पूर्ण बहुमत के साथ केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार को तीन वर्ष हो
लिए हैं। 2013 के चुनावों में
राज्य की अधिकांश विधानसभाई सीटों और 2014 में लोकसभा की 282 सीटों पर काबिज
हुई भाजपा को दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों ने झटका जरूर दिया, लेकिन बाद में कुछ राज्यों में हुए चुनावों में
भाजपा न केवल अपना प्रभाव बढ़ाने में सफल रही बल्कि कुछ उन क्षेत्रों में काबिज
होने में सफल हुई जहां काबिज होने की उम्मीद 2012-13 में कोई भाजपाई भी नहीं रखता था। यह करिश्मा अकेले
नरेन्द्र मोदी का और बाद के चुनावों में उनके प्रमुख या कहें एकमात्र विश्वसनीय
सहयोगी अमित शाह का ही है। मूल्यों की राजनीति में विश्वास ना कभी नरेन्द्र मोदी
का रहा है और ना ही अमित शाह का। अंगुली इन्हीं पर क्यों उठाएं ये दोनों जिस संघ
के स्कूल से दीक्षित हैं वहां भी मूल्यों की राजनीति को कोई स्थान नहीं है। इनकी
सोच और क्रियान्विति का आधार एक संकीर्ण विचारविशेष ही रहा जो कहने भर को भारतीय
है लेकिन व्यवहार में ना भारतीय है और ना व्यावहारिक ही। बहस और चर्चा का यह अलग
मुद्दा हो सकता है, फिलहाल मोदीराज
के तीन वर्षों पर सरसरी निगाह डाल लेते हैं।
नरेन्द्र मोदी जिन-जिन वादों के साथ सत्ता में आए उनमें से किसी एक भी वादे पर
वे खरे उतरे हों, नहीं लगता। अब तो
इनके राज को भी तीन वर्ष हो लिए हैं, कांग्रेस राज की आड़ भी लेने लायक वे अब नहीं है। कांग्रेस नीत संप्रग का राज
नाकारा साबित हुआ तभी भाजपा को पूर्ण बहुमत के साथ राज मिला! इस तरह का बहु मत लोकसभा में किसी एक पार्टी को पिछले तीस
वर्षों में नहीं मिला है। भरोसा इससे ज्यादा तो जनता और क्या करती। जिन मुद्दों पर
कांग्रेस के शासन को कठघरे में खड़ा कर मोदी शासन में आए, अब उन पर एक नजर डाल लेते हैं—
भ्रष्टाचार ज्यों-का-त्यों जारी है बल्कि रिश्वत की दरों में आश्चर्यजनक ढंग
से वृद्धि हुई है। जो काम पहले बिना दिए लिए नहीं होते थे वे आज भी अधिक धन पर ही
होते हैं। 2012-13 में अन्ना हजारे
के बनाए ज्वार पर सवार हो सत्ता की ओर अग्रसर हुई भाजपा उस आन्दोलन की मुख्य मांग
लोकायुक्त नियुक्ति को ही भूल गए आज तीन वर्ष बाद भी लोकायुक्त की नियुक्ति बाट
जोह रही है। अलावा इसके कांग्रेस जिस आरटीआई और सीएजी की शिकार हुई उसका हश्र
देखने लायक हैं। बावजूद इसके अन्ना हजारे चुप है जिससे लगता है कि भाजपा ने अन्ना
का उपयोग मात्र 'टूल' की तरह ही किया और भ्रष्टाचार पकडऩे की उन सब
व्यवस्थाओं को निष्क्रिय कर भाजपा निश्ंिचतता से राज भोग रही है। वे इतमिनान में
इसलिए भी है कि कांग्रेस को काटने वाले सांप के दांत इन्होंने निस्तेज कर दिये।
कानून व्यवस्था के मामलों के आंकड़ें देखेंगे तो पाएंगे कि बलात्कार, रंगदारी, गुंडागर्दी आदि-आदि के मामलों में कोई कमी नहीं आई है।
बल्कि धर्म, उच्च जाति,
गाय और युवक-युवती की मित्रता को लेकर नई सोच
के नये तरीके के ऐसे गिरोह सक्रिय हो गए हैं जिन पर हाथ डालते पुलिस भी सकुचाती
है।
किसानों की समस्याएं ज्यों-की-त्यों हैं। कर्जदार किसानों की आत्महत्याओं के
आंकड़ों में कोई कमी नहीं आई। भू-अधिग्रहण के भाजपाई प्रावधानों पर आमजन और विपक्ष
का संगठित विरोध दर्ज नहीं होता तो किसानों के हालात और बदतर होते।
मोदीजी के इस राज में नक्सल समस्या और विकराल हुई है। इसे नक्सल या माओवादी
समस्या कहें भले ही, दरअसल यह समस्या
खड़ी ही आदिवासियों के नैसर्गिक हकों (जल, जंगल, जमीन) पर सरकार के सहयोग
से कोरपोरेट घरानों के अतिक्रमणों से हुई है। कांग्रेस या अन्य गठबंधन शासनों में
भी नीतियां कॉरपोरेटों की लूट को खुली छूट देने की रही। भाजपा तो विचार से भी
कॉरपोरेट की पक्षधर रही है। यह भी एक कारण है कि नक्सल या माओवादी आदिवासियों का
समर्थन पाने में इस राज में ज्यादा सफल हो रहे हैं। सभी तरह की सरकारें सनक में
कभी यह स्वीकार नहीं करेंगी कि जिन्हें वे माओवादी या नक्सली हिंसा कहती हैं वह
दरअसल आदिवासियों के नैसर्गिक हकों की लड़ाई है, हां लड़ाई का तरीका उन्होंने जो हिंसक अपना लिया उसे गलत कह
सकते हैं। उन्हें यही तरीका शायद बताया जा रहा हो। अहिंसक लड़ाई ज्यादा कारगर हो
सकती है, पता नहीं हम भारतीय अपनी
आजादी की सफल अहिंसक लड़ाई को इतना जल्दी क्यों विस्मृत कर गये। इन तीन वर्षों में
मोदी इस मोर्चे पर भी पूरी तरह विफल रहे हैं।
पड़ोसी देशों के मामले में भी मोदीजी के खाते में विशेष तो क्या कोई छोटी-मोटी
उपलब्धि भी नहीं गिनाई जा सकती। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को मोदी ने अपने शपथ
ग्रहण में बुलाया, फिर अचानक उनके
जन्मदिन पर लाहौर पहुंच गए। बावजूद इसके ना केवल सीमा पर तनाव बढ़ा है बल्कि
कश्मीर में घुसपैठ भी लगातार जारी है। इतना ही नहीं, डेढ़ पसली के पिछले प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के राज में जो
कभी नहीं हुआ वह हमारे इन छप्पन इंची वाले प्रधानमंत्री मोदीजी के शासन में हो
गया। आतंकवादी पठानकोट के वायु सैन्य हवाई अड्डे के भीतर तक पहुंच गये।
देश की सबसे संवेदनशील समस्या कश्मीर के हालात इस शासन में इतने खराब हो गये
जितने पिछले बीस वर्षों में कभी नहीं रहे। कश्मीरियों का जनजीवन जैसे तैसे भी पटरी
पर आने लगा था जो पिछले दो-तीन वर्षों में और भी नाउम्मीदी को हासिल हो गया है।
नये तरीके का जो असंतोष कश्मीर में शुरू हुआ है वह ज्यादा चिन्ताजनक है। अब तक जो
भी हिंसा होती थी वह या तो आतंकवादियों की तरफ से होती या पाकिस्तानी सुरक्षा बलों
की तरफ से या फिर प्रतिरक्षा या प्रतिहिंसा के तौर पर भारतीय पुलिस या सुरक्षा
बलों की ओर से। अब जो जन असंतोष पनप रहा है वह ज्यादा खतरनाक है। युवक और युवतियां
पत्थरों के साथ सड़कों पर ज्यादा उतरने लगे हैं। इस सरकार ने उन पर काबू पाने के वास्ते
जिस पैलेट गन का प्रयोग करना शुरू किया उसने भी आग में घी देने का काम किया है। यह
जवाबी कार्यवाही घोर अमानवीय भी है। कानून व्यवस्था को सम्हालने का यह तरीका हमारे
उस सामूहिक दावे को खारिज भी करता है कि शेष देशवासी कश्मीरियों को भी भारतीय
मानते हैं।
चीन को भी प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान की ही तरह उस सामान्य घरेलू पड़ोसी
की तरह साधना चाहा है, जिस तरह से कोई
नया पड़ोसी आता है और आस-पास के बाशिन्दों से मेल-मुलाकात का स्वांग रचता है।
मोदीजी ने चीनी राजप्रमुख को साबरमती के किनारे बुलाया और उन्हें झूले-झुलाए। इसी
तरह मोदी ने अपने शुरू के डेढ़ वर्ष दुनिया के कई देशों की यात्रा पर जाया किए।
जाया करना इसलिए कहा कि वे कहीं से विशेष कुछ हासिल नहीं कर पाए। झूला झुलाने के
बावजूद चीन ना केवल सुरक्षा परिषद में भारत के विरोध में अड़ा रहा बल्कि वह चीन जो
हमारे अपने अरुणाचल प्रदेश में रेल लाइन का विरोध करता और धमकाता है, वही चीन, पाक अधिकृत कश्मीर—जिसे हम अपना अभिन्न अंग मानते हैं, उसी पीओके में से चीन 'वन बेल्ट वन रोड'
योजना को पाकिस्तान को साथ लेकर शुरू कर रहा
है। ना मोदी से उसने सलाह की जरूरत समझी और ना ही मोदीजी की सरकार ने पाकिस्तान को
कोई विरोध दर्ज कराने की रस्म अदायगी निभाई। जो पार्टी अब तक नारा लगाती थी कि 'दूध मांगोगे खीर देंगे, कश्मीर मांगेगे तो चीर देंगे' उसी पार्टी के शासन में चीन उसी कश्मीर को चीरते हुए अरब
सागर तक इस योजना को अंजाम दे रहा है।
'बराक-बराक' संबोधन के साथ
अमेरिका में मित्रताई घुसपैठ की कोशिश मोदीजी ने बहुत की, लेकिन कहा जा रहा है कि कुल छह में से एक अमरीकी यात्रा ही
अधिकृत थी। और उस यात्रा के दौरान भी हवाई अड्डे पर मोदीजी की अगवानी हेतु कोई
सम्मान्य आधिकारिक नहीं पहुंचा। अब तो हो यह रहा है कि उसी अमेरिका में भारतीय और
भारतीय मूल के लोगों को हिकारत से देखा जाने लगा है, यहां तक कि कई भारतीयों को वहां जब-तब मारा भी जाने लगा है।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की ऐसी दयनीय स्थिति तब है जब इस देश में उन्हीं
प्रधानमंत्री का शासन है जिनका सीना छप्पन इंची माना जाता है। मोदीजी इन सब मसलों
पर चुप शायद इसलिए हो लिए हैं कि उन्हें यह समझ आने लग गया है कि अन्तरराष्ट्रीय
मसलों को संभालने के वास्ते व्यावहारिक कूटनीति की जरूरत होती है, छप्पन इंच के सीने की नहीं।
विदेशों में जमा कालाधन लाना और प्रत्येक भारतीय के हिस्से में
पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपये आने की बात को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने
ना केवल जुमला करार दे दिया बल्कि आम उम्मीदों पर यह स्थापित भी कर दिया है कि
कालेधन को लौटा लाना तो दूर जिन-जिन का जमा है उनका नाम उजागर करने की जरूरत भी
भाजपा शासक ठीक वैसे नहीं समझते हैं जिस तरह कांग्रेस नहीं समझती रही! कालेधन को
निकलवाने के नाम पर हजार-पांच सौ के नोट बन्द किए लेकिन आज तक यह नहीं बता पाए कि
नोटबन्दी से कालाधन कितना बरामद हुआ है। आंकड़ें या तो दिए ही नहीं जाते, दिए जाते हैं तो गुमराह करने वाले। जैसे हाल ही
में एक आंकड़ा आया कि नोटबन्दी के बाद लाखों नये आयकरदाता जुड़े हैं। ऐसे हवाई
आंकड़ों से क्या असल हासिल किया है, वह बताने का नहीं है।
इन तीन वर्षों में महंगाई लगातार बढ़ी है। स्रंप्रग के निर्मल भारत अभियान को
स्वच्छ भारत करके चलाया, नतीजा यह आया कि
स्वच्छ शहरों की जो रंेकिंग हुई उसमें लगभग सभी शहर अपनी पिछली रैकिंग से पिछड़े
दिखाई दे रहे हैं।
सेज को 'मेक इन इंडिया'
नाम दिया। नाम बदलकर स्टार्टअप योजना को लांच
किया, बावजूद इनके देश में
स्थापित रोजगार कम हो रहे हैं। कारखाने इसलिए बन्द हो रहे हैं कि चाइना से सस्ता
माल आयात हो रहा है। यहां तक कि जो स्थापित ब्राण्ड हैं उनमें से भी कई अपनी
स्थानीय इकाइयों को बन्द कर रहे हैं और चाइना से अपने ब्रांड बनवा रहे हैं। वीआईपी
लगेज इसका एक उदाहरण है। तीन करोड़ नये रोजगार सालाना देने का मोदी सरकार का वादा
था, वह आंकड़ा तीन लाख सालाना
को भी नहीं छू पा रहा है।
ऐसी सभी असफलताओं को ढकने को नए-नए शिगूफे छोड़े जाते हैं ताकि जनता बहली रहे।
आश्चर्य है कि जनता बहल भी रही है कि नोटबंदी से धनपति परेशान हैं, भ्रष्टाचार पर अंकुश लग गया है, एक साथ कई-कई रॉकेट छोड़े जा रहे हैं, पाकिस्तान को चिढ़ाने के लिए ऐसा उपग्रह छोड़ा
है जो पाकिस्तान के अलावा अन्य सभी सार्क देशों को सूचनाएं मुहैया करवायेगा। भारत
का अंतरिक्षीय ढांचा आज जो भी है पिछले सत्तर वर्षों की नीतियों और ऐसी परियोजनाओं
को राजनीति से पूरी तरह मुक्त रखने की वजह से है, ना कि केवल मोदीजी की तीन वर्षों की अपनाई नीतियां से।
इन शिगूफों से काम ना चले तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कार्ड बेधड़क चलाए
जाने लगे हैं। गायों और गो-पशुधन को वैतरणी की गाय बना दिया गया। इसमें इसे
बिल्कुल नजरअन्दाज किया जा रहा है कि देश के अधिकांश दलित जिन्हें हिन्दू माना
जाता है, सस्ता होने की वजह से
उनके खाने में बैलों, भैंसों, पाडों का मांस शामिल है। मुस्लिम समाज का बड़ा
तबका दूध का व्यापार करके परिवार पालता है। उन्हें परेशान करना, यहां तक कि प्रताडि़त और जब-तब मारा-पीटा भी
जाने लगा है। पाठकों को जानकारी होगी कि चौपायों के ऐसे मांस जिसे बीफ कहा जाता है,
भारत इसके बड़े निर्यातकों में से है और
अधिकांश निर्यातक भी गैर मुस्लिम ही नहीं हैं वरन् उच्च जाति के हिन्दू और जैन धर्मावलम्बी
हैं जिसे छुपाया जाता है।
जैसा कि भाजपा के वैचारिक स्रोत संघ की मंशा है देश उसी जातिय वर्ण व्यवस्था
की ओर लौटे जिसमें उच्च जातियों का समाज में वर्चस्व हो, ऐसी कोशिशें भी इस राज में मुंह उठाने लगी हैं। दलितों की
उच्च हिन्दू जाति वर्गियों से तनातनी होने लगी हैं। हालांकि भाजपा को लगता है कि
वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली को बिना बदले उच्च जाति वर्गों की सामाजिक सत्ता कायम
नहीं होगी, वैसी सत्ता हासिल करने के
लिए फिलहाल दलितों के वोटों की जरूरत है। इसलिए कम से कम दलित-हिन्दू संघर्ष
फिलहाल बचना चाहिए। लेकिन जैसी इनकी विचारधारा है, बिना रोक-टोक का शासन मिलने के बाद उसमें ऐसा होने की
गुंजाइश बढ़ जानी है और वैसा ही हो रहा है।
देश मेें भविष्य की परिस्थितियां ना लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए और ना ही
सामाजिक समरसता के लिए अनुकूल दीख रही हैं। लगता है कि आने वाला दौर 1971 के दौर के बाद वाले दौर से भी भयावह आने वाला
है, भारी बहुमत से जीतकर आई
इन्दिरा गांधी ने जब 1975 में देश पर
आपातकाल थोप दिया था। तब केवल लोकतांत्रिक मूल्य ताक पर थे, लेकिन अब तो लग रहा है कि साम्प्रदायिक-सामाजिक दोनों तरह
की समरसता ही ताक पर है। साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की चाट ऐसी है जिसे चटाने पर
अधिकांश सोच मानवीय तो दूर की बात, लोकतांत्रिक भी
नहीं रह पाती। दूसरी बात इन्दिरा गांधी के संस्कार चूंकि लोकतांत्रिक थे इसलिए
उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था में लौटाना पड़ा। अटलबिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री
बने तब तक हुए पचास वर्षों के अपने राजनैतिक जीवन में लोकतांत्रिक मूल्यों का
लिहाज करने और साम्प्रदायिक सामाजिक समरसता की जरूरत समझने लग गए थे, इसलिए उनके शासन में देश की तासीर बदलने की
कोशिशें नहीं देखी गई। यही वजह थी कि खांटी संघनिष्ठ उन्हें कुसंस्कारी कहने लगे थे।
आज के जो शासक हैं उनके संस्कार ना तो कभी लोकतांत्रिक रहे हैं और ना ही सर्वधर्म
समभाव और सामाजिक समरसता के। ये अपने को श्रेष्ठ मानते रहे हैं और चाहते रहे हैं
कि देश के अन्य नागरिक उनके द्वारा निर्धारित मानकों के हिसाब से चलते रहें।
लोकतंत्र का चौथा पाया मीडिया (अखबार या खबरिया चैनल) लगभग धर्मच्युत हो गया
है। आपातकाल के इर्द-गिर्द दीखने वाले अखबारों के तेवर नदारद हैं। यूं कहे तो
अतिशयोक्ति नहीं होगी कि खबरियां चैनलों की तरह अखबार भी मीडिया में मर्ज होकर ना
केवल शेर से बिल्ली हो लिये बल्कि कांग्रेसनीत शासन ने उनके जिन मसूड़ों को
प्रलोभनों से धीरे-धीरे सुन्न कर दिया था, मोदी के इस राज में लगता है, इसके दांतों को
ही निकाल लिया गया है। पूरा मीडिया इस शासन के आगे लगभग दण्डवत दिखाई देने लगा है।
यह दौर पिछली सदी के आठवें दशक के पूर्वाद्र्ध यानी आपातकाल पूर्व से भयावह
इसलिए भी लग रहा है क्योंकि तब पूरा
बौद्धिक समाज तानाशाही ताकतों के खिलाफ खड़ा था। लेकिन इस दौर में ऐसी खास
सक्रियता नजर नहीं आती। बौद्धिकों को जैसे सांप सूंघ गया है। वैसे ही तथाकथित भारतीय
बौद्धिक समाज का विरोध भी केवल कांग्रेस पार्टी का विरोध था, लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति पक्षधरता नहीं थी,
लगता है सामाजिक और साम्प्रदायिक समसरता को
यहां के बौद्धिक केवल युक्ति के तौर पर काम में लेते रहे हैं।
कांग्रेस अपनी करतूतों और बचकाने नेतृत्व के चलते समाप्त हो गई, वामपंथी अपनी गैर-देशज विचारधाराओं के चलते।
समाजवादियों की वर्तमान पीढिय़ां विचार को तिलांजलि दे वंशानुगत हो गई। देश में
लोकतंत्र और सामाजिक-साम्प्रदायिक समरसता फिलहाल चांके पर आती दिख रही है। आजादी
बाद के इन सत्तर वर्षों में अधिकांश जिस कांग्रेस पार्टी का शासन रहा उसने तो यह
कभी चाहा ही नहीं कि देश के मतदाता को इस तरह शिक्षित किया जाए कि उसे वोट असल में
क्यों देना होता है। अन्य राजनीतिक पार्टियों ने भी मौके-बेमौके वोटरों का उपयोग
भेड़ों की तरह किया है। अखबार जिसे अब मीडिया कहा जाने लगा है और बौद्धिक समाज ने
भी इस तरह की जरूरत नहीं समझी। कांग्रेस को शायद भान नहीं था कि वोटर की भेड़
संस्कृति का शिकार एक दिन वह खुद हो जायेगी। यही भान यदि मीडिया और बौद्धिक समाज
को भी नहीं है तो उनकी नियति भी अन्तत: अपनी सार्थकता खो देना ही है। यहां
रामधारीसिंह दिनकर की उन पंक्तियों का केवल स्मरण ही किया जा सकता है, जो 1974-75 के उस दौर में गूंजती थी-
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल
व्याध (शिकारी)
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।।
—दीपचन्द सांखला
18 मई, 2017
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