Thursday, October 13, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-23

 31 अगस्त को शासन ने संवैधानिक सुधारों की घोषणा की, लेकिन साथ ही दमन भी चालू रखा। अक्टूबर-नवम्बर आते-आते दमन का पुरजोर दौर फिर शुरू हो गया। नोहर में मालचन्द हिसारिया, भादरा में चौ. रामलाल, गंगानगर में रामचन्द्र वकील को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया। 2 अक्टूबर 1946 . को गांधी जयंती पर संगरिया में आयोज्य जुलूस पर रोक लगा दी। चौ. कुंभाराम, वकील रामचन्द जैन, चौ. हरदत्त सिंह, हंसराज आर्य, सरदार गुरुदयालसिंह समेत अनेक-नेताओं-कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां की गयीं।

मंत्री चौ. ख्यालीसिंह की अंदरूनी मेहनत का असर तब दिखा जब 29 अक्टूबर 1946 को प्रजा परिषद् की बैठक हुई। इस में शामिल जाट समुदाय के लोगों ने रघुवरदयाल गोईल का पुरजोर विरोध किया और गोईल को प्रजा परिषद् के अध्यक्ष पद से हटाने पर आमादा दिखे। सरकार की कोशिश आंशिक तौर पर कामयाब हुई और प्रजा परिषद् दो फाड़ हो गयी। इसीलिए इस बैठक में शामिल लोगों का यहां नामोल्लेख करना जरूरी हो गया। बैठक में रघुवरदयाल गोईल, गंगादास कौशिक, मूलचन्द पारीक, वैद्य मघाराम, भिक्षालाल बोहरा, स्वामी सच्चिदानन्द, बछराज सुराणा, अमीचन्द, हरीशचन्द, हरिसिंह, वैद्य जीवनदत्त, हरदत्त सिंह, रामकिशन (पीलीबंगा), बृजलाल वकील, जयचन्दलाल वकील, डॉ. लालसिंह, अध्यापक गौरीशंकर आचार्य, चौ. दीपचन्द, चौ. मनफूल, कन्हैयालाल, हंसराज, गौरीशंकर नोहरवाले, स्वामी कर्मानन्द, ज्ञानीराम, महावीर हिसारिया, जोगी मायानाथ, चंदगीराम, परमेश्वरी लाल (चूरू), अखाराम शर्मा (डूंगरगढ़), रामप्रताप मूंधड़ा (डूंगरगढ़), गोपीचन्द (भादरा), मोहरसिंह (चांद गोठी) और रामेश्वरसिंह (नाभा स्टेट) आदि शामिल थे।

आजादी के इतिहास में बीकानेर के नाम एक और लोमहर्षक कांड दर्ज है। रतनगढ़ तहसील में जाटों के 'कडीड' गोत्र द्वारा बसाया एक गांव है कांगड़। 1946 . में जिसके कुल 135 घरों में 90 घर जाटों के थे। गांव के जागीरदार गोपसिंह 'पोलो' के अच्छे खिलाड़ी थे, इसीलिए गंगासिंह के चित्त चढ़े हुए थे। वे लम्बे समय तक गंगासिंह के एडीसी रहे और उनके पुत्र जसवंतसिंह ने सादुलसिंह के राज में अपनी पहुंच के चलते जागीरदारी लगान केवल ढाई गुणा कर दिया बल्कि प्रति हल 'लाग' भी 10 रुपये कर दी। जागीरदार यहीं नहीं धापे और कई नये कर और लाद कर न्यूनतम 85 रुपये का बोझ प्रत्येक पर लाद दिया। कोढ़ में खाज यह कि उसी वर्ष अकाल भी पड़ गया। किसानों ने एक वर्ष का सब लगान माफ करने का अनुरोध किया पर गोपसिंह नहीं माने, ऐसे में किसानों का आक्रोश बढऩा ही था। गोपसिंह पूरे लवाजमें के साथ वसूली के लिए गांव पहुंच गये, 27 अक्टूबर 1946 को आदेश कर दिया कि 'रकम भरो या मार खाओ' किसानों ने एक दिन की मुहलत मांगी और रात को 35 लोग महाराजा से मिलने बीकानेर गये। जब गोपसिंह को इसका पता लगा तो गुस्से में अपने साथ आये लगभग 250 जनों को गांव लूटने का आदेश दे दिया, फिर क्या, जहां-जिसको-जो मिला ले आए। औरतों के साथ बदसलूकी भी की गई। घायल लोग अस्पताल पहुंचे तो इलाज नहीं किया गया। थाने गये तो रिपोर्ट नहीं लिखी गयी। गोपसिंह गढ़ फतेह करने जैसी गर्वोक्ति के साथ बीकानेर लौट आये। 

उधर बीकानेर आये उन 35 पीडि़तों की कहीं सुनवाई नहीं हो रही थी। इस पर महाराजा को लोकल तार दिया गया, जिसका कोई उत्तर नहीं मिला। सुबह महाराजा शिवबाड़ी क्षेत्र में घूमने आते थे, वे सभी पीडि़त वहां पहुंच गये। महाराजा के पांव पकड़े तो उन्हें लालगढ़ बुला लिया। लालगढ़ पहुंचे तो गृहमंत्री प्रतापसिंह ने यह कह कर दुत्कार दिया कि तुम तो प्रजा परिषद् के हो, उसी के पास जाओ। तब तक पीडि़तों को प्रजा परिषद् की सूझी भी नहीं थी, लेकिन प्रतापसिंह ने सूझा दी।

वे पहुंच गये प्रजा परिषद् के कार्यालय, उसी दिन केन्द्रीय कार्यालय में सक्रिय कार्यकर्ता सम्मेलन चल रहा था। गोईल ने उनकी पूरी व्यथा सुनी और जांच के लिए सात लोगों की कमेटी बना दी जो पूरे वाकिये की जांच कर रिपोर्ट देंगे। ये सात थे स्वामी सच्चिदानन्द, हंसराज आर्य (भादरा), गंगादत्त रंगा, मास्टर दीपचन्द (राजगढ़), मौजीराम (चांदगोटी), प्रो. केदार शर्मा और चौधरी रूपाराम (राजगढ़) ये सभी 31 अक्टूबर, 1946 को कांगड़ गये। स्थितियां भयंकर थीं। रास्ते में ही इन्हें डराया जाने लगा कि यह गोपसिंह का इलाका है, मत जाओ। फिर भी 1 नवम्बर को वे कांगड़ पहुंच गये। सच में गोपसिंह का वहां बड़ा आतंक था। कोई भी मुंह खोलने को तैयार नहीं। गांव में मुरदिनी छायी हुई थी। इसी दौरान गोपसिंह के लोगजिनके पास _ और तलवारें थींने आकर उक्त सातों को घेर लिया। गढ़ में ले जाकर ठाकर के सामने पेश किया। तलाशी हुई, जो भी पास था छीन लिया। अलग-अलग कोठरियों में सातों को बन्द कर बेरहमी से पीटा गया। दूसरे दिन भी यही सिलसिला जारी रहा। जितनी यातनाएं इन दो दिनों में इन्हें दी गयी वह लोमहर्षक थी। शराब में धुत गोपसिंह औरतें नचवा रहे थे। पहले दिन अधमरा करके सातों को गढ़ से निकाल दिया गया, दूसरे दिन उन्हें फिर वहीं लाया गया और वही वाकिया फिर दोहराया गया। तीसरे दिन जब छोड़ा तो डॉक्टरों ने इलाज करने से मना कर दिया और थानेदार ने रिपोर्ट लिखने से। 3 नवम्बर 1946 को तार द्वारा इस सबकी सूचना महाराजा सादुलसिंह को दी गई। मगर ढाक के वही तीन पात। 

अखबारों ने इस घटना को विस्तार से छापा। प्रधानमंत्री पणिकर प्रशासन को लिखते रहे कि मुझे असलियत से अवगत करवाया जाये। जब कोई गवाह बनने को तैयार नहीं हो तो प्रशासन रिपोर्ट कहां से दे। यह थी सादुलसिंह के राज में जुल्म की पराकाष्ठा। महाराजा सादुलसिंह हमेशा जागीरदारों के साथ रहे और जनता के साथ झूठी सहानुभूति दिखा कर बेवकूफ बनाते रहे। इतना ही नहीं, वे 1947 तक जागीरदारों के पक्ष में अपने नाम से मुनादियां करवाते रहे। इसकी बानगी में मार्च 1947 में महाराजा सादुलसिंह के एक आदेश का मजमून देख सकते हैं।

'श्रीजी साहब ठाकुर की सरकार यह आज्ञा देती है कि कई जागीरदारों के गांव आसामियान (यानी किसानगण)' अपने खेतों में जागीरदारों को दरख्त (पेड़) काटने से रोकते हैं, मना करते हैंयह ठीक नहीं है। अत: निर्देशित किया जाता है कि जागीरदार लोग अपनी-अपनी जागीरों के अन्दर अपने निजी काम के लिए किसानों के खेतों से जितने आवश्यक हों, उतने पेड़ काट सकते हैं।'

दीपचंद सांखला

13 अक्टूबर, 2022

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