Thursday, January 24, 2019

न्यायिक सक्रियता : तालाब, आगोर और हमारा शहर (14 मार्च, 2012)

अखबार में छपी खबर या ध्यान में आयी किसी अन्यायी बात का संज्ञान लेकर या स्वप्रेरणा से याचिका दर्ज कर कोर्ट द्वारा सुनवाई करने की उल्लेखनीय खबरें अब ज्यादा आने लगी हैं। ऐसा पहले भी होता आया है, लेकिन कभी-कभार ही। लेकिन पहले जब ऐसा होता था तो उसकी खबर सुर्खियां ज्यादा पाती थीं। इस तरह की घटनाएं अब ज्यादा होने लगी हैं तो उसकी दबे मुंह समीक्षा भी होती है और इधर-उधर की गलियां निकाल कर आलोचना भी। यहां तक कि न्यायपालिका के लिए लक्ष्मण रेखा लांघने तक की बात कर दी जाती है। व्यवस्था के सभी आयाम जब भ्रष्टाचार से तर होते जा रहे हों तो उम्मीद की एकमात्र किरण न्यायालयों से ही आती दीखती है। ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि न्यायालय शत-प्रतिशत दूध के धुले हैं लेकिन फिर भी वहां धर्म अभी कायम है।
विद्वान न्यायाधीश मनीष भण्डारी की जयपुर की गंगोत्री रामगढ़ बंधे की आगोर को लेकर सक्रियता इन दिनों चर्चा में है। उनकी इस सक्रियता से सरकार, शासन और बिल्डरों में खलबली है।
हमारे बीकानेर के तालाब और तलाइयों पर काम कर चुके डॉ. ब्रजरतन जोशी के हवाले से बात करें तो उनका कहना है कि अपने इस शहर में कभी पन्द्रह तालाब और चौवन तलाइयां हुआ करती थीं जो इस शहर की पानी की लगभग सभी जरूरतें पूरी करने में सक्षम थीं। और यह भी कि इन तालाबों-तलाइयों में पानी की आगत केवल वर्षा से संभव थी। अब आप ही विचारें जिस थार रेगिस्तान में अपना शहर पसरा है उस थार में बारिश की कितनी अनिश्चितता है। कई-कई मानसून सूखे ही निकल जाते हैं। इस मावठ में भी एक बूंद का ना बरसना बारिश के गणित को समझने वालों के लिए चिन्ता का सबब अभी से ही बन गया है। जानकार कहते हैं कि मावठ का ना बरसना अगली फसल के लिए शुभ संकेत नहीं है। उनकी भाषा में बात करें तो अच्छे जमाने के आसार कम लगते हैं, उन्हें ‘काळ’ की संभावना दीखने लगी है।
बात तो बीकानेर के तालाब-तलाइयों की करनी थी, लग गये मावठ ना होने की चिन्ता में। तो शहर के वो पन्द्रह तालाब और चौवन तलाइयों में से अधिकांश के अवशेष तक अब नहीं है। कुछ हैं भी तो उनकी आगोर नहीं हैं, आगोर यानी आस-पास की वह जमीन जिसकी या तो ढाल तालाब की ओर हो या बरसे पानी को नाळों-खाळों से तालाब तक लाया जा सकता हो। शहर के बचे-खुचे तालाबों की लगभग सभी आगोरों पर कब्जे होकर निर्माण हो चुके हैं। कुतर्की यह भी कह देते हैं कि जब जलदाय विभाग पानी घरों तक पहुंचा ही रहा है तो अब इनकी जरूरत क्या है। वे तब जलदाय विभाग की उन हिदायतों को नजर अंदाज क्यों कर देते हैं जिनमें वे यानी जलदाय विभाग वाले यह भी बताते हैं कि जहां से लेकर पानी वे आप तक पहुंचाते हैं वे स्रोत भी अब सूख रहे हैं। हमें पता होना चाहिए कि यह तालाब और तलाइयां भी इन कुओं को चार्ज करते हैं और यह भी कि ये तालाब और तलाइयां स्थानीय संस्कृति के केन्द्र भी हुआ करते थे। बिना आगोर के अपने सूरसागर को कुओं और कैनाल से तीन वर्ष से ज्यादा समय तक पानी पहुंचाने के बावजूद एक बार भी चौथाई तक ना भर पाना हमारे सीख की प्रेरक नहीं बन सकती क्या?
दीपचंद सांखला
14 मार्च, 2012

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