Thursday, July 4, 2019

चूक गहलोत से ही नहीं, पायलेट से भी हुई है

लोकसभा चुनावों के बाद देश के मुख्य राजनीतिक दलों में से एक कांग्रेस उबर नहीं पा रही है। 2014 के परिणामों से कुछ सुधार के बावजूद कांग्रेस का नेतृत्व इस बार ज्यादा विचलित नजर आ रहा है। 2014 में देश पर 10 वर्ष शासन कर चुकी कांग्रेस की हार तो संभावित थी लेकिन जिस हश्र को तब हासिल हुई, वैसी उम्मीद उस समय भी नहीं थी। इसी तरह इस बार भी ऐसी हार की उम्मीद नहीं थी लेकिन जिस तरह दिसम्बर, 2018 में कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों से उम्मीद जगी थी, उस सब पर पानी फिर जाना पार्टी को उबार नहीं पा रहा।
राहुल गांधी और विभिन्न राज्यों के कांग्रेसी क्षत्रप पता नहीं किस मुगालते में रहे कि मोदी-शाह की रणनीति को भांप तक नहीं पाए। जब कोई प्रतिस्पर्धी की रणनीति से ही अनभिज्ञ रहे तो विरोधी का मुकाबला भला कैसे करेगा। अमित शाह का चुनाव अभियान जितना व्यवस्थित था उतना ही धूर्तता और चालाकियों से भरा भी। ऐसे विरोधियों से मुकाबला आरामतलबी में या बिना मुस्तैदी के नहीं किया जा सकता। नतीजा, सब के सामने है, देश की आजादी के आन्दोलन को नेतृत्व देने वाली और देश व प्रदेशों में सर्वाधिक समय तक शासन करने वाली पार्टी निढाल पड़ी है।
मोदी-शाह ने जिस तरह से हिन्दुत्वी साम्प्रदायिकता और भ्रामक राष्ट्रवाद का सहारा लिया और जनता को बरगलाया उसके चलते काठ की इस हांडी को पूरी तरह जलाना तो नामुमकिन था। लेकिन पार्टी नेतृत्व के पास अच्छे सलाहकार के तौर पर रणनीतिकार होते, सूबाई क्षत्रप अपनी अनुकूलताओं से ऊपर उठकर पार्टी की अनुकूलता देखते और अमित शाह की तरह एक-एक सीट को जीतने के लिए उम्मीदवार के चयन से लेकर हर स्तर पर सूक्षतम प्रयास करते तो कांग्रेस 100 से अधिक अपने उम्मीदवारों को जिता सकती थी। इस तरह की कवायद हुई नहीं।
राजस्थान के सन्दर्भ से बात करें तो प्रदेश कांग्रेस के पास सबसे कुशल रणनीतिकार अशोक गहलोत जैसे नेता हैं। संगठन क्षमता के मामले में इन जैसा कोई नेता राष्ट्रीय स्तर पर नहीं है। 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों से पूर्व गहलोत को वहां का प्रभारी बनाया गया। जब उन्हें यह जिम्मेदारी दी तब वहां कांग्रेस लगभग समाप्तप्राय थी, कोई उम्मीद नहीं थी। गहलोत ने लगभग डेढ़ वर्ष मेहनत करके तहसील-गांव स्तर तक पार्टी को ना केवल फिर से खड़ा किया बल्कि गुजरात के चुनाव में कांग्रेस को मोदी-शाह वाली भाजपा के बराबर ला खड़ा किया। गहलोत की इसी क्षमता से प्रभावित होकर राहुल गांधी ने गहलोत को राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) की महती जिम्मेदारी दी।
मेरा मानना है कि गहलोत विगत आम चुनाव तक उसी जिम्मेदारी को निभाते होते तो कांग्रेस वर्तमान हश्र को हासिल नहीं होती। गांधी में आस्था रखने वाले गहलोत को इसका भान अच्छे से होगा कि मोदी-शाह के चुनौतीविहीन राज में गांधीवादी मूल्यों का हश्र क्या होने वाला है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और उसमें संजीदगी वाले नेता अशोक गहलोत से उम्मीदें करना और यह उलाहना देना भी गलत नहीं कि गहलोत केन्द्र की राजनीति में ही रहते तो आज नाउम्मीदगी की सूरत इतनी डरावनी नहीं होती।
31 मई, 2018 के अपने आलेख में मैंने इस धारणा को विस्तार से समझाने की कोशिश की। लेकिन नहीं पता क्यों गहलोत राजस्थान की क्षत्रपई छोड़ नहीं पाये। गहलोत जैसे-तैसे मुख्यमंत्री बन तो गये लेकिन जनता में इसका सकारात्मक प्रभाव नहीं गया। फिर लोकसभा चुनावों में टिकटों की बंदरबांट में जिस तरह की खींचातानी हुई उसने भी कोढ़ में खाज का काम किया। गहलोत जो राजस्थान की जनता को सर्वाधिक प्रभावित कर सकते थेजोधपुर की सीट पर इसलिए सिमट कर रह गये क्योंकि वहां से उनके पुत्र वैभव चुनाव लड़ रहे थे। वैभव का चुनावी राजनीतिक में प्रवेश पैराशूटी ही था। वैभव को जहां कहीं से भी चुनाव लड़ना था तो कम से कम पिछले विधानसभा चुनावों में वहां की सभी विधानसभा सीटों पर उन्हें धूनी रमानी थीउस क्षेत्र के जमीनी नेता के तौर पर अपने को स्थापित करना था। अलावा इसके बजाय जयपुर के उन्हें अपना परिवार जोधपुर शिफ्ट कर कम से कम इन चुनावों तक तो ना केवल वहीं रहना था बल्कि राजकुमार की सी छवि से बाहर आकर हर कांग्रेसी झुकाव वाले मतदाता से व्यक्तिगत रिश्ता बनाने की कोशिश करनी थी।
जब कांग्रेस सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी तब खुद अशोक गहलोत ने 1977 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अपने को यूं ही झोंका, तभी 1980 के चुनावों में अप्रभावी जाति से होते हुए भी जीते। 1977 में अपनी हार के डर से अशोक गहलोत चुनाव नहीं लड़ते और लगातार सक्रिय नहीं रहते तो अशोक गहलोत को वर्तमान हैसियत हासिल नहीं होती। वैभव अपने पिता के जननेता बनने की प्रक्रिया का ही अनुसरण कर लेते तो हो सकता है कांग्रेस के इस घोर विपरीत समय में खुद की सीट निकालने में कामयाब होते।
खैर! राजस्थानी कहावत है 'गई बात ने घोड़ा ई कोनी नावड़े' ऐसा अवसर वैभव को फिर से हासिल शायद ही हो।
इसे छोड़ें, लेकिन अशोक गहलोत की प्रतिष्ठा को जो आघात लगा है उसकी भरपाई मुश्किल है। हां, लोकसभा चुनावों में पार्टी की शर्मनाक हार के बाद वे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने को तत्पर हो जाते तो मुख्यमंत्री रहते या नहीं, कद उनका बढ़ता ही। वहां चूक गये तो कम से कम पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने इस्तीफा दिया तब दे देते। परमार्थ के सन्दर्भ में एक कहावत लोक में प्रचलित है 'चूक्या चौरासी'। ऐसी चूक केवल गहलोत से ही नहीं हुई, प्रदेश में पार्टी में उनके मुख्य प्रतिस्पर्धी सचिन पायलट से भी हुई है। उन्हें प्रदेश की सारी सीटें हारने की जिम्मेदारी लेकर ना केवल प्रदेश अध्यक्ष पद से बल्कि उप मुख्यमंत्री के पद से भी इस्तीफा दे देना चाहिए था। यहां चूक हुई तो राहुल के पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने पर तो वे भी ऐसा कुछ कर सकते थे। यदि ऐसा करते तो ना केवल पार्टी में उनका कद बढ़ता बल्कि अपने मुख्य प्रतिस्पर्धी अशोक गहलोत से कुछ इंच ही, सही अपना कद भी ऊंचा कर लेते।
—दीपचन्द सांखला
04 जुलाई, 2019

No comments: