Thursday, September 17, 2020

मनीषी डॉ. छगन मोहता का स्मरण

 बीकानेर में एक डॉक्टर हुए डॉ. छगन मोहता। उनकी औपचारिक शिक्षा तीसरी तक भी नहीं हो पाई। किसी तरह हासिल अंक-ज्ञान और अक्षर-ज्ञान के बूते उन्हें आजीविका में लगना पड़ा। किशोरावस्था में ही काम की जरूरत से कलकत्ता गये। एक होमियोपेथी फिजीशियन मुखर्जी के यहां काम करने लगे। डॉक्टर भले थे, बैठे-ठाले उन्हें अंग्रेजी और बांग्ला का ज्ञान करवाया। डॉक्टर के कहे अनुसार निवास से क्लिनिक आते-जाते अंग्रेजी-बांग्ला के साइन बोर्ड पढ़कर पहले रोमन और बांग्ला लिपि से और फिर दोनों भाषाओं के शब्दों से वाकिफ हुए। क्लिनिक में तब 'लीडर' नाम का अंग्रेजी अखबार तथा उसी समूह का 'भारत' हिन्दी में आया करता था। डॉक्टर के कहने पर 'भारत' में छपी खबरों को पहले हिन्दी में और फिर 'लीडर' में अंग्रेजी में पढ़ते और इस तरह अंग्रेजी भी समझने लगे। खाली बैठे छगन क्लिनिक में रखी होमियोपेथी पर अंग्रेजी और बांग्ला की किताबें पलटते और पढ़ते रहते। होमियोपेथी के उन बंगाली डॉक्टर ने अपनी अनुपस्थिति में छगन को रुक्के के आधार पर मरीजों को दवा देने की छूट दे दी। डॉ. मुखर्जी को लगने लगा कि छगन लक्षणों के आधार पर दवाई बताने भी लगा है। डॉ. मुखर्जी का छगन पर भरोसा बढऩे लगा, उन्हें कहीं जाना होता तो मरीज के लक्षण के आधार पर तय करके दवा देने की छूट भी छगन को दे दी। तीनेक वर्षों में डॉ. मुखर्जी को जब लगा कि छगन अपने बूते होमियोपेथी की प्रैक्टिस कर सकता है, एक दिन कह दिया कि छगन अपने 'देश' जाओ और वहां के लोगों की सेवा करो। जरूरी दवाइयों की एक पेटी के साथ युवा होते छगन बीकानेर लौट आये। 

लगभग सौ वर्ष पूर्व के इस वाकिये के समय बीकानेर में होमियोपेथी का प्रचलन शुरू नहीं हुआ था। घरेलू नुस्खों के उपरान्त जरूरत होती तो अधिकांश लोग आयुर्वेद के वैद्यों के पास जाते या फिर एलोपेथिक डाक्टरों के पास। इन परिस्थितियों में डॉ. छगन ने अपने घर के पास ही क्लिनिक खोली। दिन-भर बैठे रहते, कोई मरीज आजमाने गया तो दवा दे देते। लेकिन फीस और दवा का पैसा हर कोई नहीं देना चाहता। मरीज यह कहकर खिसक लेते कि इन मीठी बारीक गोलियों के पैसे किस बात के। हालांकि कुछेक लाइलाज रोग ऐसे भी ठीक किये जिन पर वैद्य, डॉक्टर भी असफल रहे। बड़े सेठों के यहां से एक रोगी के ठीक होने पर तब के तीन हजार रुपये तक भी मिले, लेकिन ऐसा रोज तो नहीं होता। खाली समय में डॉ. छगन होमियोपेथी की पुस्तकों के अलावा इधर-उधर से किताबों का जुगाड़ कर पढ़तेइस तरह हिन्दी, अंग्रेजी, बांग्ला और संस्कृत तक पढऩे-समझने लगे। मुफलिसी से हारकर आखिर सेठ-साहूकारों के यहां नौकरी करने लगे। लेकिन तब तक साख ऐसी बन चुकी थी कि डॉक्टर कहलाने लगे और अन्त तक ना केवल सब जगह से हारे मरीज बल्कि डॉक्टर तक उनके पास परामर्श के लिए आते रहे, ये सेवा वे आजीवन नि:शुल्क देते रहे।

डॉ. मोहता को लिखने की आदत चाहे ना बनी हो लेकिन पढऩे की उनकी आदत व्यसन बनती गयी। आत्मविश्वास बढ़ता गया। सार्वजनिक सभा-गोष्ठियों में हिस्सा लेने लगे। इस बीच पूर्व में स्थापित पुस्तकालय-वाचनालय 'गुण प्रकाशक सज्जनालय' के लिए सेठ रामगोपाल मोहता द्वारा कोटगेट पर जमीन दी गई, उस जमीन पर भवन बनाने के लिए सार्वजनिक बैठक हुई, डॉ. छगन मोहता भी उसमें पहुंचे। किसी मौजिज आदमी की आत्मश्लाघा की बात पर डॉ. छगन ने खरी-खरी कह दी। इसी बात पर वे सेठ रामगोपाल की नजरों में चढ़ गये। रामगोपाल मोहता ने दो-चार दिन में ही पता करवाकर डॉ. छगन को बुलाया और अपने यहां रख लिया।

सेठ रामगोपाल तब तक अपने लम्बे-चौड़े कारोबार को छोटे भाई के जिम्मे कर पूरी तरह समाज सेवा और स्वाध्याय में लग चुके थे। डॉ. छगन के लिए इससे अनुकूल और क्या हो सकता था। किताबें खूब खरीदी जातीं, दोनों पढ़ते या फिर डॉ. छगन पढ़कर उनका सार सेठ रामगोपाल को सुना देते। दोनों के बीच यह संबंध आजीवन बना रहा। 

डॉ. छगन मोहता का अध्ययन ना केवल धर्म-दर्शन में बल्कि समाज और राजनीति विज्ञान में भी सांगोपांग होता गया। भारतीय मनीषा में वेदों से लेकर पश्चिम के माक्र्स सहित अधिकांश वाग्ंमय से वे इस तरह वाकिफ थे कि गूढ़ से गूढ़ विषय को भी बहुत सरलता से समझा देते थे। डॉ. मोहता के सम्पर्क में कोई विद्वान-साहित्यकार एक बार जाता तो उनका संबंध लगभग स्थाई हो जाता। ऐसे विद्वान-साहित्यकारों में एम. एन. राय, . हि. वात्स्यायन 'अज्ञेय', जैनेन्द्र कुमार प्रमुख हैं। राय से लगातार मुलाकातें होतीं और पत्राचार भी। अज्ञेय ने अपने निबन्धों का संग्रहअपरोक्षना केवल 'डॉ. छगन मोहता' को समर्पित किया बल्कि पहली प्रति भेंट करने वे स्वयं बीकानेर आये। अज्ञेय अपने जन्मदिन पर डॉ. मोहता को फोन करते। बीकानेर की अपनी अन्तिम यात्रा में अज्ञेय डॉ. मोहता के निवास पर उनके साथ ही रुके। जैनेन्द्रजी जब भी बीकानेर आएं या डॉ. मोहता दिल्ली जाएं, उनके बीच में घण्टों विचार विमर्श होता। गीता-मर्मज्ञ स्वामी रामसुखदास महाराज का डॉ. छगन मोहता के साथ गीता पर लम्बा विमर्श चला तो आचार्य महाप्रज्ञ के साथ अध्यात्म दर्शन पर।

लोकायन, दिल्ली के रजनी कोठारी, विजय प्रताप अपने कुछ साथियों के साथ डॉ. मोहता के साथ विमर्श करने तीन दिन के लिए बीकानेर आए, सुबह से शाम तक चले उन विमर्शों के आधार पर लोकायन ने एक डाक्यूमेंट भी तैयार किया।

सार्वजनिक जीवन में भी डॉ. मोहता की रुचि कम नहीं थी, आजादी पूर्व रियासतकालीन बीकानेर की जनता द्वारा स्थापित पार्टी 'प्रजा परिषद' में ना केवल सक्रिय रहे बल्कि म्यूनिसिपल बोर्ड के लिए पार्षद का चुनाव लड़ा और जीते भी। पार्टी में मतभेद हुआ तो प्रजा परिषद छोड़ दी, नैतिकता के तकाजे पर उन्होंने पार्षद पद से भी इस्तीफा दे दिया। ऐसे उदाहरण अब होते तो दलबदल कानून की जरूरत ही नहीं होती।

बीकानेर में अनेक संस्थाओं की स्थापना और उनके संचालन में लम्बे समय तक बौद्धिक जीवन्तता के केन्द्रीय व्यक्तित्व रहे डॉ. छगन मोहता एनी बीसेंट की थियॉसाफिकल सोसायटी, एम. एन. राय के रिनेसां संस्थान की स्थानीय इकाइयों को जीवन्त रखा, बीकानेर प्रौढ़ शिक्षण समिति की स्थापना में मुख्य भूमिका निभाई और बीकानेर में वेदों पर होने वाली मासिक गोष्ठी के विमर्शों में सक्रिय रहते, वहीं बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीति सहित विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय स्थानीय लोग डॉ. मोहता के सान्निध्य का कोई अवसर नहीं छोडऩा चाहते।

डॉ. मोहता का लिखने का कभी अभ्यास चूंकि नहीं रहा तो उनका अधिकांश कहा आज आकाश में विलीन है। लेकिन उनके अन्तिम कुछ व्याख्यानों को लिपिबद्ध करवा कर नन्दकिशोर आचार्य के सम्पादन में 'संस्कृति और सनातनता' नाम की पुस्तक जनवरी 1986 में जब प्रकाश में आई तो देश के अनेक विद्वानों ने उस पर आश्चर्य इसलिए जताया कि ऐसी विभूति से इससे पूर्व वे परिचित क्यों नहीं हो पाए।

अस्वस्थता की वजह से 18 सितम्बर 1986 को 79 वर्ष की उम्र में डॉ. मोहता प्रयाण कर गये। हर तरह के जिज्ञासु के लिए उन जैसे सहज सुलभ विद्वान की कमी बीकानेर में आज भी महसूस की जाती है।

दीपचन्द सांखला

17 सितम्बर, 2020

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