Thursday, April 4, 2019

लोकसभा चुनाव और बीकानेर : प्रारंभिक पड़ताल

राजनीति ही नहीं समाज के अन्य क्षेत्रों में भी वंशवाद और जातिवाद का रुदन हास्यास्पद है। भारतीय समाज की सामाजिक संरचना का आधार परिवार और जातिवाद है, बावजूद इसके राजशाही और सामन्तशाही की पैरवी नहीं की जा सकती, क्योंकि आजादी की लड़ाई से हमने राजशाही और सामन्तशाही के विकल्प के तौर पर समाज की नहीं शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था हासिल की है।
मुद्दे पर आने से पूर्व यह स्पष्टीकरण जरूरी इसलिए कि कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवार यहां मौसेरे भाई हैं, दोनों की चर्चा फिलहाल इस आधार पर ही हो रही है। जबकि चर्चा होनी यह चाहिए कि विश्व की 'सबसे बड़ी पार्टी’ भाजपा और भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेसये दोनों ही बीकानेर के अपने प्रत्याशियों को लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं पर दावं शायद इसलिए नहीं लगाते कि उन्हें उन पर भरोसा नहीं है। 2009 में अर्जुनराम मेघवाल को भाजपा ने जब चुनाव उतारा तब वे कार्यकर्ता तो दूर राजनीति से भी उनका कोई लेना-देना नहीं था, उम्मीदवारी तय की गई और भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दिला कर उन्हें कार्यकर्ताओं पर थोप दिया। जबकि बीकानेर लोकसभा क्षेत्र की इस सुरक्षित सीट के लिए तब अनुसूचित जाति के एकाधिक संघनिष्ठ भाजपाई दावेदार थे। ठीक ऐसा ही कांग्रेस ने इस बार किया है। अन्तर इतना ही है कि भारतीय पुलिस सेवा के जिन अधिकारी मदन गोपाल मेघवाल को कांग्रेस ने यहां से उम्मीदवारी दी है, उन्होंने सेवानिवृत्ति गत दिसम्बर में ही खाजूवाला विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवारी की उम्मीद में ली थी। शेष तो अपने क्षेत्र या राजनीति से जितना लेना-देना 2009 से पूर्व अर्जुनराम मेघवाल का रहा उतना ही मदन गोपाल का अभी है। देखना यही है कि रामेश्वर डूडी की जिद पर मिली इस उम्मीदवारी पर कांग्रेस के लिए खरे कितने तो मदन मेघवाल उतरेंगे और कितने रामेश्वर डूडी। वर्तमान चुनावी राजनीति पर बात करें तो यह धारणा डूडी पर अच्छे से लागू होती है कि वे खुद हार सकते हैं, दूसरों को हरा भी सकते हैं लेकिन किसी को जिता भी सकते हैंऐसा लगता नहीं है। आठ विधानसभा क्षेत्रों में फैली इस सीट का चुनाव बजाय अभियान केमाहौल पर ज्यादा निर्भर करता है। क्योंकि अभियान की सघनता विधानसभा वार नेताओं और कार्यकर्ताओं पर तो निर्भर करती ही है बल्कि अब तो बहुत कुछ आर्थिक संसाधनों पर निर्भर करने लगा है।
उक्त उल्लेखित परिस्थितियों के मद्देनजर कांग्रेस और भाजपा दोनों के उम्मीदवारों के परिप्रेक्ष्य को सरसरी तौर पर देखें तो अर्जुनराम मेघवाल और मदन गोपाल मेघवाल की स्थितियां लगभग एक-सी हैं। एंटी इंकम्बेंसी के बावजूद अर्जुनराम मेघवाल से पूरे क्षेत्र के मतदाता ना केवल परिचित हैं बल्कि केन्द्र की सत्ता में लगभग चार वर्षों की भागीदारी भी उनको अपरिचय की मुहताज नहीं रहने देती। माहौल की बात करें तो 2014 वाला मोदी-मैजिक चाहे अब नहीं रहा हो-बहुत से भक्त इस भय में कडिय़ों को अभी भी पकड़े हैं कि छोड़ दिया तो गिर पड़ेंगे और गिर पड़े तो अंधभक्ति की सफाई वह फिर क्या देंगे! अलावा इसके भारतीय जनता पार्टी के सभी तरह के मैनेजमेंट अभी सुदृढ़ हैं अत: इस तरह की कमियों से अर्जुनराम को शायद ही जूझना पड़े। रही बात विधानसभा वार नेताओं की सक्रियता की तो लोकसभा चुनाव की नाव की पतवारों को वे निष्क्रिय कर सामान्यत: लहरों के भरोसे छोड़ देते हैं। कम ही नेता उस तरह से सक्रिय होते हैं जिस तरह वे खुद के चुनाव में होते हों।
देवीसिंह भाटी का भाजपा छोडऩा और फिर अर्जुनराम मेघवाल के विरोध में ताल ठोकने से जितना नुकसान होगा लगभग उतने की भरपाई तो कांग्रेस में गोविन्द मेघवाल खेमा मदन गोपाल को हानि पहुंचाकर कर सकता है। यहां यह स्मरण रखना भी जरूरी है कि मोदी मैजिक के पिछले चुनाव में अर्जुन मेघवाल ने पौने तीन लाख वोटों के फासले से जीत दर्ज की थी।
कांग्रेस से आए मदन गोपाल मेघवाल का अकेले बूते से पिछले अन्तर को पाटना आसान नहीं लगता। तब भी नहीं यदि डूडी जी-जान से जुट जाएं! क्षेत्र में खुद डूडी ने अपने लिए खड्डे कम नहीं खोद रखे हैं। दूसरी बात खुद डूडी खड़े हों तो क्षेत्र के लोग साथ हो लेते हैं। डूडी के कहने भर से सभी मदन गोपाल मेघवाल के साथ हो लेंगे, ऐसी पुण्याई डूडी ने कमाई नहीं है। चुनाव परिणामों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्षेत्र के आठ में से दोकोलायत और नोखा में अर्जुनराम को कितना नुकसान होगा। नोखा डूडी का क्षेत्र है, वहीं कोलायत में भाजपा से बागी हुए देवीसिंह भाटी और कांग्रेसी विधायक और वर्तमान सरकार में मंत्री भंवरसिंह भाटीये दोनों प्रतिद्वन्द्वी अर्जुनराम को नुकसान पहुंचाने में अलग-अलग उद्देश्यों से जुटेंगे। शेष छह विधानसभा क्षेत्रों में से खाजूवाला के सन्दर्भ से गोविन्द मेघवाल की बात कर चुके हैं। यह उम्मीदवारी उनकी पुत्री सरिता चौहान के नाम लगभग तय मानी जा रही थी जो उनके राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी डूडी की जिद के चलते मदन गोपाल को हासिल हुई है। इसी तरह श्रीगंगानगर जिले के सुरक्षित अनूपगढ़ क्षेत्र के नेताओं-मतदाताओं का भी बीकानेर लोकसभा चुनावों में रुख तटस्थ सा रहता है, हालांकि सीपीएम के शोपत मेघवाल के चलते इस बार तटस्था शायद ही नजर आए। लूनकरणसर, श्रीडूंगरगढ़ के हारे कांग्रेसी उम्मीदवार डूडी के मदन गोपाल को निहाल करेंगे, नहीं  लगता। शहर की दोनों विधानसभाई सीटों के क्षेत्र की स्थिति कमोबेश यही है, बीकानेर पूर्व में कांग्रेसियों की स्थिति अभी तक लोक प्रचलित उस कहावत जैसी ही है कि 'माई श्मशान किसका कि बेटा आये-गयों के'। वहीं बीकानेर पूर्व से लगातार तीसरी बार विधायक बनी भाजपा की हर तरह से नाकारा सिद्धिकुमारी से उम्मीद खुद अर्जुनराम भी शायद ही कुछ रखते हों। बीकानेर पश्चिम में 1980 से आज तक कल्ला बंधु लोकसभा के कांग्रेसी उम्मीदवार के पक्ष में अपने लिए जुटने की तरह जुटे हों, इसकी पुष्टि प्रमाण और परिणाम दोनों ही नहीं करते।
जैसाकि अनूपगढ़ के हवाले से ऊपर जिक्र किया है कि बीकानेर लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस के लिए एक पेच माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार शोपत मेघवाल का भी है। क्षेत्र के आठवें विधानसभा क्षेत्र अनूपगढ़ में खुद सीपीआइ(एम) की अपनी उपस्थिति ठीक-ठाक है और शोपत उसी इलाके रायसिंहनगर से हैं। वहीं श्रीडूंगरगढ़ विधानसभा क्षेत्र से वर्तमान विधायक सीपीआई (एम) के गिरधारी महिया की पैठ भी अपने क्षेत्र में कम नहीं है। कैडर बेस सीपीआई (एम) में अपने उम्मीदवार के लिए दूसरी पार्टियों की तरह दिखावटीपने जैसी बात नहीं। इस तरह कांग्रेसी उम्मीदवार को जो अल्पसंख्यक मतों का लाभ होना है उसे सीपीआई (एम) के शोपत काफी हद तक बेअसर कर देंगे। क्योंकि तार्किक-सोच, धर्मनिरपेक्ष, ट्रेड यूनियन और किसान आन्दोलनों से जुड़े जो वोट कांग्रेस को मिलते, उसमें से कुछ तो शोपत मेघवाल ले ही जाएंगे। इस तरह की टूटन तब ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब जीत-हार थोड़े अन्तर की हो।
ऐसे में बीकानेर लोकसभा क्षेत्र के लिए कैसा भी अनुमान अभी दूर की कौड़ी माना जायेगा। देखते हैं अर्जुनराम मेघवाल के मुकाबले मदन गोपाल मेघवाल मानव और आर्थिक दोनों तरह के संसाधन कितने झोंक पाते हैं और ये भी कि डूडी यहां की जीत को अपनी नाक का सवाल बनाते हैं कि नहीं।
—दीपचन्द सांखला
4 अप्रेल, 2019

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