Thursday, October 5, 2017

पड़ताल मोदी-शाह की साझेदारी फर्म हो चुकी भाजपा की

पिछले डेढ़-दो माह से देश में राज के खिलाफ बेचैनी वैसी सी कसकने लगी जैसी 2011-12 में तत्कालीन कांग्रेस नीत संप्रग-दो के राज में दिखने लगी थी। वाजिब वजह भी है, राहत तो दूर सभी तरह की परिस्थितियां पिछले राज से भी लगातार बदतर होती जा रही हैं। ऊपर से सरकार के नोटबन्दी जैसे मूर्खतापूर्ण निर्णय और बाद फिर हाल में अनाड़ीपने से लागू की गई जीएसटी कर-प्रणाली ने अवाम का धैर्य चुका दिया है। संघनिष्ठ घुन्नों और उन मोदीनिष्ठों को छोड़ दें जो अब भी खुद के गलत साबित होने का हौसला नहीं जुटा पा रहे हैं, तो शेष मोदी समर्थक असफल-पुराण बंचने पर या तो चुप हो लेते हैं या इतना भर कह पाते है कि मोदी ने तो मरवा दिया। कुछेक पुराने मोदीनिष्ठ ऐसे भी हैं जो मोदीजी को मजा चखाने को अगले चुनाव का इन्तजार करने का भी खुलकर कहने लगे हैं।
मोदी को नसीबवाला तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना जरूर है कि 2011-12-13 में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के लिए अनुकूलताएं लगातार बनती गईअन्ना हजारे का सक्रिय होना, योगधंधी रामदेव की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का जागना और उस सब के बीच निर्भया काण्ड का घटित होना, ऐसी सभी घटनाएं और प्रतिक्रियाएं तत्कालीन शासन को उघाड़ कर रखने को पर्याप्त सिद्ध हुईं। लेकिन इस सब के बावजूद अवाम को हासिल क्या हुआ, इस बदले राज को भी साढ़े तीन वर्ष हो लिए, अन्ना द्वारा उठाये किसी भी मुद्दे पर अमल करना तो दूर, यह सरकार उन मुद्दों पर मसक ही नहीं रही। बावजूद इसके अन्ना का चुप्पी साधे रखना लोगों को अब सालने लगा है। सोशल साइट्स पर अन्ना से पूछा जाने लगा है कि पिछली सरकार को भुंडाने की कितनी सुपारी मिली थी। वहीं रामदेव इस राज में मिली पोल से अपने धंधे को अच्छे से चमकाने में लग गये हैं। खुद द्वारा उठाए गए मुद्दों को रामदेव अब याद भी नहीं करना चाहते।
लोकतांत्रित विडंबना यह है कि पूरे विपक्ष को सांप सूंघ गया है। वह शायद वैसी अनुकूलता के इंतजार में है, जैसी भाजपा और मोदी को 2012-13 में मिल गई थी। गुजरात में वैसी अनुकूलता कांग्रेस को मिलती दिखने भी लगी है।
भारतीय जनता पार्टी संगठन नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की साझेदारी फर्म में लगभग तबदील हो चुका है। कुछ वरिष्ठों को मार्गदर्शक बना कर थरप दिया है तो शेष वरिष्ठ सहम कर साझेदारी फर्म भाजपा के कारिंदें होने में ही अपनी भलाई मान जैसी-तैसी हैसियत में चुप हैं।
रही बात लोकतंत्र का चौथा पाया माने जाने वाले अखबारों की, टीवी आने के बाद ये पेशा थोड़ा व्यापक सम्बोधन के साथ मीडिया बनकर लगभग धर्मच्युत हो लिया है। पिछली सदी के आठवें दशक में इन्दिरा गांधी की बड़ी भूल आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी सरकार के सूचना प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल के दौरान धर्मच्युत हुए मीडिया को फटकारते हुए कहा था कि शासन ने आपातकाल में झुकने के लिए कहा और आप तो दंडवत हो लिए। वे ही आडवाणी आज अपने पार्टी संगठन के साझेदारी फर्म में तबदील होने और मीडिया के टुकड़ैल हो जाने पर मूर्तिवत हैं। परिस्थितियां आपातकाल में मीडिया के दंडवत हो जाने से बदतर हैं। नहीं कह सकते कि मीडिया की नियति क्या बनेगी लेकिन फिलहाल यही लग रहा है कि अधिकांश की नीयत ठीक नहीं है। अब तो किसी को पत्रकार कहते भी संकोच होने लगा है।
प्रधानमंत्री मोदी को अभी भी लग रहा है कि उनके असत्यमेध के रथ को कोई रोकने वाला नहीं है। हाल ही में उन्होंने अपने भाषणों से गुजरात-हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं का चुनाव अभियान शुरू किया है, वहां की जनसभाओं में वे भ्रमित करने वाले अपने उसी अंदाज में नजर आए। उन्हें लगता है कि देश की अधिकांश जनता भोली और मासूम है-जो है भीफिर उनके बहकावे में आ लेगी। उन्हें यह भी भरोसा है कि भाजपा कंपनी में उनके घाघ साझीदार अमित शाह कम्पनी के फायदे के लिए कुछ भी कर सकते हैं। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों से पूर्व ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद के साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का अप्रत्याशित लाभ उनकी कंपनी उठा चुकी है। हिमाचल प्रदेश में भले ही ऐसे दंगों की गुंजाइश कम हो लेकिन वहां शासन कर रही कांग्रेस की सरकार ने इस कम्पनी हेतु काफी अनुकूलताएं बना दी हैं। गुजरात में भाजपा कम्पनी का विपक्ष ना केवल चौकन्ना है बल्कि वहां के अल्पसंख्यक भी पूरे सावचेत हैं। साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की अनुकूलता मोदी एण्ड शाह एसोसिएट को वे इस बार शायद ही दें। रही सही कसर भाजपा के परम्परागत वोट रहे पटेलों की नाराजगी से पूरी हो सकती है तो गोरक्षा के नाम पर नरभक्षकों के शिकार हुए गुजरात के दलितों में भी चेतना का संचार हुआ है। लेकिन अमित शाह को हलके में लेना गुजरात में कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर सकता है वहीं राज के विरोधी हुए पटेलों और दलितों में फांट डालकर बदलाव के उनके सामूहिक मंसूबों पर भी पानी फेर सकता है।
दीपचन्द सांखला

5 अक्टूबर, 2017

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