Tuesday, September 1, 2015

पांच दिन का सप्ताह, सुविधा नहीं अटकन

यूं तो अधिकांश सरकारी दफ्तर आम लोगों के लिए माई-बाप की हेकड़ी में होते हैं। स्थानीय मुहावरे में इसे यूं भी कह सकते हैं कि खसम होते हैं। हालांकि सभी सरकारी कारकुनों को जिस धन से तनख्वाहें मिलती हैं वह धन अवाम द्वारा चुकाए विभिन्न करों का हिस्सा होता है। ऐसे में आजादी बाद इनका तौर-तरीका तो यह होना चाहिए था कि सरकारी कारकुन अवाम को सेवा देने के लिए हैं। चूंकि देश दो सौ वर्ष से ज्यादा गुलामी में रहा और इन सरकारी कारकुनों का आचार-व्यवहार तब अंगरेजों द्वारा मालिक का ही तय किया गया था, सो अवाम की हाथाजोड़ी की यह आदत देश आजाद होने के अरसे बाद भी गई नहीं है।
आजादी के इन अड़सठ वर्षों बाद भी सामान्य आदमी का कोई काम इन दफ्तरों से पड़ जाय तो उसे अपना मान-सम्मान दफ्तर की देहरी पर रख कर ही प्रवेश करना होता है। कुछ ले-देकर करवाने की गुंजाइश तो अपनी पीठ पर रखनी ही होती है। इस सबके बावजूद कर्मचारी या अधिकारी का अपने आसन पर समय से मिल जाना भी कोई कम बात नहीं होती। तय समय से देरी से आना, गर्मी हो तो आकर पसीना सुखाना, पसीना सुखाकर या सर्दी हो तो थोड़ी देर धूप सेंक कर जर्दा-खैनी का उनका अपना प्राथमिक काम होता ही है। लंच में जाएं तो उसके एक-डेढ़ घण्टा बाद ही लौटेंगे। शाम को तय समय से पहले निकलने का दस्तूर तो बादस्तूर है ही। सो ये सरकारी कारकुन बेचारे अवाम के काम के लिए दो-ढाई घण्टा मुश्किल से निकाल पाते हैं। ऊपर से अफसर बाहर का हुआ तो गुरुवार का गया हुआ मंगल को आयेगा। 'बाबो मर्यो गीगली जाई' कैबत की तर्ज पर सप्ताह में दफ्तर तीन दिन लगे और वह भी दो-ढाई घंटे प्रतिदिन तो भैया इस हिसाब से काम सप्ताह में हुआ एक दिन का, महीने में चार दिन और तनख्वाहें छठे वेतन आयोग की सिफारिशों की। इस सब लिखे से कुछ सरकारी कारकुन भवें तान सकते हैं तो कुछ वे जो अपनी ड्यूटी और अपने काम के पक्के होते हैं, उन्हें तकलीफ भी हो सकती है। लेकिन उन्हें क्षमायाचना सहित बता दें कि यह सब उनके लिए कहा ही नहीं जा रहा है। ऐसे आपवादिक उदाहरण वाले सरकारी कारकुनों को शामिल मान भी नहीं रहे हैं।
यह सब उगलने की मंशा आज इसलिए हुई कि सूबे की वसुंधरा सरकार ने 2008 में किए अपने फैसले को पलटने की कवायद शुरू की है। तब उनने पता नहीं क्या मान कर सरकारी कारकुनों के लिए बजाय छह दिन के सप्ताह के पांच दिन का सप्ताह करने का प्रावधान लागू किया था। समझ में तो तुरंत ही गया होगा कि गड़बड़ हो गई है। सभी जानते हैं कि इन सरकारी कारकुनों के कार्यालय समय को भले ही सुबह एक घंटा जल्दी करके शाम का घंटा बढ़ाया गया हो, लेकिन दफ्तर पहुंचने और दफ्तर से निकलने के अपने समय में कोई परिवर्तन उन्होंने नहीं किया। ऊपर से शनिवार को दफ्तर जाकर हाजिरी लगाने के झंझट से मुक्त हुए सो अलग। वैसे उस काल में भी कई कारकुन शनिवार की हाजिरी सामान्यतया सोमवार को ही लगाते थे।
सरकार को सप्ताह वापस छह दिन का इसलिए कर देना चाहिए कि काम तो इन दफ्तरों में जैसे होने वैसे ही होंगे, हां अवाम की उम्मीदों में प्रति सप्ताह एक दिन की बढ़ोतरी जरूर हो जायेगी। शनिवार के दो-ढाई घंटा काम होने की उनकी उम्मीदों को कुछ हरा करेंगी ही।
यह अलग बात है कि इस पर विचारने की जो बैठक सरकार ने बुलवाई है उसमें शामिल कर्मचारी-अधिकारियों के नेताओं को वह इस परिवर्तन के लिए तैयार कर भी पायेगी या नहीं। यदि कर पायी तो सरकार द्वारा अपने द्वारा लिए गये उस गलत निर्णय का यह प्रायश्चित्त ही होगा।
पांच दिन के सप्ताह की जरूरत वहां आंकी जाती है जहां काम करने की संस्कृति हो। अपने यहां जहां काम को अटकाने की संस्कृति है वहां के लिए तो शनिवार की छुट्टी एक और अटकन से ज्यादा साबित नहीं होती।

1 सितम्बर, 2015

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