Thursday, July 20, 2017

सोशल साइट्स जंगल की मानिंद, चिनगारी आग में तबदील होने में देर नहीं करेगी

'ईश्वर सत्य है' कहने वाले मोहनदास करमचंद गांधी ने अन्वेषण के बाद सत्य को ही ईश्वर माना। 'मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है' कहने वाले गांधी ने अपने जीने के तौर-तरीकों से यह बताया कि जो मानवीय है वह ही सत्य है। उनके व्यावहारिक जीवन से लगता है कि इस चर-अचर जगत की प्रत्येक इकाई के साथ अहिंसक और गरिमापूर्ण व्यवहार को ही उन्होंने मानवीयता की पात्रता माना। भ्रष्टाचार, बेईमानी, मिलावट, कर चोरी, हिंसा, झूठ-फरेब, भ्रमित करना, अन्य के अधिकारों का हनन, धर्म और जातीय आधार पर व्यवहार में अन्तर आदि-आदि के साथ न्यूनतम भरण-पोषण के अलावा प्रकृति का दोहन और लालच में जीव-अजीव पर हिंसा अमानवीय कृत्य है, इसलिए असत्य हंै।
आज यह बात जिस विशेष सन्दर्भ में कह रहे हैं, उसका खुलासा जरूरी है। बुद्धि के होते मनुष्य चंूकि जीवों में श्रेष्ठ है और वह झूठ का आभासी मण्डल घडऩे की चेष्टा करता रहा है। पिछली एक-डेढ़ सदी में तकनीक अपने नित-नये संचार साधनों के माध्यम से झूठ के इस आभासी मण्डल को विकराल बनाती जा रही है।
फेसबुक, ह्वाट्स एव, ट्विटर आदि से लोडेड स्मार्टफोन, मोबाइल आने से पहले पिछली सदी के आखिरी दशक में जब एसटीडी (सब्सक्राइबर ट्रंक डायलिंग) सेवाओं का विस्तार हुआ तब 1995 में गणेश प्रतिमाओं के दूध पीने की बात कुछ ही घंटों में पूरे देश-विदेश में फैल गई।  उस झूठ को फैलाने के पीछे किसी की कोई मंशाविशेष थी या मात्र भक्तिभ्रम, नहीं कहा जा सकता। लेकिन उस भ्रम से निकलने में आस्थावान भारतीयों को ज्यादा दिन नहीं लगे।
मोबाइल के साथ जरूरत बन चुके कम्प्यूटरों के इस युग में ऐसे ही बड़े भ्रम की शिकार हुई पूरी आभासी दुनिया, 1 जनवरी, 2001 की मध्यरात्रि 12 बजे के ठीक बाद कम्प्यूटर सहज देखे गये तो उस बड़े भ्रम से मुक्ति मिली। हुआ यह था पिछली सदी के अंत में दक्षिण अमेरिका के किसी देश के एक अखबार के कोने में एक छोटी खबर इस आशंका के साथ लगी कि हो सकता है 31 दिसम्बर, 2000 की रात से दुनिया के सभी कम्प्यूटरों के प्रोग्राम 2001 में शिफ्ट ना हों। फिर क्या, बिना कम्प्यूटर वैज्ञानिकों से विमर्श किए इस खबर को मीडिया अधकचरे विशेषज्ञों के साथ विस्तार देता गया। यहां झूठ का उद्गम भक्ति-भ्रम नहीं, आशंका माना जा सकता है जिसे मीडिया के मतिभ्रम ने विकरालता दी। इसके ठीक बाद 2001 के मध्य में दिल्ली में मंकीमैन का भय व्याप्त हो गया। ऐसा कुछ भिन्न घटनाओं के साथ अन्य शहरों में होता रहा होगा। चूंकि दिल्ली देश की राजधानी है इसलिए इस घटना को मीडिया ने देशव्यापी खबर बना दिया। हो सकता है यह किसी खुराफाती दिमाग की उपज हो और लहर में बहकर अनेक ने विस्तार दे दिया। लेकिन अपनी छवि के विपरीत पुलिस ने इसे जल्द ही झूठा साबित कर दिया।
ऐसी सब घटनाएं बिना कुछ नुकसान किए नहीं गुजर जातीं, काम के घंटों, करोड़ों-अरबों के फिजूल खर्च और असल मुद्दों से भटकाव जैसे नुकसान के साथ सामूहिक छविक्षय का काम भी करती हैं।
फेसबुक, ह्वाट्स एप, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसी सोशल साइटों के साथ इस तरह के लोग अब ना केवल बेलगाम हो रहे हैं, बल्कि भय, भ्रम और आशंकाओं के साथ मनुष्य को हिंसक हो जाने के हेतु भी ये देने लगी हैं। लिखित में, दृश्य श्रव्य (राइटिंग, ऑडियो विजुअल) में बदलाव कर, नया घड़कर या सन्दर्भ बदलकरकुछ लोग स्वार्थ और विचारविशेष को बल देने के वास्ते जानबूझ कर ऐसा करने लगे हैं। इस शातिरपने का शिकार अकसर वे होने लगे हैं जो अविचारी हैं या आदतन तर्क-वितर्की नहीं हैं, और इनमें से कुछ प्रतिक्रिया भी देने लगे हैं। ऐसी प्रतिक्रियाओं को कुछ की मासूमियत मान सकते हैं, जैसे कुछ भी मैसेज, फोटो या ऑडियो आया, उसे सुने या बिना पूरा सुने अन्यों के साथ साझा करने में देर नहीं लगाते, यह भी नहीं सोचते कि बिना पुष्टि किए और बिना यह विचारे ऐसा किये जाने से देश और समाज की सामंजस्यता को नुकसान हो सकता है या किसी की गरिमा भी आहत हो सकती है।
फेसबुक, ह्वाट्स एच, ट्विटर आदि पर झूठी पोस्टों, झूठे फोटों और झूठे ऑडियो की बाढ़ सी पिछले एक अरसे से आने लगी है। इतना ही नहीं, हाल ही के वर्षों में कुछ अखबार और टीवी चैनल भी फेक न्यूज, पढ़ाने-दिखाने लगे हैं। इन सब का मोटा-मोट मकसद राजनीतिक है, येन-केन प्रकारेण सत्ता हासिल करना या सत्ता में बने रहना। इसके लिए वे बिना दया-हया के बेधड़क कुछ भी करने लगे हैं। अधिकांशत: धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर मासूम लोग इनके वाहक (कुरियर) भी बन जाते हैं।
स्वदेशी की अलख जगाने वाले राजीव दीक्षित की असामयिक मृत्यु के बाद इन सोशल साइटों पर उनके नाम का सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है, हर कोई अपने अंडबंड विचार उनके नाम से पेल रहा है। खुद गांधी और जवाहरलाल नेहरू की छवि खराब करने का जो काम आजादी के बाद से धीमी गति से चल रहा है उसे संचार के आधुनिक साधनों ने न केवल गति दी बल्कि अश्लील भी बनाया है। जनगणना के आंकड़ों को दरकिनार कर जनसंख्या के धर्म आधारित झूठे आंकड़ों के माध्यम से वैमनस्य फैलाया जाने लगा है।
इस दौर के किसी नेता के लिए यह कहना कि वह भ्रष्ट नहीं है, असंभव है। इसकी बड़ी जिम्मेदार कांग्रेस पार्टी है जिसने आजादी बाद सर्वाधिक शासन किया। लेकिन इसके मानी यह कतई नहीं है कि अन्य पार्टियों के नेता दूध के धुले हैं। राजनीति और चुनावी-तंत्र जिस तरह खर्चीला हो गया है उसमें तो ऐसा कतई संभव नहीं।
अब तो और भी मुश्किल दौर आ गया है। सत्ता पर जो काबिज हैं उनका मकसद ही येन-केन देश को हिन्दुत्वी राष्ट्र बनाना है। इसके लिए देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की सफलताएं परवान पर हैं। अपने पितृ संगठन के नेतृत्व में अपने इस मकसद से यह विचारधारा ना तब विचलित हुई जब देश गुलाम था, आजादी इनका मकसद तब भी नहीं था। आपातकाल में भी ये विचलित नहीं हुए, तब भी इनका मकसद लोकतंत्र नहीं था।
गांधी ने कहा, 'सत्य साध्य है, अहिंसा साधन है।' लेकिन इन अधिनायकीय सत्ताकांक्षियों का मानना कुछ दूसरा है:—'हिन्दुत्वी राष्ट्र साध्य है, झूठ और हिंसा साधन हैं।' दूसरी ओर भयभीत मानसिकता के चलते अल्पसंख्यक भी संयम नहीं रख पा रहे हैं। एक तरफ से थूका-थूकी होती है तो दूसरी तरफ से कुत्ता-फजीती शुरू करने में देर नहीं की जाती।
इस देश की तासीर समुद्र की सी रही है जो अपने में सभी को समा लेता है। तासीर बदलने वालों से सावधान रहने की जरूरत है। ईश्वर, अल्लाह, गॉड, वाहेगुरु आदि-आदि ऐसे छुईमुई से हैं कि उन्हें या उन पर कुछ भी अंडबंड कह देने भर से वे खिरने लगते हैं तो ईश्वर, अल्लाहगॉड, वाहेगुरु आदि-आदि होने की वे पात्रता नहीं रखते।
वर्तमान आर्थिक नीतियों और सामाजिक असमानताओं के बढ़ते यह समय घोर निराशाजनक हो गया है। पूंजी लगातार एक छोटे समूह में सिमटती जा रही है और हम हैं कि इस सत्य को देखना-समझना ही नहीं चाहते और धर्म के नाम पर अपने राजनीतिक हित साधने वालों के औजार बनते जा रहे हैं। सोशल साइट्स व संचार के ये साधन तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों को जंगल की आग में तबदील करते देर नहीं लगाते। इसलिए इन साधनों को बरतते वक्त ना केवल सावधान रहना होगा बल्कि प्रतिक्रिया करते वक्त ठिठकते भी रहना जरूरी है। सत्य ही ईश्वर है और उसकी प्रतिष्ठा मानवीयता की पात्रताएं विकसित किये बिना संभव नहीं है।
दीपचन्द सांखला

20 जुलाई, 2017

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