Wednesday, November 9, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-27

 1919 में जालियांवाला बाग हत्याकांड के बाद शौकत उस्मानी ने बड़ा निर्णय कर लिया। उधर खिलाफत मूवमेंट के चलते अफगानिस्तान जाने का रास्ता खुल गया। अफगानिस्तान होते हुए रूस गये, हथियारों की व्यवस्था कर सशस्त्र क्रान्ति की योजना बनाई। 7 मई 1920 की रात मात्र 19-20 की उम्र में मोची के वेश में बीकानेर से चल पड़े। अफगानिस्तान होते हुए पैदल चल कर रूस पहुंचने का रास्ता दुर्गमतम है, लेकिन इन्होंने हार नहीं मानी। रास्ते में तुर्कमानियों की गिरफ्त में भी आये। मार खायी और यातनाएं सहीं।

जब ये सोवियत संघ पहुंचे तो वहां गृहयुद्ध की स्थितियां थीं। वहां सोवियत क्रान्ति के पक्षकारों के साथ होकर मोर्चे पर लग गये।

शौकत उस्मानी ने थोड़े ही समय में अपनी प्रतिभा के बल पर एमएन राय, एमपीटी आचार्य, अबनी मुखर्जी, मोहम्मद अली सहित कई अन्तरराष्ट्रीय विचारकों को प्रभावित किया। 1920 में ताशकन्द में गठित भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना में शौकत की महती भूमिका रही। 1921 में भारत लौटने का मन बना लिया और 22 जनवरी 1922 को पारसी वेश में बम्बई पहुंच गये। बीकानेर नहीं आए। वर्तमान उत्तरप्रदेश के कानपुर में अध्यापक की नौकरी करने लगे। और उसकी आड़ में क्रान्ति का साहित्य लोगों को पढ़वाने लगे।

बंगाल, पंजाब, राजस्थान तक दौरे किये। 9 मई, 1923 को गिरफ्तारी के लिए इनके स्कूल को पुलिस ने घेर लिया। 'पेशावर षड्यंत्र केस' में उस्मानी की यह पहली गिरफ्तारी थी। पेशावर ले जाकर बदबूदार कोठरी में बंद कर यातनाएं दी गयीं, लेकिन पुलिस इन से कुछ उगलवा सकी। इस मुकदमे में पुलिस को कुछ हासिल नहीं हुआ तो पुन: कानपुर पुलिस के हवाले कर दिया। कानपुर की पुलिस ने चर्चित 'कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र' का अभियुक्त करार देकर अन्य साथियों के साथ अन्दर कर दिया। गर्दन और पांव में बेडिय़ां डालकर यातनाएं दी जाने लगी, जिनसे छुटकारा लम्बी भूख-हड़ताल करने पर ही मिला। 26 अगस्त, 1927 को सजा काटकर रिहा हुए। जून, 1928 में पुन: सोवियत संघ के लिए रवाना हो गये। वहां आयोजित अन्तरराष्ट्रीय कम्यूनिस्ट अधिवेशन के अध्यक्ष मण्डल में चुने गये। मार्च 1929 में भारत लौटने पर 'मेरठ षड्यंत्र केस' में गिरफ्तार हो गये। इस मामले में सबसे लम्बी सजा काटते हुए जुलाई 1935 में रिहा हुए।

इस रिहाई के बाद शौकत उस्मानी ट्रेड यूनियन के काम में लग गये। उनकी अहमियत इसी से जाहिर होती है कि ट्रेड यूनियन आन्दोलन के सिलसिले में मजदूर नेता जब जवाहरलाल नेहरू से उनकी अजमेर यात्रा के दौरान मिले तो नेहरू ने उनसे कहा, 'तुम उस्मानी से क्यों नहीं कहते, वह कर देगा।' इसके बाद वे ट्रेड यूनियन के लगभग होल टाइमर हो गये। दूसरे विश्व युद्ध की आड़ लेकर ब्रिटिश शासन ने जब 'डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स' (DIR) लागू किया तो 14 जुलाई, 1940 में डीआईआर के तहत पहली गिरफ्तारी शौकत उस्मानी की ही हुई थी। साढ़े चार वर्ष की गिरफ्तारी काट कर जनवरी 1945 में रिहा किये गये।

आजादी बाद लन्दन जाकर ब्रिटिश म्यूजियम के पुस्तकालय में शोध कार्य में लग गये और 'न्यूट्रिटिव वैल्यूज ऑफ फ्रूट्स, वेजीटेबल, नट्स एण्ड फूड क्योर्स' जैसी पुस्तक की रचना की। इसके बाद 1946 में मिश्र देश के काहिरा पहुंच पत्रकारिता करने लगे। यह सिलसिला 1974 तक चला। इस दौरान उन्होंने लगभग सभी विधाओं में सृजन किया। जो लगभग डेढ़ दर्जन पुस्तकों में संकलित है।

1920 में बीकानेर से गये तब से शौकत उस्मानी अपने जीवनकाल में देश-दुनिया में तो सक्रिय रहे लेकिन बीकानेर वे कभी नहीं लौटे। ऐसे में बीकानेरियों ने बुलाने के लिए उनकी 75वीं जयंती पर 1976 में यहां आयोजन रखा, जिसमें वे बीकानेर आए तो सही लेकिन आयोजन के तुरंत बाद लौट गये। ऐसी अन्तरराष्ट्रीय क्रान्तिकारी शख्सीयत का उल्लेख पढऩे-लिखने वाले बीकानेरी गर्व के साथ आज भी करते हैं। शौकत उस्मानी का निधन 26 फरवरी, 1978 . को दिल्ली में हुआ।

इस विस्तृत आलेख शृंखला में जिन पुस्तकों, स्मारिकाओं का सहयोग मिला उनका उल्लेख करना जरूरी है। बीकानेर की स्थापना से लेकर रियासती इतिहास की सामग्री 'बीकानेर इतिहास एवं संस्कृति' शीर्षक से 1984 . में प्रकाशित उस स्मारिका से ली है, जिसका संपादन डॉ. घनश्याल लाल देवड़ा, शिवकुमार भनोत और प्रो. शिवरतन भूतड़ा ने किया। इस स्मारिका का प्रकाशन डूंगर महाविद्यालय के इतिहास विभाग की मेजबानी में 'राजस्थान इतिहास परिषद्' के चौदहवें अधिवेशन के अवसर पर आयोजित 'बीकानेर का इतिहास तथा संस्कृति' विषयक संगोष्ठी के दौरान किया गया। दूसरी पुस्तक है सेठ रामगोपाल मोहता का अभिनन्दन ग्रन्थ 'एक आदर्श समत्व योगी' सत्यदेव विद्यालंकार द्वारा संपादित और 1958 में प्रकाशित इस ग्रन्थ का विमोचन करने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बीकानेर आये थे। तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक रही स्वतंत्रता सेनानी दाऊदयाल आचार्य द्वारा लिखित और 1997 में प्रकाशित 'भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बीकानेर का योगदान' आचार्य चूंकि इस संग्राम में स्वयं एक सेनानी थे, ऐसे में अपनी महिमा मण्डन को दरकिनार कर सभी के योगदान का उल्लेख बिना किसी आग्रह-दुराग्रह के करना बिना निर्मल मन के संभव नहीं होता। दाऊदयाल आचार्य ने अपने लिखे इतिहास की पुष्टि के लिए अपनी स्मृति, स्वयं के पास सुरक्षित दस्तावेजों, बीकानेर से संबंधित 17 पुस्तकों-आलेखों के अलावा बीकानेर स्थित राजस्थान राज्य अभिलेखागार में सुरक्षित 50 से ज्यादा अभिलेखों के सन्दर्भ दिये हैं। ताकि उनके इस लिखे की प्रामाणिकता पर कोई अंगुली नहीं उठा सके। आचार्य ने यह सांगोपांग काम नहीं किया होता तो आजादी के आन्दोलन से संबंधित बीकानेर के असल इतिहास से हम आज वंचित होते और राजशाही के झूठे महिमा मंडन को काउंटर नहीं कर पाते। 

दीपचंद सांखला

9 नवम्बर, 2022

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