Thursday, March 28, 2019

कविता के एक श्रोता-पाठक की कुछ अनुभूतियां : कुछ सुनी-गुनाई

बात पिछली सदी के आठवें दशक से शुरू करते हैं, तब बीकानेर में कवि सम्मेलनों-मुशायरों के आयोजन अकसर होते थे। तब ऐसे सम्मेलनों में सभी रसों की कविताएं, गीत और गजले-नज्में सुन कर श्रोता अपने मन और वृत्ति का ना केवल रंजन करते बल्कि उसे पुष्ट भी कर लेते। उन आयोजनों में पुराने रसिक तो शिरकत करते ही थे—किशोर और नवयुवा भी पहुंचते। आयोजन जब नहीं होते तो श्रोता उन्हीं मंचीय कवियों का लिखा-छपा तलाशते और पढ़ते, जो आनन्द सुनने में मिलता, पढऩे में वह अकसर नहीं मिलता। समझ जाते कि कविता की श्रवणीय और पठनीय दो अलग रचनाधाराएं हैं। इसी तलाश में वे शैक्षिक पाठ्यक्रमों में उपलब्ध एवं पत्र-पत्रिकाओं में छपी रचनाओं से रू-बरू होते जिससे उनका पाठक मन प्रशिक्षित-दीक्षित होता। उन्हें काव्य-विधा में मंचीय और पठनीय की फांक समझ में आने लगती। पिछले लम्बे अरसे से कवि सम्मेलन-मुशायरों की यह स्कूल नदारद है, उसकी जगह साहित्यिक आयोजनों ने जरूर ले ली, लेकिन ऐसे आयोजन उस स्कूलिंग के बिल्कुल प्रतिकूल हैं जो कवि सम्मेलन-मुशायरे करते रहे थे। इधर ना वैसे कवि सम्मेलन-मुशायरे रहे ना वैसी पत्र-पत्रिकाएं, अखबारों में साहित्य का स्थान भी सिमट गया। बावजूद इन सबके साहित्य की अन्य विधाओं की तरह अच्छी कविताएं भी लिखी जा रही हैं। 

नई कविता का छंदमुक्त होना, स्थानीय अखबारों की बाढ़, वर्ग-विशेष के पास आए अतिरिक्त धन और मुद्रण की बदली तकनीक कइयों को कवि बनने को प्रेरित करने लगी है-समाज में साहित्यकार को 'प्रिविलेज्ड पर्सनल्टी' माना जाना भी एक आकर्षण रहा है। इससे हुआ यह कि कविता जो साहित्य में सबसे मुश्किल विधा है उसे सबसे आसान मान लिया गया। जबकि लय को साधना, शब्द का सही चयन और कहने का ढंग कविता को अन्य से अलग करता है। समानार्थक शब्दों की रंगत भी अलग होती है, इसलिए समान अर्थ वाले सटीक शब्द का चयन भी महत्त्वपूर्ण होता है।

साहित्य का इतिहास बहुत निर्मम होता है, बीती सदियों में कितने लेखकों का उल्लेख मिलता है और कितनों की रचनाओं को हम पढ़ते-पढ़ाते हैं? इतिहास की चलनी बहुत बारीक छानती है, अधिकांश चलनी में ही रह जाना है। ऐसा हो तो कवि या साहित्यकार होने की असफल कोशिशों का हासिल स्वांत: सुखाय के अतिरिक्त क्या होना है! धर्मवीर भारती के हवाले से कहें से इस तरह लिख-छपवा कर कागज को रद्दी करना देशद्रोह में आता है। इस तरह विचारेंगे तो कविता ही नहीं साहित्य पर आये संकट से बचायेंगे ही, खोटे सिक्कों को चलन से रोक कर खरे सिक्कों की अहमियत भी समझने लगेंगे।
अब सवाल हो सकता है कि अच्छी कविता किसे मानें, बड़ा कवि किसे? पहली कसौटी तो आप खुद हो सकते हैं। आपका अन्तर्मन पुष्ट-रिपेयर किस तरह के सृजन से होता है, आपकी भावभूमि में कौंध-स्पार्किंग रचना से उपजती है? हिन्दी के  सन्दर्भ से ही बात करें तो इसे सृजनात्मक-भाषा बने एक सदी से ज्यादा हो गया। भाषा और साहित्य-रसिकों का बड़ा समूह किन रचनाओं और किनकी रचनाओं से अपने को पुष्ट करता है, यह दूसरी कसौटी हो सकती है। 

इस दौर में कविता को लेकर एक बात और उठती है रचना में अन्तर्निहित तत्त्व की—बिम्बों की पुनरावृत्ति की। इस सम्बन्ध में कवि-आलोचकों का मानना है कि विभिन्न सृजनात्मक माध्यमों से अब तक इतना कहा जा चुका है कि कहने को नया कुछ नहीं बचा, इसीलिए कह दिए गए को नये तरीके से कहना ही बड़ी चुनौती है।
बात कवि-सम्मेलन और मुशायरों से शुरू की तो प्रश्न हो सकता है कि जिस तरह मंचीय कविता पढऩे पर सामान्यत: वह अनुभूति नहीं देती जो सुनने पर देती है, ऐसी ही सीमा क्या पठनीय कविताओं के  साथ भी है? इसे विभिन्न श्रवण-अनुभवों से समझा जा सकता है। खुद कवि द्वारा अपनी कविता अच्छे से ना पढ़ी जाय तो वैसी अनुभूति नहीं देगी जो कविता के दक्ष पाठक को उसी कविता को पढऩे से मिलती है। अच्छे पाठ को तीन कवियों के पढऩे के तरीके से समझ सकते हैं, जिन्हें सुनने के  अवसर बीकानेर में मिलते रहे हैं। नन्दकिशोर आचार्य निखालिस भाव से कविताएं सुनाते हैं, बिना झंझोड़े अन्तर्मन तक इतनी सहज पहुंचती है कि तत्काल कुछ महसूस ही नहीं होने देती।

दूसरे अर्जुनदेव चारण राजस्थानी के कवि हैं और रंगमंच से जुड़े भी—वे कविता पाठ करेंगे तो आपको होम थिएटर सी अनुभूति करवाएंगे। तीसरे मालचन्द तिवाड़ी हैं जो हिन्दी और राजस्थानी दोनों में कविताएं लिखते हैं, जब वे पाठ करते हैं तो कविता की अन्तर्वस्तु के साथ ना केवल स्वयं भावुक हो लेते हैं बल्कि अपने श्रोताओं को भी लपेट लेते हैं। इन तीनों को सुनने वाले श्रोता-रसिक के लिए अनुगूंज और अनुभूतियां अलग-अलग ही नहीं होती, श्रोता द्वारा पढ़ी हुई उन्हीं कविताओं से परिष्कृत भी होती है, इसीलिए सुनने और पढऩे के सुख भिन्न माने गये हैं।
—दीपचन्द सांखला

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