Thursday, May 26, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-4

रामगोपाल मोहता ने सामाजिक विरोध के बावजूद खुद का दूसरा विवाह विधवा स्त्री से किया। दूसरी पत्नी सुन्दरदेवी की प्रेरणा और उन्हीं की देखरेख में वनिता आश्रम नाम से केवल बीकानेर में बल्कि कराची, कोलकाता, और जोधपुर में भी विधवा आश्रम स्थापित कर संचालन किया। बीकानेर में विधवाओं के वनिता आश्रम का जबरदस्त सामाजिक विरोध हुआ, मोहता टस से मस ना हुए। महाराजा गंगासिंह ने मोहता को बुलाकर आग्रह किया कि वनिता आश्रम को या तो बन्द कर दें या फिर सरकारी आदेश से बन्द करवाना होगा। मोहता को लग गया कि अब इस आश्रम को बीकानेर में चलाना मुश्किल होगा। इस बीच जोधपुर के छीतर पैलेस (वर्तमान उम्मेद भवन पैलेस) के निर्माण का कॉन्ट्रेक्ट मोहता की कम्पनी के पास थाजिसकी वजह से जोधपुर महाराजा से संबंध थे। जोधपुर रियासत की इजाजत के साथ बीकानेर वाले वनिता आश्रम को जोधपुर स्थानान्तरित कर दिया। 

रामगोपाल मोहता की मां का निधन लम्बी उम्र पाकर हुआ, शहर में तब तक कोई प्रसूति-गृह नहीं था—1937 में रियासत द्वारा स्थापित पीबीएम अस्पताल शहर से बहुत दूर था। मोहता ने आसानियों के चौक स्थित अपने पुराने निवास के एक हिस्से में जहां वनिता आश्रम चलता था वहीं 1940 में मां की स्मृति में 'श्रीमती जीताबाई मातृ सेवा सदन' नाम से प्रसूति-गृह अस्पताल का संचालन शुरू कर दिया। उसी निवास के दूसरे हिस्से में 15 अगस्त 1947 को श्री बीकानेर महिला मण्डल नाम से बच्चों के स्कूल की स्थापना कर बीकानेर को आजादी का तोहफा दिया। बाद में इसी नाम से जूनागढ़ के पीछे नये भवन का निर्माण कर स्कूल चलाया गया। 

हर पांच-सात वर्षों बाद अकाल से जूझने वाली इस बीकानेर रियासत में 1891-1896-1899 . के अकालों से महाराजा के समानांतर मोहता परिवार अकाल राहत कार्य चलाता रहा। आजादी बाद तक मोहता सराय क्षेत्र स्थित गोवर्धन सागर बगीची और बड़े हनुमान मन्दिर के सामने स्थित मोहता भवन से मोहता परिवार द्वारा संचालित होने वाले अकाल राहत कार्यों को देख चुकी पीढ़ियाँ आज भी मौजूद हैं। 

आजादी बाद बीकानेर में साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा आनन्द निकेतन सभागार, पुस्तकालय-वाचनालय रामगोपाल मोहता की ही देन है। इसके अलावा रामगोपाल मोहता की रुचि पठन-पाठन और लेखन में भी थी। दार्शनिक चिन्तक एम एन राय और डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के साथ उनकी उठ-बैठ थी और पत्राचार भी। रामगोपाल मोहता ने श्रीमद्भागवत गीता संबंधी छह पुस्तकों का लेखन किया जिनके कई-कई संस्करण प्रकाशित हो चुके। जोधपुर महाराजा मानसिंह की वाणियों का 'मानपद्य संग्रह एवं व्यावहारिक आत्मज्ञान' (तीन भाग) नाम से संकलन-संपादन सहित कई संग्रह-प्रकाशित है। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में आध्यात्मिक, आर्थिक, दलित विषयों पर निबंधों का प्रकाशन भी उल्लेखनीय है।

एक विधवा की आत्मकथा की शैली में रामगोपाल मोहता द्वारा लिखा गया 'अबलाओं का इन्साफ' नामक उपन्यास, जिसका 1927 . में प्रथम प्रकाशन स्वनामधन्य 'चांद कार्यालय, इलाहाबाद' से हुआ। इसके प्रकाशन पर देश के सवर्ण समाज में इतना उद्वेलन हुआ कि इसकी शिकायत महात्मा गांधी तक पहुंची और आग्रह किया गया कि इसे प्रतिबन्धित करवाया जाय। मोहता ने पाण्डुलिपी देते समय 'चांद कार्यालय' के संचालक को ऐसी आशंका से पहले ही अवगत करवा दिया था। बावजूद इसके वे प्रकाशित करने को तैयार हो गये। खुद मोहता के सगे-संबंधी उनसे नाराज हो गये जिनमें एक सेठ घनश्याम दास बिड़ला भी थे। ये पुस्तक मोहता द्वारा विधावाओं के लिए स्थापित 'वनिता आश्रमों' के अनुभवों की देन है। इसके लिए मोहता की संवाद सहयोगी बनी उनकी दूसरी पत्नी और विधवा रह चुकीं श्रीमती सुन्दरदेवी।

'एक आदर्श समत्व योगी' नाम से 1958 में प्रकाशित रामगोपाल मोहता के अभिनन्दन ग्रन्थ में उनके समस्त योगदान का विस्तार से उल्लेख है। इसका सम्पादन सत्यदेव विद्यालंकार ने किया और इसका विमोचन करने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू स्वयं बीकानेर आये। मोहता भवन के पीछे स्थित मैदान में आयोजित इस समारोह में केन्द्रीय मंत्री जगजीवनराम, इंदिरा गांधी, मुख्यमंत्री राजस्थान सहित अनेक मंत्री, सांसद और देश के नामी सम्पादक, पत्रकार शामिल हुए। 'एक आदर्श समत्व योगी' और 'अबलाओं का इन्साफ' दोनों पुस्तकों की पीडीएफ गुगल पर उपलब्ध हैं। 

इसके अलावा अन्य समर्थ समाजों ने इस शहर में कुछ ना कुछ योगदान किया है। जिसमें विशेष उल्लेखनीय है बसुदेव कन्हैयालाल डागा द्वारा 1908 . में स्थापित बीके स्कूल। डागा चौक स्थित इस स्कूल की प्रतिष्ठा भी एमएम स्कूल की तरह ही रही है। इसी तरह बिन्नाणी परिवार ने 1945 से कोटगेट के अन्दर जेल रोड पर भवन का निर्माण करवाकर अणचा बाई बिन्नाणी चिकित्सालय (मातृ सेवा एवं शिशु कल्याण केन्द्र) संचालन किया, जो प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के तौर पर आज भी कार्यरत है। पानी की कमी वाले इस शहर में अनेक तालाबों का निर्माण निजी क्षेत्रों के लोगों ने करवाया जो विशेष उल्लेखनीय है। वहीं अपने ऐश्वर्य प्रदर्शन के लिए रामपुरियाओं ने अनेक हवेलियां बनवाईं।

अब महाराजा गंगासिंह द्वारा करवाएं गये लोकहित के अन्य कामों का जिक्र भी कर लेते हैं। 1912 . में डूंगर कॉलेज (वर्तमान में जहां फोर्ट स्कूल है) की स्थापना; उसी के पास 1916 में जुबली नागरी भण्डार पुस्तकालय, वाचनालय, लेडी एल्गिन गल्र्स स्कूल, सादुल स्कूल, शिवाकामु पशु चिकित्सालय, पीबीएम अस्पताल, कचहरी परिसर, पब्लिक पार्क, जन्तुआलय, चिड़ियाघर, रोशनीघर के अलावा लक्ष्मीनारायण मन्दिर (लक्ष्मीनाथ मन्दिर) का जीर्णोद्धार, रतनबिहारी मन्दिर पार्क, देशनोक के चूहों वाली देवी के नाम से प्रसिद्ध करणीमाता मन्दिर का जीर्णोद्धार आदि उल्लेखनीय हैं।  क्रमशः

दीपचंद सांखला

26 मई, 2022

Thursday, May 19, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-3

 बीकानेर की चार शताब्दियों के इस संक्षिप्त उल्लेख के साथ 19वीं शताब्दी में लेते हैं। बीकानेर का वर्तमान स्वरूप मोटा-मोट इसी शताब्दी में बना है। अंग्रेजों की अधीनता के बाद उनका प्रतिनिधि यहां रहने लगा। केवल राजकाज बल्कि विकास और लोक कल्याणकारी कार्यों में उसका पूरा हस्तक्षेप होता, इतना ही नहीं इंग्लैण्ड से आयीं योजनाओं को स्थानीय शासक को निर्देश या दबाव बनाकर उन्हें अमली जामा पहनावाते। गंगानगर क्षेत्र की गंगनहर (1921-27 .) और बीकानेर के पीबीएम अस्पताल जैसे कार्य उल्लेखनीय हैं।

रेल सेवाओं की पहले चरण की शुरुआत 1891 . मेंजब गंगासिंह मात्र 11 वर्ष के थे, तभी हो गयी थी। बालिग होकर राज संभाला तब तक जोधपुर रियासत के चीलों से बीकानेर तक का काम पूरा हो चुका था। मतलब रेल सेवा का श्रेय ब्रिटिश सरकार और अंग्रेजों के रीजेंट को दिया जाना चाहिए। इसके बाद बीकानेर से बटिण्डा और बीकानेर से चूरू तक का काम हुआ। अन्तिम चरण में बीकानेर दिल्ली से तब जुड़ा जब 1941 . में सादुलपुर-रिवाड़ी खण्ड में रेल यातायात शुरू हो गया

अंग्रेजों की अधीनता के बाद देशी रियासतों में विकास की दो बड़ी अनुकूलताएं बनीपहली : मुगलों के समय रियासतों को केन्द्रीय सत्ता को राजस्व का बड़ा हिस्सा देना पड़ता थावहीं अंग्रेजों के समय पूरा राजस्व रियासतों के पास रहता था। लेकिन नीतिगत निर्णयों (पॉलिसी मैटर) का अधिकार अंग्रेजी राज ने अपने पास ले लिया। अकाल (तब हर 5-7 वर्षों में अकाल पड़ता था) हो या सामान्य काल, अर्जित राजस्व का बड़ा हिस्सा लोक कल्याणकारी कामों में लगना चाहिए। इसके लिए अंग्रेज शासन केवल योजनाएं बनाकर देते बल्कि उन्हें समयबद्ध और भ्रष्टाचार रहित पूर्ण करवाने के लिए गिनरानी भी करते। 1899 . (संवत् 1956) में छप्पने के काल में जब बीकानेर रियासत को अकाल राहत कार्य करवाने के निर्देश दिये गए तो रियासती अधिकारियों ने शहर परकोटे (फसील) में नये शहर को शामिल करने के लिए बढ़े हुए परकोटे का निर्माण करवाया। पुराना परकोटा नत्थूसर गेट के पास स्थित रघुनाथ सागर कुएं से घूम कर जगमणदास कुएं होते हुए वर्तमान कसाइयों की बारी तक था, पुराना जस्सूसर गेट इसी परकोटे के बीच था। नया परकोटा कसाईबारी से पाबूबारी की ओर घूमकर नये जस्सूसर गेट होते हुए ईदगाह बारी की ओर घूम कर नत्थूसर गेट वाले परकोटे से जा मिलता है।

किसी केन्द्रीय सत्ता के अधीन होने के बाद ऐसे परकोटों की जरूरत इसीलिए नहीं रहती कि बाहरी आक्रमणों से रियासतों की सुरक्षा की जिम्मेदारी केन्द्रीय सत्ता की होती थी। इसीलिए बजाय परकोटे का विस्तार करने के, अकाल राहत में आम जरूरत का कोई दूसरा काम करवाया जाता। अंग्रेजों के संभवत: यह बात समझ में गयी कि ऐसे कामों की योजनाओं के लिए रियासतों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। बाद में पड़े अकालों में इसीलिए गंगनहर जैसी योजना अंग्रेज-राज ने केवल बना कर दी बल्कि 1921 से 1927 . के बीच उसे समय पर पूरा भी करवाया। इसी तरह पीबीएम अस्पताल की पूरी योजना इंग्लैण्ड के वास्तुकारों से बनवाकर मंगवाई गयी जिसे 1934 से 1937 . के बीच पूरा करवाया गया।

20वीं शताब्दी के बीकानेर में हुए विकास का श्रेय महाराजा गंगासिंह को चाहे देते रहे हैं। उसमें यहां के सेठ-साहूकारों का योगदान कम नहीं है, जिनके व्यापार और उद्योग तब कराची (वर्तमान पाकिस्तान में), कोलकाता, मुम्बई आदि तक फैले थे। बीकानेर के सन्दर्भ में महाराजा गंगासिंह के कामों की तुलना एक सेठ रामगोपाल से ही कर के देख लें, जिनका बड़ा काम कराची और छिटपुट मुम्बई और कोलकाता तक फैला हुआ था। रामगोपाल मोहता के पिता गोवर्धनदास मोहता ने अपने दो भाइयों के साथ मिल कर बीकानेर जंक्शन के सामने विशाल मोहता धर्मशाला का निर्माण 1891 . में ही करवा दिया था, जिसके अन्दर कुआं, बावड़ी, मन्दिर भी बनाए गए। बीकानेर का प्रसिद्ध संसोलाव तलाब का निर्माण इन्हीं के पूर्वजों द्वारा तथा गोवर्धन सागर बगीची का निर्माण इनके परिवार द्वारा करवाया गया। रामगोपाल मोहता ने 1901 में कोटगेट के अन्दर गुण प्रकाशक सज्जनालय नाम से पुस्तकालय और वाचनालय स्थापित करवाया। मोहता परिवार ने ही 1899 . में प्रसिद्ध संगीताचार्य श्री विष्णु दिगम्बर को बीकानेर आमंत्रित कर पूरे एक माह तक आयोजन किये। जिसकी परिणति में 1903 . में ही बीकानेर को संगीत शिक्षण का संस्थान मिल गया। 

सेठ रामगोपाल मोहता के छोटे भाई मोहता मूलचन्द का निधन असमय हो गया था। उस समय की प्रथा-अनुसार राजा या किसी सेठ के परिजन के मरने पर तीन धड़ा जीमण (भोज) करना अनिवार्य सा था। (तीन धड़े में रियासत के :न्याती ब्राह्मण समाज, पुष्करणा समाज और राजपुरोहित समाज को भोजन करवाना होता था।) रामगोपाल मोहता ने भाई की मृत्यु पर मृत्युभोज करने से मना कर दिया, जिसका भारी विरोध हुआउनकी हवेली पर छिटपुट प्रदर्शन भी हुए। मोहता के प्रस्ताव पर तय यह हुआ कि जितना खर्च तीन धड़े के जीमण में होना था, उतने धन से शहर में लड़कों के लिए एक विद्यालय खोला जायेगा। 1909 . में स्थापित शहर का नामी एम एम स्कूल (मोहता मूलचन्द विद्यालय) उन्हीं की देन हैं। इसी तरह 1925-26 के इन दो वर्षों में रामगोपाल मोहता की एकमात्र संतान– पुत्री, पत्नी और दोहिते का निधन हुआ, जिनकी याद में शहर के दूसरे सिरे पर भैरवरत्न मातृ पाठशाला का निर्माण करवा कर संचालित किया। मोहता ने अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित मोहता धर्मशाला परिसर में 1917 . में आयुर्वेदिक औषधालय और रसायनशाला स्थापित कर संचालित की। मोहता रसायनशाला की दवाओं की प्रतिष्ठा देशभर में आज भी है। क्रमशः 

दीपचंद सांखला

19 मई, 2022

Wednesday, May 11, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-2

 आज जो भी और जैसा भी बीकानेर हमें मिला हैउसने पांच शताब्दियों से ज्यादा का सफर तय कर लिया है। यह शुरू में ऐसा नहीं था। आज जहां लक्ष्मीनाथजी का मन्दिर है उसके सामने के गणेश मन्दिर परिसर में ही छोटी-सी गढ़ी में राव बीका और उनकी तीन पीढ़ियों का ठिकाना रहा। वह तो बीकानेर के छठे शासक रायसिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर भरोसा जीत लिया तो आधे मारवाड़ सहित वर्तमान गुजरात तक की मनसबदारी मिल गई। उस मनसबदारी से हासिल आय से जूनागढ़ किले का निर्माण शुरू हुआ और शहर परकोटे का भी। 

मुगलों से आत्मीयता बढ़ाने के लिए पांचवें राव कल्याणमल ने अपने भाइयों की दो बेटियों को अकबर से ब्याहने को भेज दिया था। इस तरह अकबर के जनाना महल में अनेक रानियों-बेगमों में बीकानेर की दो बेटियां भी थीं। (स्रोत : दलपत-विलास पृ. 14) 

बड़े शासक की अधीनता स्वीकार करने का मतलब यही था कि आपकी सीमाएं सुरक्षित हैं बादशाह का कहा करें और निश्चिंत होकर अपने नगर और रियासत का विकास भी। इस समझ का निर्वहन 22वें और अन्तिम शासक सादुलसिंह तक बखूबी किया गया। बल्कि अंग्रेजों की अधीनता से परिवर्तन यह आया कि क्षेत्र के विकास के लिए अंग्रेज केवल दबाव बनाये रखते थे बल्कि खुद योजनाएं बनवा कर भी देते थे। यही बड़ी वजह थी कि बीकानेर पर 56 वर्ष के अपने सबसे लम्बे शासन में महाराजा गंगासिंह अंग्रेजों के कहे-कहे अनेक लोककल्याणकारी योजनाओं को अमलीजामा पहना सके। इसमें बड़ी अनुकूलता यह भी थी कि 20वीं सदी आते-आते अंग्रेजी राज ने पांव अच्छे से जमा लिए थे, ऐसे में स्थानीय रियासतों को अपने पांव जमाएं रखने की जरूरत खत्म हो गयी थी।

यद्यपि विश्व युद्धों में अंग्रेजों की तरफ से महाराजा गंगासिंह को शामिल होना पड़ा लेकिन अपने पूर्वजों की तरह बारहोमास लगातार युद्धरत रहने और युद्धों की तैयारी करते रहने जैसा नहीं था। इसीलिए आज का बीकानेर जो भी है, उसका बड़ा हिस्सा बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में विकसित है। इसमें अंग्रेजी राज, उनका स्थानीय रीजेंट और अंग्रेज रिजिडेंट्स की बड़ी भूमिका थी।

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि मुगलों के बाद देश जब एक छत्र के नीचे गया तो अन्तर्रियासती कानून व्यवस्था सुदृढ़ हुई, आवागमन सुरक्षित हुआ जिसके  चलते अन्तर्रियासती आवागमन बढ़ा, व्यापार बढ़ा और इसी के चलते व्यापार के लिए विस्थापन भी होने लगा। आवागमन के द्रुतगति के साधन नहीं होने के बावजूद वर्तमान राजस्थान के लोग खासकर वणिक समुदाय ने उत्तर मुगलकाल से ही सुदूर उत्तर-पूर्व और दक्षिण तक जाकर व्यापार करने का साहस करना शुरू कर दिया था और जहां पोलपट्टी मिली वहां स्थानीय लोगों का शोषण भी किया और ठगी भी। वणिक समुदाय अपने भरोसे के सहयोगियों को भी साथ ले जाते, जिनमें बड़ी संख्या ब्राह्मण समुदाय के लोगों की होती। उसी दौरान बीकानेर के वणिक समुदाय ने भी बहुतायत में पलायन किया खासकर चूरू-रतनगढ़ क्षेत्र से। 

जो भी बाहर गये, वो अतिरिक्त धन होने पर अपनी समृद्धि दिखाने के लिए अपने क्षेत्र की शिक्षा में लगाते। इसमें बाहर से, खासकर वर्तमान उत्तरप्रदेश क्षेत्र के विभिन्न विषयों के शिक्षकखासकर संस्कृत केबुलाते, उनकी सेवाओं से स्थानीयखासकर ब्राह्मण समुदाय के लोग लाभान्वित होते। 

16वीं शताब्दी के मध्य में बीकानेर में राजा कल्याणमल की रुचि ज्योतिष और संस्कृत में थी, इसी तरह उनके पुत्र राजा रायसिंह की भी। दोनों पिता पुत्र के नाम से सृजित ग्रंथों का उल्लेख भी मिलता है तो गोकुलप्रसाद त्रिपाठी जैसे संस्कृत विद्वानों की उपस्थिति भी। फिर अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में राव कल्याणमल, राजा रायसिंह और कर्णसिंह की संस्कृत की विरासत को राजा अनूपसिंह ने ना केवल अच्छे से सहेजा बल्कि उसे इतनी ऊंचाइयों तक ले गये कि उनके द्वारा बुलाये गये विद्वानों द्वारा सृजित तथा हासिल पाण्डुलिपियों के संग्रह से अनूप संस्कृत लाइब्रेरी आज भी अपनी महती उपस्थिति रखती है। यद्यपि वर्तमान में यह पुस्तकालय बन्द ही रहता है। किसी शोधार्थी को अपनी जरूरत पूरी करने के लिए कई तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। लेकिन इस पुस्तकालय की पुस्तकें हाल तक सुरक्षित हैं।

उसी मुगल काल में रियासती शासकों को मुगलों की सेवा में रहना होता था। कभी दिल्ली में तो कभी सुदूर दक्षिण तक में। अपनी रुचि अनुसार राजा विभिन्न कलाओं के कारीगरों को रियासतों में ले आते और अपने क्षेत्र को उन कलाओं से समृद्ध करते। बीकानेर के उस्ता ईरानी शैली को यहां लाए और स्थानीय साधनों के साथ उस्ता कला के तौर पर प्रसिद्ध किया। इसी तरह पत्थरों के कारीगरों के साथ मुगल स्थापत्य, ऊनी गलीचों तथा हाथी दांत आदि के कारीगर उस समय आकर जो बसे, यहीं के होकर रह गये। यहां आकर रच-बस जाने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। इसमें यहां पहले से रह रहे बाशिन्दों की सदाशयता भी उल्लेखनीय थी। यही वजह है कि पुरानी बसावट में हिन्दू-मुसलमानों के मोहल्ले आपस में गुंथे हुए हैं। सहिष्णुता और सामाजिक समरसता की मिसालें यहां के लिए इसीलिए दी जाती है। वर्तमान में राजनीतिक कारणों से दूषित हो रहे माहौल से वैसी सहिष्णुता और सामाजिक समरसता कब तक बची रहेगीकहना मुश्किल है। क्रमशः

दीपचंद सांखला

12 मई, 2022