Thursday, March 14, 2019

मीडिया की साख और अस्तित्व पर संकट

बात राजद नेता के उस पत्र से शुरू करते हैं जिसके माध्यम से तेजस्वी यादव ने विभिन्न विपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं से अपील की है कि वे उन टीवी चैनलों का बहिष्कार करें जो एक एजेण्डे के तहत पार्टी-विशेष को चुनावी लाभ दिलाने के लिए विपक्षी दलों की छवि खराब कर रहे हैं। तेजस्वी बदनाम-मसखरे लालूप्रसाद यादव जैसे नेता के राजनीतिक वारिस चाहें हों, लेकिन वे अपनी बात संजीदगी से कहते हैं। वर्तमान हैसियत उन्हें वंशवाद के चलते चाहे मिली हो लेकिन अपने समकक्ष वारिसों से ज्यादा परिपक्वता से वे पेश आते हैं।
जातिवाद, वंशवाद, धर्मांधता जैसी बुराइयां फिलहाल भारतीय समाज की वह बुराइयां हैं जिनसे छूट पाने का ना तात्कालिक उपाय कोई है और ना ही भगीरथ प्रयास कोई करता दीख रहा। इसमें कुतर्क यह आ सकता है कि फिर राजाओं-नवाबों का राज ही क्या बुरा था। बुरा था, उसमें वारिस व्यक्ति, दम्पती या परिवार तय करता था जिसे मानना प्रजा की मजबूरी थी। आज के वंशवाद को चला चाहे राजनेता रहे हों, उसे स्वीकारना-दुत्कारना जनता के हाथ है। कई नेताओं के वारिसों का हाशिए पर होना इसकी पुष्टि करता है। अब तो संघ पोषित भाजपा भी इससे मुक्त नहीं है। वामपंथी पार्टियां अपवादों में गिनायी जा सकती हैं वहां यह संभव इसलिए है कि उनकी बणत भारतीय नहीं है, इसी वजह से इनका सर्व स्वीकार्य होना संदिग्ध है। भारत जैसे देश को सुधारा और चलाया इसकी तासीर के अनुरूप ही जा सकता है। यह बात ना वामपंथियों की समझ में आई है और ना राष्ट्रवाद जैसे पश्चिमी अवधारणा से चलने वाले संघ और इसकी अनुगामी भाजपा के।
बात मीडिया के हवाले से शुरू की, वहीं लौटते हैं। भारतीय मीडिया चाहे इस वहम में जी रहा है कि उसे लोकतंत्र का चौथा पाया माना जाता है, लेकिन यह केवल धारणा है, संविधान सम्मत नहीं। संविधान सम्मत लोकतंत्र के तीन ही पाए हैंव्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। चढ़ाने की गरज भर से लोकतंत्र का चौथा पाया बता-बता कर मीडिया के वहम के गुब्बारे को इतना फुला दिया गया कि वह नियति के उस कगार पर पहुंचने को है जहां उसे फटना ही है।
भारतीय, खासकर हिन्दी मीडिया के संदर्भ से बात करें तो प्रिन्ट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के ये दोनों आयाम फिलहाल अंधेरे को हासिल हो गये हैं। व्यवसाय ही नहीं, धंधा बन चुके मीडिया के लिए पत्रकारिता के मूल्यों और आदर्श की बात करना 'भैंस के आगे बीन बजाना' जैसा है। मीडिया समूहों के मालिकों का तो क्या कहेंजो तथाकथित पत्रकार, संपादक, स्टींगर, न्यूज एंकर हैं, उन्होंने तो व्यवस्था के आगे समर्पण ही कर दिया है। अधिकांश तो अधजल गगरी छलकत जाय के साक्षात उदाहरण हैं। अधिकांश पत्रकार हेकड़ी और आत्मसम्मान तथा अधिकारों और लालच में अन्तर ही नहीं समझते। समाज के किसी प्रभावी व्यक्तित्व या राजनेता के दिए अतिरिक्त मान और तवज्जो की मंशा को समझने और ना समझने वाले-दोनों ही तरह के मीडियाकर्मी ऐसे मान-तवज्जो पर मुग्ध होने से नहीं बच पाते हैं।
बीते पांच-छह वर्षों में कर्तव्यच्युत हुए मीडिया समूह देश-धर्म की भी परवा नहीं कर रहे हैं। वजह साफ है कि मीडिया समूहों को चलाने वालों का अपनी कमाई लगातार बढ़ाने के सिवाय अन्य कोई मकसद होता ही नहीं है। वहीं पत्रकार अपनी आजीविका को बनाए और बचाए रखने की जुगत में पेशेवर मूल्यों को या तो त्याग चुका है या ऐसी उसकी समझ विकसित ही नहीं हो पाई है। आजादी के आन्दोलन के समय जो भारतीय पत्रकारिता सभी तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद कर्तव्यच्युत नहीं हुई, उसी का वारिस आज का मीडिया आजादी बाद की अनेक अनुकूलताओं के होते हुए भी यदि अपनी साख बनाए-बचाए नहीं रख रहा है तो अपने महत्त्व और जरूरत को वह खुद ही खत्म कर लेगा।
आजादी बाद जिस महती जिम्मेदारी की ओर ध्यान नहीं दिया गया, वह हैजनता को एक लोकतांत्रिक देश का नागरिक होने के तौर पर प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी। यह जिम्मेदारी तीन संवैधानिक आधार स्तम्भों व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका की तो थी ही। चौथे मानद स्तम्भ मीडिया की भी कम नहीं थी। इस जिम्मेदारी के प्रति इन चारों स्तम्भों के उदासीन रवैये के चलते हुआ यह कि उक्त तीनों संवैधानिक संस्थाओं तक पहुंचने वाले लोगों में से अधिकांश में संवैधानिक नागरिक होने का अभाव नजर आता है। इसका प्रत्यक्ष खमियाजा अब तक अधिकतम शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस ने तो भुगता ही है पर असल में नुकसान देश का हो रहा है। गैर-संवैधानिक विचार वाले समूहों का बोलबाला बढ़ गया। मीडिया इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार इसलिए है कि उसने कभी भी ऐसी अपनी जिम्मेदारी की ओर ध्यान नहीं दिया जबकि तीनों संवैधानिक स्तम्भों को इस जिम्मेदारी का लगातार अहसास करवाने का काम मीडिया का ही था। खुद मीडिया भी इसी कारण से संवैधानिक मूल्यों के साथ काम करने वालों की कमी से जूझ रहा है। बाकी के तीन स्तम्भों को तो सम्भालने की जिम्मेदारी संविधान की है। लोकतंत्र का मान लिया गया चौथा स्तम्भ मीडिया यह भूल गया कि उसे अपनी हैसियत तो खुद बचाये रखनी है। इस घोर प्रतिकूल समय में अपनी साख और हैसियत दोनों को मीडिया के लिए जैसे-तैसे भी बचाना जरूरी है। इस ओर सक्रिय होने का समय यही है, अन्यथा इतिहास मीडिया को भी कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूकेगा।
—दीपचन्द सांखला
14 मार्च, 2019

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