैसी ही परिस्थितियों से जम्बूदेश भी गुजर रहा है। हेमलीन पहुंचा बांसुरीवादक तो था प्रोफेशनल, वादाखिलाफी हेमलीन के बाशिन्दों के प्रतिनिधि महापौर ने की। यहां भूमिका बदली है। सम्मोहक बांसुरी की धुन वाले का स्थान सम्मोहक बातेरी एक धूर्त ने ले ली तो हेमलीन के बाशिन्दों के प्रतिनिधि के स्थान पर देश के बाशिन्दे हैं। जम्बूदेश के मासूम बाशिन्दों ने धूर्त बातेरी पर भरोसा जतलाया, लेकिन राज मिलने के बाद उस धूर्त बातेरी ने अपना कोई वादा नहीं निभाया।
बांसुरीवाले की कथा के समांतर जम्बूदेश की परिस्थितियों को सिलसिलेवार समझ लें। हेमलीन की गंदगी के बरअक्स हमारे देश में भी भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और अपराध जैसी गन्दगियां लम्बे समय से फैल रहीं थी। जम्बूदेश के बाशिन्दे इस गन्दगी से परेशान जरूर थे लेकिन उकताए नहीं, जो भी शासक आए-गए उन्होंने भी इस गन्दगी में जनता की ही तरह अपने लिए भी अनुकूलता बना ली।
गत पांच वर्षों से जम्बूदेश की सत्ता पर काबिज धूर्त मन के सवार राजा की सनकें भी अजब देखी गई। अच्छा पहनने, अच्छा खाने, घूमने-फिरने और ठाट-बाट की जिन्दगी जीने की इच्छाएं संजोए इस राजा को देश और समाज से कोई लेना-देना नहीं था। वह बीते पचास वर्षों से अनुकूल अवसरों की फिराक में रहा और अवसर मिलते ही लपकने में लगा रहता। पन्द्रह वर्ष पूर्व जैसे ही उसे मालूम चला कि उसका समूह आर्थिक अभावों से जूूझ रहा है, दूसरा कोई आर्थिक जरूरतें पूरी करने वाला रहा नहीं तो अपने उन धन-पशु मित्रों से अपने समूह की आर्थिक जरूरतें पूरी करवाने लगा जिन्हें वह अपनी छोटी चौकीदारी के समय जन-धन में डाका डालने की छूट देता रहा।
सभी तरह की दबी अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने का अवसर पांच-छह वर्ष पूर्व में उसे दीखने लगा। उस सम्मोहक धूर्त ने अपने राष्ट्रीय समूह को मजबूर कर दिया कि उन्हें अपने ठाट-बाट यदि जारी रखने हैं तो अब मेरी दासता स्वीकार करें, ऐसा ही हुआ भी। फिर क्या, धूर्तमन पर सवार होकर वादों की चूसनी से उसने पूरे देश को मोह लिया। वादे जब पूरे करने की मंशा ही ना हो तो करने में क्या जाता है।
इस सबके चलते वह धूर्त बातेरी जम्बूदेश के शासन पर काबिज हो लिया, सहयोग के लिए अपने एक पुराने जोड़ीदार को साथ ले लिया। देश से किए वादों को भूल कर जोड़ीदार के सहयोग से अपनी उन सभी दबी इच्छाओं को पूरा करने में जुट गया, जो कई दशकों से उसके अन्दर कसमसा रही थी। दिन में कई-कई बार नई-नई पोशाकें पहनना, मंहगे ब्यूटीशियन की प्रतिदिन सेवाएं लेना, महंगे डाइटीशियन की सलाह पर दुनिया भर से मंगवाई महंगी चीजें खाना-पीना और देश-विदेश में घूमने-फिरने में ही लग गया। अपने दफ्तर कभी भी न जाना, अपने समूह-सहयोगियों को दबाकर रखना, बीच-बीच में भाषणों से मन की बात के माध्यम से जनता को नित नये लॉलीपोप के प्रलोभन देना। कभी-कभी तो जनता का अंगूठा ही जनता के मुंह में चूसने को देकर उसे चूसते रहने की हिदायत देने लगा।
समय कब किसका साथी हुआ है। पांच वर्ष के लिए हड़पी विलासिता का समय पूरा होने लगा। कुछ भी किया धरा होता तो मासूम जनता फिर भोंदू बन जाती। ऊपर से काले सिक्कों को सफेद करने जैसे तुगलकी फरमान से सफेद सिक्कों को ही दावं पर लगा दिया और अनाड़ीपने से लागू जजिया टैक्स ने अर्थव्यवस्था के कोढ़ में खाज करवादी।
पांच वर्ष के लिए देश को फिर कब्जाना है। सत्तर वर्ष के स्यापे की गूंज मन्द पड़ गई और पूर्व शासक पर रुदन भी काम नहीं आया तो पड़ौसी देश का डर दिखाने लगा, पड़ौसी भी सावचेत इतना कि धौंस में नहीं आ रहा। खुद की खुफिया चूक से कई हमले देश की सेना पर हुए, काउण्टर में सेना हमेशा ही ऐसा करने वालों को बिना ढिंढोरा पीटे सबक सिखाती रही ही है। इस बार धूर्तमनी शासक ने ना केवल पहले ढिंढोरा पीट दिया बल्कि उसकी गूंज के रि-प्ले धूर्त जोड़ीदार अभी तक किए जा रहे हैं। देश की संवैधानिक इकइायों जांच एजेन्सियों का दुरुपयोग धड़ल्ले से कर रहे हैं। कोर्ट को बरगलाया जा रहा है। आचार संहिता की नियति बंद मरतबान के सड़े अचार की सी कर दी है।
पांच वर्ष की विलासिता फिर से हासिल करने के लिए धूर्तमन का घोड़ा फिर दौड़ रहा है। फौजियों की लाशों पर वोट मांगे जाने लगे हैं। ना केवल झूठे वादे फिर किए जाने लगे हैं बल्कि सभी विरोधियों के खिलाफ झूठा प्रचार किया जाने लगा है। देश के बाशिन्दों के विभिन्न समुदायों में एक-दूसरे के प्रति भय बिठाया जा रहा है, परिणाम चाहे कुछ भी हो।
दुविधा यही है कि देश की जनता इस सबके बावजूद भ्रमित होती है तो उसे मासूम कहें या बेवकूफ। इतना तो पक्का है कि अब भी जो इन धूर्तों के मुगालते में आएंगे, उन्हें अपने देश से प्रेम हरगिज नहीं है।
हां, हेमलीन का वह बांसुरीवाला धूर्त नहीं था, वहां की जनता मासूम और अनाड़ी थी और वहां का महापौर जरूरत से ज्यादा सयाना। हमारी व्यथा से बांसुरीवादक की कथा का मेल कोई खास नहीं, फिर भी कुछ समानता तो है। तभी देश के इस बुरे समय में हेमलीन के उस बांसुरीवादक का स्मरण हो आया।
—दीपचन्द सांखला
11 अप्रेल, 2019

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