Tuesday, May 2, 2017

रवीन्द्र रंगमंच और डॉ. पृथ्वी / धन तेरस, दिवाली और जूते (25 अक्टूबर, 2011)

रवीन्द्र रंगमंच और डॉ. पृथ्वी
बीकानेर के रंगकर्मी या कहें संस्कृतिकर्मियों की लगभग दो दशकों की पुरजोर आकांक्षा के प्रतीक रवीन्द्र रंगमंच को वर्तमान जिला कलक्टर डॉ. पृथ्वी ने शायद समझा हो तभी इसका काम तेज गति से हो रहा है।शायदशब्द का प्रयोग इसलिए कि ऐसा भी हो सकता है कि वो यह सब इसलिए भी कर रहे हों कि उनकी पहचान एक काम करने-करवाने वाले अधिकारी की बने। ऐसा हो तो भी ठीक!
पिछले दिनों ही बीकानेर के सक्रिय रंगकर्मियों की ओर से एक बयान आया कि रंगमंच के प्लान में कुछ ऐसे परिवर्तन किये गये हैं जो रंगमंचीय दृष्टि से अनुकूल या ठीक नहीं हैं। जैसा कि उन्होंने कहा दर्शकदीर्घा की सीटें बढ़ाने के लिए स्टेज को छोटा किया जा रहा है। दूसरा यह कि ग्रीन रूम के स्पेस को इसलिए छोटा किया जा रहा है ताकि वहां रंगमंच का कार्यालय स्थापित हो सके।
रंगमंच के मूल प्लान में शायद 900 दर्शकों के बैठने की व्यवस्था थी। तब भी यह माना जा रहा था कि शहर की आबादी के हिसाब से भी और रंगमंच जैसी देखने की कला का विकास जिस तरह से हो रहा है उस दृष्टि से भी हॉल का खाली रहना बाधा पैदा करता है। दर्शक की आंख और मंच के बीच की ज्यादा दूरी भी रंगमंचीय दृष्टि से उचित नहीं है। रंगकर्मियों की यह बात भी कि ग्रीन रूम के स्त्री-पुरुष कलाकारों के लिए दो अलग-अलग हिस्से होने चाहिए, पूर्ण व्यावहारिक जान पड़ती है।
हो सकता है कि जिला कलक्टर उक्त बदलाव रंगमंच के अलावा इसके उपयोगों को ध्यान में रख कर करवा रहे हों। लेकिन केवल सैकण्डरी उपयोगों की सुविधा के नाम पर रंग जरूरतों को नजरअंदाज करना कहां तक उचित होगा?
धन तेरस, दिवाली और जूते
उत्तर-पश्चिमी भारत के हिंदुओं का दिवाली सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है। इस त्योहार की तैयारियां श्राद्ध पक्ष के आस-पास के समय से घर-दुकान के कोने-कोने की सफाई, मरम्मत, रंग-रोगन से शुरू हो जाती है। शारदीय नवरात्रा में श्रद्धा के साथ व्रत, पूजा-अर्चना के उपरांत दशहरा से दिवाली तक तो उत्सवी मिजाज की धूम-सी बनी रहती है।
वैसे तो बाजार प्रथम नवरात्रा के दिन से ही रोशन हो जाता है लेकिन धनतेरस से लक्ष्मीपूजन तक बाजार को उसके पूरे यौवन के साथ देखा जा सकता है।
धनतेरस को सोने-चांदी के आभूषणों-बर्तनों से लेकर्रऐल्यूमीनियम, स्टील, पीतल, कांसा, तांबा आदि सभी प्रकार के बर्तनों की बिक्री परवान पर होती है। पिछले 50 वर्षों से रूपचौदस और दिवाली के दो दिनों में धार्मिक और सजावटी तसवीरों, सजावटी सामान और पूजा सामग्री के साथ मिठाइयों और मेहमान नवाजी के अन्य आइटमों की बिक्री ही ज्यादा होती रही है।
पिछले आठ-दस वर्षों से रूपचौदस और दिवाली के इन दो दिनों में जूतों की बिक्री का एकदम से बढ़ना आश्चर्यजनक है और इसी के चलते इन दिनों अखबारों में भी जूतों के विज्ञापन अपनी जगह बनाने लगे हैं। बाजार-ग्राहकी की यह बेमौके की जुगलबंदी शोध का विषय हो सकती है।

वर्ष 1 अंक 57, मंगलवार, 25 अक्टूबर, 2011

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