Thursday, October 12, 2017

सूबे की सरकार और उपचुनावों के बहाने प्रदेश कांग्रेस की पड़ताल

देश की वर्तमान राजनीति को सरसरी तौर पर देखें तो राजस्थान उन प्रदेशों में से है, जहां आज भी कांग्रेस की ठीक-ठाक जड़ें कायम हैं। भले ही पिछले चुनाव में इस पार्टी की विधानसभा में सीटें लगभग अप्रभावी रह गईं थी। लहर और आंधी में आए चुनाव परिणाम स्थाई नहीं होते, इसकी पुष्टि पिछले लोकसभा चुनावों के तत्काल बाद के दिल्ली विधानसभा चुनावों के परिणामों में और फिर उसके बाद हुए वहां के स्थानीय निकायों के चुनाव परिणामों से भलीभांति हो जाती है।
राजस्थान के पिछले विधानसभा चुनावों में 'ना भूतो' बहुमत के साथ वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री का पद संभाला। जीत की उस खुमारी में राजे प्रदेश के लिए कुछ करने का मन बनाती, तब तक भाजपा के अच्छे-खासे बहुमत के साथ केन्द्र में नरेन्द्र मोदी काबिज हो लिए। बाद इसके, जैसी कि मोदी की अधिनायकवादी फितरत है, मोदी के 'सरकिट' माने जाने वाले अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष बनाकर, पार्टी पर भी वे पूरी तरह काबिज हो गए। यह बात अलग है कि यह सरकिट फिल्मी नहीं है, खुद मुन्नाभाई होने की हसरत इनकी कभी भी जाग सकती है। अमित शाह ने तौर-तरीके एकदम बदल दिए। जो भाजपा अब तक क्षत्रपों से पोषित-प्रभावित होती आई है, ये नयी स्थितियां कई दिग्गजों के साथ क्षत्रपों को भी असहज करने वाली थी। भैरोसिंह शेखावत के बाद से राजस्थान की भाजपाई क्षत्रप वसुंधरा राजे रही हैं। जिस मिजाज की वसुंधरा हैं, उनके लिए इन नये तौर-तरीकों में अपने को अनुकूलित कर पाना असंभव-सा था। इन्हीं स्थितियों का खमियाजा ये प्रदेश भुगत रहा है। अपने पिछले कार्यकाल में दीखती सक्रियताओं में रही वसुंधरा राजे इस बार अनमनी ही नजर आती हैं।
सूबे की ऐसी अकर्मण्य परिस्थितियों ने जहां विपक्ष को कई गुंजाइशें दीं तो हैं, लेकिन 2013-14 के चुनावों में घायल हुआ विपक्ष आज तक अपने को संभाल नहीं पाया। जिस तरह की लोकतांत्रिक प्रणाली को हमने स्वीकार किया है उसमें एक सशक्त विपक्ष का होना लाजमी है। प्रदेश में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ही है, इसलिए विपक्ष की भूमिका में प्रदेश में और देश में भी लोकतांत्रिक मूल्यों को सहेजे रखने की उम्मीदें फिलहाल कांग्रेस से ही की जा सकती हैं।
पिछले चुनावों में लुंज-पुंज हुई कांग्रेस में ऊर्जा के संचार के लिए कहने को कमान युवा सचिन पायलट को सौंपी गई। इस 'कहने को' कहने का वाजिब कारण भी है। जब से सचिन को कमान मिली, तब से ही प्रदेशव्यापी सक्रियता उनकी वैसी देखी नहीं गई, जैसी बदतर गति को प्राप्त पार्टी में जोश पैदा करने के लिए जरूरी थी। हो सकता है उन्हें जिम्मेदारी देते वक्त यह अहसास करा दिया गया हो या हो सकता है अपनी अक्षमताओं के चलते यह भान हो गया है कि उनकी यह नियुक्ति अस्थाई है। यदि ऐसा है भी तो एक पूर्णकालिक राजनेता से उम्मीद की जाती है कि वह दी गई किसी भी जिम्मेदारी को नैष्ठिक जोश-खरोश अंजाम तक पहुंचाए। अपनी नियुक्ति के बाद से सचिन पायलट ने ऐसी सक्रियता आज तक नहीं दिखाई। सचिन चाहते तो अब तक वे राजस्थान के सभी कस्बों और छोटे-बड़े शहरों की एकाधिक यात्राएं करके पार्टी में जान फूंकने का काम कर सकते थे। जिसका लाभ केवल पार्टी को ही नहीं, खुद उन्हें भी मिलता। वे एक सर्वमान्य नेता के तौर पर प्रदेश में स्थापित होते। युवा और सौम्य कदकाठी के साथ-साथ वैचारिक तौर पर भी तार्किक सचिन काफी सुलझे हुए हैं, ऐसी छाप उन्होंने टीवी-डिबेटों में कई बार छोड़ी है। प्रदेश के सभी हिस्सों में जनता और कार्यकर्ताओं तक पहुंच कर व्यक्तिगत वाकफियत बढ़ाने का अवसर सचिन पायलट ने लगभग हाथ से निकल जाने दिया है। इतना ही नहीं, भीड़ में वे अपने को असहज पाते हैं और दूर-दराज से आए पार्टी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों मिलने से बचते रहते हैं, कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की यह आम शिकायत है कि पीसीसी अध्यक्ष उसी दिन कम ही मिलते हैं जिस दिन कार्यकर्ता जयपुर पहुंचते हैं, उन्हें मिलने के लिए दूसरे-तीसरे दिन तक वहां रुकना पड़ता है। सचिन पायलट के ऐसे व्यवहार से लगता है कि उनकी राजनीतिक आकांक्षा सूबे में क्षत्रप होना ना हो।
यह भी सुनने में आता है कि राजस्थान की राजनीति बाहरी लोगों को स्थापित करने का जरीया है, इसके लिए वे भाजपा और कांग्रेस दोनों को भुंडाते हैं। उदाहरण के तौर पर वसुंधरा राजे और सचिन पायलट का नाम लिया जाता है, ये दोनों ही इस आरोप में सटीक इसलिए नहीं बैठते कि मराठी मूल की वसुंधरा चाहे मध्यप्रदेश की हों, वह शादी करके राजस्थान आयीं हैं। शादी के बाद स्त्री का घर ससुराल को मानने वाली संस्कृति में ऐसी बातें परम्परागत समाज व्यवस्था को चुनौती है। ऐसे ही यूपियन मूल के पिता राजेश पायलट का और अब खुद सचिन का घर बार चाहे दिल्ली में ही हो लेकिन पिता-फिर मां और अब खुद की राजनीतिक स्थली राजस्थान ही रही है। इस तरह सचिन को भी साफ-साफ बाहरी नहीं कह सकते। यह भी कि सचिन का मन यदि सूबे की राजनीति में रमता तो प्रदेश कांग्रेस की कमान मिलने के बाद वे अपने घर-परिवार को राजस्थान ले आते।
उक्त सब बातों को छोड़ भी दें तो अपने लिए तय जिम्मेदारी पर खरा जताने को सचिन के लिए लोकसभा और विधानसभा के उपचुनाव माकूल अवसर हैं। खुद उन्हें आगे आकर अपनी हारी अजमेर लोकसभा सीट पर उम्मीदवारी जतानी चाहिए।
नोटबंदी की मूर्खता व जीएसटी लागू करने में जो अनाड़ीपना मोदी सरकार ने दिखाया है, उसके चलते पिछले डेढ़-दो माह में उनकी लोकप्रियता का ग्राफ नीचे आया है वहीं सूबे में वसुंधरा के कामचलाऊ राज से जनता को जैसी निराशा मिली, उसमें सचिन का अजमेर सीट से जीतना मुश्किल नहीं है। होना तो यह चाहिए कि अजमेर के साथ ही अलवर लोकसभा और मांडलगढ़ विधानसभा के उपचुनावों में कांग्रेस को जिताने की चुनौती सचिन को पूरे आत्मविश्वास से लेनी चाहिए। अशोक गहलोत गुजरात चुनावों की जिम्मेदारी के चलते व्यस्त भले ही हों, इन उपचुनावों में उनकी काबिलियत और समझ का सहयोग ले कर तीनों 'उपचुनावों' में जीतने का संकल्प उन्हें बना लेना चाहिए। इससे जहां राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को बल मिलेगा वहीं इस हार से प्रदेश भाजपा भी वर्ष भर बाद प्रदेश विधानसभा के चुनावों के मद्देनजर दबाव महसूस करेगी। अलवर लोकसभा उपचुनाव को सीट को जहां राहुल-सखा जितेन्द्रसिंह की प्रतिष्ठा का हेतु बनाया जा सकता है तो फिर माण्डलगढ़ विधानसभा उपचुनाव सीपी जोशी की नाक का सवाल क्यों नहीं हो सकता। सचिन पायलट को केन्द्र की राजनीति में यदि लौटना ही है तो प्रदेश की ये तीनों जीतें उन्हें बढ़े कद के साथ वहां प्रतिष्ठ करेगी।
दीपचन्द सांखला

12 अक्टूबर, 2017

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