Thursday, February 13, 2020

दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम के बहाने देश के हालात पर चर्चा

आधे-अधूरे राज्य या कहें वृहत्तर निगम दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम आ गये हैं। उन्हें दोहराने के कोई मानी इसलिए नहीं है कि जिन्हें भी देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कैसी भी रुचि है, वह इससे वाकिफ हैं। इन परिणामों से कुछ बहुत खुश हैं, कुछ बहुत भौचक, ऐसे वही लोग हैं जिनके बारे में देश की चिन्ता में साझीदार लेखक मित्र अशोक कुमार पांडेय ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि 'जनता पार्टी-कार्यकर्ता में और पार्टी-कार्यकर्ता भक्त में तबदील होते जा रहे हैं।' कुछ ऐसे भी हैं जो लोकतांत्रिक मूल्यों में भरोसा रखते हैं और जो मोदी-शाह के राज करने के तौर-तरीकों से सहमत नहीं हैं, ऐसे अधिकांश भले दिल्ली के चुनाव परिणामों से आशान्वित हो रहे हैं। उनकी यह आशा निराशा में बदलते देर नहीं लगेगी, यदि तुरन्त लोकसभा के चुनाव करवा लिये जाएं, सांप्रदायिक भीड़ में तबदील हुई बहुसंख्यक वर्ग की जनता शाह-मोदी को वर्तमान से भी ज्यादा बड़ी जीत दे देगी।
बीते एक-सवा साल में हुए चुनावों पर नजर डालें तो इसे अच्छे से समझ सकते हैं। इस दौरान राज्यों के विधानसभा के चुनाव जहां भी हुए, जनता ने वहां भाजपा को या तो खारिज कर दिया या फिर उत्साहवद्र्धक समर्थन नहीं दिया। इसे और ज्यादा अच्छे से समझने के लिए हमें इस तरह समझना होगा कि मोदी और शाह भाजपा का चुनाव चिह्न और झण्डा-बैनर चाहे उपयोग कर रहे हों लेकिन बहुसंख्यक समुदाय के सांप्रदायिक और भीरुओं के बड़े समूह ने उन्हें पार्टी से अलग मान लिया है। वे उनमें वह नायक देखने लगे हैं जो मुसलमान और पाकिस्तान जैसे प्रेत से मुक्ति दिला सकता है। इसके लिए आरएसएस-संघ ने वही भूमिका निभाई जो बालपन-किशोरवय में भूत-प्रेत की कथाएं सुनाने वाले अनायास निभा जाते हैं, इस भय को व्यापक तौर पर बिठाने में संघ को कई दशक लगे हैं। निजी जीवन में तो उम्र के साथ उन कथाओं से व्याप्त भय धीरे-धीरे हटता रहता है। लेकिन सार्वजनिक जीवन में उस भय को यथावत् रखने में अपने वाक्चातुर्य और अभिनय से मोदी और शाह सफल हैं। जनता भी अपने अधिकार और जरूरतों की पूर्ति के लिए जहां मतदान करते हुए राज्यों में अपने मत और मन को बदल लेती है वहीं, केन्द्र के चुनावों में मन पर हावी पाकिस्तानी-मुसलमानी प्रेत से भयभीत हो निर्णय करेगी। शाह और मोदी अपने आईटी सैल के द्वारा सोशल मीडिया खासकर वाट्सएप के माध्यम से इस प्रेत को बनाए रखने में सफल है। शाह-मोदी समर्थक जनता यह भी मान चुकी है कि पाकिस्तान और मुसलमानी भय से बचाये रखने की जिम्मेदारी शाह-मोदी की है, वे ही हमें बचाये रख सकते हैं और यह भी कि राज्य की सरकारों के यह बस की बात नहीं है। इसलिए राज्यों में वह स्थानीय वजहों, एंटी इंकम्बेसी और व्यक्तिगत पसंद-नापंसदगी से प्रभावित होकर मतदान करती है और केन्द्र में केवल 'प्रेत-भय' से निर्भय रहने के लिए। इस भय के सामने डूबती अर्थव्यवस्था, खत्म होते रोजगार और लगातार बिगड़ती कानून व्यवस्था गौण है। लोकसभा चुनावों में जिन्होंने मोदी-शाह को वोट किया है, उनसे बात करते ही पता चल जायेगा। वे इन मुद्दों को या तो जरूरी ही नहीं मानते या फिर इनके पक्ष में कोई वाट्सएपी तर्क पेश कर देंते हैं।  थोड़ा और अन्दर घुसेंगे तो मन में व्याप्त प्रेत-भय को उगलते भी देर नहीं लगायेंगे। राजनीतिक शब्दावली में इसे संघ की हिन्दुत्वी अवधारणा के बरअक्स नव-हिन्दुत्वी अवधारणा कह सकते हैं।
हम एक संविधान सम्मत लोकतांत्रिक व्यवस्था के नागरिक हैं, इसका भान हो तो पर मुश्किलों से निकलने के लिए विमर्श कर सकते हैं या फिर 1975-77 के आपातकाल में जिस तरह चुप होकर देखते रहे या तब की तरह ही शासकों में सद्बुद्धि आने का इंतजार करें। तब की शासक और अब के शासकों में संस्कारों का बड़ा अन्तर है। तब इंदिरा गांधी थीं, जो गांधी-नेहरू जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों को जीने वाले लोगों के सान्निध्य में पली-बढ़ी थीं। लेकिन अभी के शाह और मोदी जिस संघ से शिक्षित-दीक्षित हैं, वहां मूल्यों की बात तो दूर, लोकतंत्र की अवधारणा में ही उनका भरोसा नहीं है। ऐसे में संविधान को ताक पर रखे होने पर भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
रही विपक्षी दलों की और विपक्षी नेताओं की बात, आपातकाल के दौरान दलों को स्थगित और नेताओं को अन्दर कर दिया गया था, लेकिन इंदिरा गांधी ने जब चुनावों की घोषणा की तो उन्होंने सभी को छोड़ दिया। वर्तमान में परिस्थितियां एकदम भिन्न हैं। विपक्षीयों में समाजवादी अधिकांश भाजपा में पहुंच कर अपनी सोच को कुंद कर चुके हैं, रहे-सहे भ्रष्टाचार की भेंट चुके हैं। वामपंथियों पर संघ ने विदेशी-विधर्मी होने की छाप लगा दी है, कैडर बेस कहलाने वाली इस पार्टी के कैडर की पोल तो तब चौड़े आई, जब पता लगा कि ट्रेड यूनियनों के माध्यम से जुड़े कर्मचारी विचार से नहीं, केवल हित साधने को जुड़े थे। कुछ तो दो-तीन दशकों की सरकारों की श्रम विरोधी नीतियों ने और कुछ अन्य विचारों की या केवल इन्हें काउन्टर करने के मकसद से बनी ट्रेड यूनियनों ने भारत में वामपंथ को बेअसर कर दिया। 
सबसे बड़े रहे दल कांग्रेस ने केन्द्र में भी और अधिकांश राज्यों में भी अधिकांश समय तक शासन किया है। इसलिए वर्तमान परिस्थितियों और लोकतंत्र के सामने आयी चुनौतियों की बड़ी जिम्मेदारी से उसे बरी नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो कांग्रेस की यह थी कि वह ऐसी व्यवस्था करती कि देश की जनता एक संवैधानिक लोकतंत्र के नागरिक के तौर व्यवहार करती और प्रतिक्रिया देती। दूसरी उसके शासन में भ्रष्टाचार जिस तरह से विकराल होता गया और खुद कांग्रेस के नेताओं की उसमें लिप्तता बढ़ती गई, कांग्रेस ने उसे नजरअन्दाज किया। परिवार आश्रित रही इस पार्टी में विवेकवान कम और जी-हुजूरिये नेताओं की भरमार हो गयी। सोनिया गांधी और वर्तमान शीर्षस्थ नेताओं को राजीव गांधी की असमय मृत्यु की वजह से जबरदस्ती नेतृत्व स्वीकारना पड़ा। अगली पीढ़ी के राहुल-प्रियंका को भी विरासत संभालने की मजबूरी राजनीति में चाहे ले आयी, लेकिन जब वे बड़े हो रहे थे तो विरासत में उन्हें देश और राजनीति की समझ देने वाला कोई नहीं था। अपने बूते समझने-बूझने की प्रक्रिया शुरू की तो अंग्रेजी में अभ्यस्त इन दोनों को अपनी बात भारत के बड़े हिन्दी-भाषी क्षेत्र में संप्रेषित करना मुश्किल हो गया। खैर इन सब से कांग्रेस कैसे पार पायेगी। इसकी वह जाने। 
यूं तो किसी भी शासन प्रणाली को लोकतांत्रिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में आदर्शतम छोड़ आदर्श भी नहीं कहा जा सकता लेकिन हमारे देश ने जो बहुदलीय संसदीय शासन प्रणाली अपनायी, वही हमारे जैसे भौगोलिक, सांस्कृतिक व विभिन्न धार्मिक और भाषाओं की विभिन्नता वाले देश के लिए सर्वाधिक अनुकूल है। इस में अनेक दलों की भूमिका उसे और अधिक व्यापक बनाती है।
वर्तमान शासकों ने न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका जैसे लोकतंत्र के तीन संवैधानिक स्तंभों का जो हश्र किया है वह ज्यादा चिन्ताजनक है। विधायिका पर काबिज हो कार्यपालिका को मोदी और शाह ने ब्यूरोक्रेटस के माध्यम से अपने तक ही सीमित कर लिया है। मंत्रिमंडल की स्थिति सिर्फ हाथ उठाकर या हस्ताक्षर कर सहमति देने भर की ही रह गयी है। शासन और कानून व्यवस्था को सुचारु रखने के लिए बनी सीबीआई, ईडी, आइटी जैसी एजेंन्सियों का दुरुपयोग कर जब न्यायपालिका तक को दबाव में ले आया गया हो, ऐसे में अन्य सरकारी एजेंसियों और विपक्षी दलों के भ्रष्ट नेताओं की बिसात ही क्या। न्यायपालिका जिस तरह से प्रकरणों को निपटाने में देरी कर रही है या जिस तरह से फैसले दे रही हैं, उससे इसे और अच्छे से समझा जा सकता है। अपने कर्तव्यों के आलोक में लोकतंत्र का चौथा पाया कहलाने वाले मीडिया की स्थिति तो और बुरी है। वह या तो बिक चुका है या स्वार्थ के वशीभूत हो कर्तव्यच्युत हो चुका है या फिर किये हुए खोटों से अपने को बचाने में लगा है।
क्षेत्रीय दल और क्षत्रप अपने-अपने प्रदेशों में यदि सत्ता में है तो अपनी सत्ता को केन्द्र के कोप से बचाने में लगे हैं। जो भ्रष्ट रहे हैं, वे सीबीआई, ईडी, आईटी के भय से चुप हैं। ऐसी निराशाजनक स्थितियों से निकलने के लिये विवेकवान लोग या तो मोदी-शाह से सद्बुद्धि की असंभव सी उम्म्मीद कर सकते हैं या फिर किसी बड़ी चामत्कारिक घटना के घटित होने की। लेकिन निराश होकर बैठना तो गैर जिम्मेदार नागरिक होना है, जिसकी किसी भी विवेकशील मनुष्य से उम्मीद नहीं की जा सकती।
अन्त में यह कि जो आम आदमी पार्टी की सफलता और उसमें उम्मीद देख रहे हैं, वह इतना ही समझ लें कि अरविन्द केजरीवाल दिल्ली की 'सुपर मेयर' जैसी ही जिम्मेदारी ठीक ठाक निभा सकते हैं, वह प्रधानमंत्री तो क्या पूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री की योग्यता भी नहीं रखते, वे ना अपनी कार्यप्रणाली से और ना ही मन से लोकतांत्रिक हैं। इतनी विविधताओं वाले देश की जरूरतों की समझ तो उन में हरगिज नहीं है।
बहुदलीय संसदीय प्रणाली में ही गठबंधन सरकारों की गुंजाइश होती है, ऐसी सरकारों में जन विरोधी या अलोकतांत्रिक निर्णयों की गुंजाइश न्यूनतम होती हैं, ऐसा हमने अपने यहां की गठबंधन सरकारों से अनुभव किया है। भारी बहुमत से आने वाली सरकारों में विचलन की आशंका ज्यादा होती है। 1971 में इन्दिरा गांधी को और 2019 में मोदी-शाह को मिले पूर्ण बहुमत के उदाहरण हमारे सामने हैं। इसीलिए केजरीवाल को 2015 और हाल ही में 2020 में मिले भारी बहुमत को लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं मानना चाहिएमध्यमार्गी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और उदार विचारधारा वाले मतदाताओं में वैचारिक भिन्नता का होना और सदनों में मंथन के लिए उनका प्रतिध्वनित होना भी जरूरी है।
—दीपचन्द सांखला
13 फरवरी, 2020

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