Thursday, May 24, 2018

इसी खंडर में कहीं, कुछ दीये हैं टूटे हुए इन्हीं से काम चलाओ, बड़ी उदास है रात


फिराक गोरखपुरी का यह शे'र पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने पिछली सदी के आखिरी दशक के मध्य में जयपुर प्रेस क्लब द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में तब कहा जब नेताओं से निराशा का माहौल था। समारोह में राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैंरोसिंह शेखावत, उपमुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा और नेहरू-गांधी परिवार से मंच पर मेनका गांधी भी थी। कवि-चिंतक नन्दकिशोर आचार्य ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन की शुरुआत चन्द्रशेखर के शे'र के जवाब में फिराक जलालपुरी के इस शेर से की-'तू इधर-उधर की न बात कर, ये बता कि काफिला क्यूं लुटा। मुझे रहजनों से गिला नहीं, तिरी रहबरी का सवाल है।' यह शेर कहते हुए आचार्यजी चन्द्रशेखर के मुखातिब थे, सुनते हैं तब चन्द्रशेखर एकबारगी-सहम ही गये।
बिना कोई खास सन्दर्भ के, पता नहीं क्यों उक्त घटना का स्मरण कर्नाटक चुनाव के नतीजों के बाद जेह्न में आया, शायद चन्द्रशेखर के कहे शे'र के माध्यम से।
देश की वर्तमान परिस्थितियों का विश्लेषण तटस्थ और निस्स्वार्थ भाव से लोकतांत्रिक मूल्यों के आलोक में करें तो लगता है देश सुकून भरे दौर से नहीं गुजर रहा है। इन सन्दर्भों में नेहरू के काल का जिक्र करने की कोई जरूरत नहीं लगती। इन्दिरा गांधी और उनके बाद के कांग्रेसी शासकों की कार्यशैली के सन्दर्भ से ही बात करें तो आपातकाल के अलावा कोई बड़ा आरोप कांग्रेसी-परम्पराओं में ऐसा नजर नहीं आता जिसकी तुलना से इन चार वर्षों के मोदी शासन को बेहतर बताया जा सके। नरसिंहराव-मनमोहनसिंह द्वारा किए आर्थिक नीतियों के बदलावों को सही नहीं मानते हुए भी फिलहाल उन पर बात करने से विषयांतर होगा। वैसे वर्तमान प्रधानमंत्री उन्हीं आर्थिक नीतियों का अनुसरण बिना संकोच के बेधड़क कर रहे हैं।
यह आलेख उनके साथ विमर्श है जिन्हें लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के शासन करने और पार्टी चलाने के तौर-तरीकों में लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण दिख रहा है। 1971 के युद्ध और संजय गांधी की पार्टी और सत्ता में सक्रियता के बाद विपक्ष के एकजुट होने की जैसी जरूरत पिछली सदी के आठवें दशक में समझी जाने लगी, लगभग वैसी ही जरूरत मोदी और शाह के तौर-तरीकों के बाद महसूस की जाने लगी है। हां, बचाव में कहा जा सकता है कि मोदी-शाह ने आपातकाल तो नहीं थोपा है। संचार और संवाद के साधनों में आ रहे स्तब्धीय बदलावों में तानाशाही को ठीक वैसे ही लागू नहीं किया जा सकता जिस तरह पिछले शासकों ने किया है? यहां उत्तर कोरिया का उदाहरण दिया जा सकता है, लेकिन क्या भारत जैसे देश में तानाशाही को ठीक उत्तर कोरिया की तरह ही लागू किया जा सकता है, शायद नहीं। 'आपातकाल' भी देश में इतना बदनाम हो चुका है कि शायद ही कोई तानाशाह अपनी सनक को उस छाप के साथ सहलाए। इसके लिए हिन्दुत्वी खुजली पर्याप्त है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासक निरंकुश ना हो, इसलिए विपक्ष का मजबूत या एकजुट होना जरूरी है, चाहे उनकी विचारधारा अलग-अलग ही क्यों न हो। एकाधिक लोगों द्वारा परिचालित कोई भी व्यवस्था पूरी तरह सही नहीं हो सकती। अपनी ही इस प्रणाली की उस खामी की ओर अक्सर ध्यान दिलाया जाता है जिसमें शासक की यह कहकर आलोचना होती है कि उसे 30-32 प्रतिशत जनता ने ही चुना है। यह बेमानी इसलिए है कि इस व्यवस्था को हमने चुना है, और प्रत्येक व्यवस्था में कोई ना कोई कमी होगी ही। इस 'हम' से अपने को अलग करने वाले भी होते हैं, लेकिन ऐसे 'हम' का फलक और काल दोनों व्यापक होते हैं। यह 'हम' ना एक-दो या हजार-लाख में सीमित होता है और ना ही वर्तमान में।
विपक्ष में जैसे भी राजनीतिक दल हैं और नेता भी जैसे हैं, संतुलन के लिए वे ही काम आएंगे। लोकतंत्र का प्रमाण भी यही है कि इसमें वामपंथी हो सकते हैं तो दक्षिणपंथी विचारने वाले भी। वाम और दक्षिण झुकाव के मध्यपंथी हैं तो तानाशाहों से भ्रमित होने वाले भी होंगे, ऐसे भी होंगे जो कुछ भी ना विचारते हों। हमारे देश की बड़ी प्रतिकूलता यह भी है कि अधिकांश नागरिक कुछ भी ना विचारने वाले हैंलहर और हवा के साथ शासक चुनने वाले! भ्रमित होकर वोट करने वाले! हालांकि, एक बड़े लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर प्रत्येक का इस तरह से शिक्षित होना एक लम्बी प्रक्रिया है फिर भी कांग्रेस पर यह आरोप लगाने में कोई संकोच नहीं कि आजादी बाद चूंकि सर्वाधिक समय तक और अधिकांश प्रदेशों में शासन कांग्रेस का ही रहा, उसने देश के नागरिकों को एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर शिक्षित करने का कभी कोई प्रयास नहीं किया। वह प्रयास करती तो देश आज जहां है, वहां नहीं होता। रही बात भ्रष्टाचार की तो नेता या शासन-प्रशासन को भ्रष्ट होने की छूट हमने दी, तभी ये भ्रष्ट और महाभ्रष्ट हो पाए। हम सावचेत होते तो ऐसी सभी तरह की नकारात्मकताएं न्यून या न्यूनतम होती। इसलिए जो कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं, या जो संघ पर प्रतिबंध की बात करते हैं या वाम को खदेडऩे की बात करते हैं, ऐसे सभी खुद के लोकतांत्रिक ना होने की पुष्टि कर रहे होते हैं। वोट हमें क्यों देना है? यदि इस तथ्य से प्रत्येक नागरिक को शिक्षित कर दिया जाय तो आज के अधिकांश मुद्दे और संकट या तो समाप्त हो जाएंगे या अप्रासंगिक।
चन्द्रशेखर के हवाले से जिस शे'र का जिक्र शुरू में किया, उसकी अपनी प्रासंगिकता है तो जवाब में जो शे'र आचार्यजी ने कहा, उस तरह शासकों से जवाब मांगना भी एक परिपक्व नागरिक के कर्तव्य में आता है। 
दीपचन्द सांखला
24 मई, 2018

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