Thursday, November 3, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-26

 बीकानेर किस तरह बसा, उसे असल आजादी 7 अप्रेल, 1949 . को कैसे मिली। इसका उल्लेख 'बीकानेर : स्थापना से आजादी तक' शृंखला में किया गया। इससे इतर एक उल्लेख और जरूरी है, वह है शहीद अमरचन्द बांठिया का। अमरचन्द बांठिया 1793 में बीकानेर के जाये जन्मे थे। लेकिन उनके पूर्वजों का व्यापार वर्तमान मध्यप्रदेश के ग्वालियर रियासत और उसके आसपास था। इसलिए वे व्यापार के लिए वहीं चले गये। मातृभूमि का मोह उन्हें एकबारगी तो बीकानेर खींच लाया लेकिन उनकी मेधा की खुशबू ऐसी थी कि ग्वालियर शासक ने केवल वापस बुला लिया बल्कि उन्हें राजकोष का खजांची भी बना दिया।

भारत भू-भाग के केन्द्र का यह ग्वालियर अन्य क्षेत्रों की तरह 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से अछूता कैसे रहता। ग्वालियर और उसके आसपास की रियासतों ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर रखी थी। इसके बावजूद चूंकि अंग्रेज मुगलों की तरह संतोषी नहीं थे, इसलिए जहां भी मौका मिलता उस रियासत को सीधे अपने अधीन लेने से नहीं चूकते। झांसी के शासक गंगाधर राव की असमय मृत्यु हो गयी। संतान कोई थी नहीं। पत्नी लक्ष्मीबाई ने बालक दामोदर राव को गोद लिया। लेकिन अंग्रेज हुकूमत ने उसे वारिस मानने से इनकार कर दिया। वहीं पास की बिठूर रियासत के तात्या टोपे को अंग्रेजों ने कमजोर मान अपदस्थ करने का षड्यंत्र रचा। रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने मिलकर अंग्रेजों से लोहा लेने की ठान ली। पड़ोसी रियासत ग्वालियर के राजा जयाजीराव सिंधिया (राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के दादा) अंग्रेजों के खास पिट्ठू थे, वे लक्ष्मीबाई-तात्या टोपे के साथ नहीं आये। लेकिन जिवाजीराव की माता बैजाबाई ने लक्ष्मीबाई की व्यथा समझी और उनका साथ देने का आश्वासन दे दिया। 

ऐसे में ग्वालियर की सेना भी दो हिस्सों में बंट गई। तात्या टोपे के बाद बैजाबाई के साथ ने रानी लक्ष्मीबाई का हौसला दुगुना कर दिया। ब्रिटिशों का छावनी क्षेत्र भी ग्वालियर में ही था। रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने ग्वालियर पर पूरी तैयारी के साथ जबरदस्त आक्रमण कर दिया। ग्वालियर सेना का एक हिस्सा उनके साथ ही लिया। ऐसे में स्थितियां यह बनीं कि केवल अंग्रेजों की सेना को पीछे हटना पड़ा बल्कि ग्वालियर के शासक जयाजीराव को भाग कर आगरा में शरण लेनी पड़ी। आगरा अंग्रेजों के अधीन था और सेना का मुख्य केन्द्र भी। लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने ग्वालियर पर कब्जा कर झांसी के सेनापति को ग्वालियर का पेशवा घोषित कर दिया। नई बनी परिस्थितियों में ग्वालियर रियासत के खजांची अमरचन्द बांठिया की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गई। युद्ध के चलते ग्वालियर, बिठूर और झांसी की सेना को पगार और रसद के टोटे पड़ गये, ऐसे में अमरचन्द बांठिया ने कठिन निर्णय लेते हुए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में उतरी सेना के लिए खजाना खोल दिया। इसी कारण वे अंग्रेजों की आंख की किरकिरी हो गये।

झांसी में 4 जून, 1857 का अंग्रेजी हुकूमत के प्रति विद्रोह हुआ। इस विद्रोह की गंभीरता की कूत इसी से कर सकते हैं कि अंग्रेजों की सेना को इससे निपटने की तैयारी में पूरा वर्ष लग गया। पूरी तैयारी के साथ 18 जून 1858 को अंग्रेज सेना ग्वालियर पहुंची और उसे घेर लिया। इस घेराबन्दी में अंग्रेज सेना ने पीछे से वार कर रानी लक्ष्मीबाई की हत्या कर दी। अमरचन्द बांठिया पूरी तरह कथित विद्रोहियों के साथ थे ही। बांठिया ने हिम्मत करके रानी लक्ष्मीबाई के शव को उठवाया और सम्मान के साथ दाह संस्कार करवाया।

19 जून, 1858 को अंग्रेज सेना की मदद से ग्वालियर की गद्दी जयाजीराव ने पुन: संभाल ली। रानी लक्ष्मीबाई के दाह संस्कार की जानकारी अंग्रेज ब्रिगेडियर नैपियर को मिली तो अमरचन्द बांठिया को गिरफ्तार करवा राजद्रोही घोषित कर दिया। अपने कृत्य से अविचलित बांठिया को गलती का अहसास करवाने के लिए पहले बांठिया के पुत्र को तोप से उड़वायाइस पर भी वे अपनी पर अडिग रहे तो 22 जून, 1858 को उन्हें फांसी पर लटकवा दिया। कहते हैं बांठिया को पहले जिन दो पेड़ों पर लटकाया गया उनकी डालिया टूट गयीं, अन्त में ग्वालियर के सर्राफा बाजार स्थित बारहदरी भवन के पास वाले नीम के पेड़ पर लटका कर उनकी इहलीला समाप्त कर दी। तीन दिन उनके शव को वहीं लटका रहने दिया गया ताकि विद्रोह की मंशा रखने वालों में भय पैदा हो। उसी पेड़ के नीचे अमरचन्द बांठिया की लगी प्रतिमा पर प्रतिवर्ष 22 जून को उनका शहीद दिवस मनाया जाता है।

बीकानेर के इतिहास में अमरचन्द बांठिया का उल्लेख नहीं होता तो कृतघ्नता होती। लेकिन इससे अवगत करवा कर अग्रज सम श्री रतनचन्द जैन ने कृतघ्नता से बचा लिया। उन्होंने अमरचन्द बांठिया पर खुद लिखी पुस्तिका भिजवाई जिसके आधार पर देश की स्वतंत्रता में अमरचन्द बांठिया के शुरुआती बलिदान का उल्लेख कर सका।

अमरचन्द बांठिया की तरह ही आजादी के आन्दोलन में बीकानेर के ही जाये जन्मे शौकत उस्मानी के योगदान का उल्लेख करना भी जरूरी है। 

अपनी माली हालात और आजीविका के लिए राज्याश्रयी बीकानेर का मुस्लिम समुदाय आजादी के आन्दोलन में नजर भले ही नहीं आया हो, लेकिन बीकानेर के इसी समुदाय में 20 दिसम्बर 1901 . में जन्मे शौकत उस्मानी (मौलाबक्स उस्ता) अकेले उसकी कमी-पूर्ति करने वाले निकले। मैट्रिक की पढ़ाई के दौरान ही उस्मानी प्रतिबन्धित क्रान्तिकारी साहित्य पढऩे-पढ़ाने में लग गये। जिससे प्रेरित होकर शहर में पोस्टर लगा दिये। पुलिस के माध्यम से बात ऊपर तक पहुंची, शौकत उस्मानी के चाचा को बुलाकर सख्त हिदायतें दी गईं। चाचा ने पूरे परिवार पर राजा के गुस्से का वास्ता दिया। वामपंथी रुझान वाले शौकत एक बार सहमे जरूर लेकिन अपने इस कार्य को गुप्त रूप से जारी रखा। ऐसी अमूजणी कितने' दिन चलती। 

दीपचंद सांखला

3 नवम्बर, 2022

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