संपूर्ण गोवंश की जननी-कामधेनु दक्ष प्रजापति और अश्विनी की पुत्री मानी जाती
है। यह वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच युद्ध का कारण भी बनी। कामधेनु के प्रताप से
वशिष्ठ ने अपने आश्रम में विश्वामित्र का बड़ा सत्कार किया। प्रताप देखकर
विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ से कामधेनु को मांग लिया। वशिष्ठ इसके लिए तैयार
नहीं हुए। इस इनकार पर दोनों में युद्ध हो गया। गाय से संबंधित यह उल्लेख भारतीय
संस्कृति कोश में मिलता है। इस उल्लेख को हलके में लें तो कह सकते हैं कि गाय
पौराणिक काल से ही हिंसा का हेतु रही है। वेद-पुराणों को ऐतिहासिक मानें तो हमारे
यहां धार्मिक अनुष्ठान के तौर पर पशुयाग और गोमेघ होते रहे हैं जिनमें गाय की बलि
दी जाती थी। इतना ही नहीं, भारतीय वाड्मय
में गो मांस को श्रेष्ठ खाद्य माना गया और ऋषि-मुनि तक इसका सेवन करते थे। इस
संदर्भ में पं. विद्यानिवास मिश्र अपनी पुस्तक 'हिन्दू धर्म : जीवन में सनातन की खोज' में लिखते हैं कि 'यदि हिन्दू धर्म शुद्ध रूप से पोथी धर्म रहता तो पशुयाग और
गोमेघ अब भी होते, पर लगभग पिछले दो
हजार वर्ष से दोनों बन्द हो गये। क्योंकि लोक में ऐसे आन्दोलन हुए जिन्होंने इन
अनुष्ठानों को मंगलकारी नहीं माना। उन आन्दोलनों को बाद में शास्त्रीय प्रतिष्ठा
भी मिली।'
इन पुस्तकों को टटोलने की जरूरत इसलिए पड़ी कि पिछले एक अरसे से गाय सर्वाधिक
सुर्खियां पाने वाली मीडिया पर्सनैलिटी हो गई है। बल्कि यूं कहें तो अतिशयोक्ति
नहीं कि गाय के नाम पर कानून-व्यवस्था की तो बिसात ही क्या संविधान तक को ताक पर
रखा देखा जाने लगा है। यहां तक कि समुदाय-विशेष के व्यक्ति को गाय के नाम पर मारना
बहुसंख्यकों के वोटों के धु्रवीकरण में भी कारगर होने लगा है। सर्वाधिक सम्मान्य
(दूध देते रहने तक) मूक पशु गाय के नाम पर भारतीय समाज में अब नरबलियां होने लगी
हैं। राजनेताओं को लगने लगा है कि सत्ता तक पहुंचने को वैतरणी यदि पार करनी है तो
वह गाय की पूंछ पकड़े बिना संभव ही नहीं है। बीकानेर शहर कांग्रेस भी इन दिनों ऐसी
ही जुगत भिड़ाने में जुटी है।
भारतीय जीवनचर्या में गाय का बहुत महत्त्व है। गाय को पवित्र पशु जाना जाता है
और उससे मिलने वाले दूध, दही, घी यहां तक कि गो-मूत्र तक का उपयोग औषधि के
रूप में किया जाता है। ट्रैक्टर आने से पहले खेत में हल जोतने का महती काम
अधिकांशत: गौ-पुत्र बैलों द्वारा ही किया जाता था। यह बात अलग है कि इस मशीनी युग
में बैलों की महत्ता इस रूप में भले ही घटी है लेकिन बीफ (गोवंश मांस जिसमें
गाय-भैंस, बैल, सांड, पाडे आदि चौपाए आते हैं) निर्यात में भारत इन वर्षों में सिरमौर है। खेती में
गोवंश की जरूरत भले ही खत्म हुई लेकिन इन्हें बेचने (जाहिर है इन्हें
बूचडख़ाना-आपूतिकर्ता के अलावा कौन खरीदेगा) से प्राप्त धन को किसान ट्रैक्टर आदि
की सेवाएं लेने में खर्च करने लगा, वहीं पशुपालक
इसके बदले दुधारू गाय खरीदने में। पशुपालन में लगे लोग अधिकांशत: पिछड़े, अल्पसंख्यक और निम्न जातियों से आते हैं जिनकी
माली हालत बहुत अच्छी नहीं होती, अत: ऐसे पशुपालक
सामान्यत: नाकारा (दूध देना बंद कर चुकी) गायों को भी बूचडख़ाना-आपूर्तिकर्ता को
बेचकर नई गाय ले आते हैं ताकि उनकी आजीविका चलती रहे।
यहां यह बताना जरूरी है कि वर्तमान बाजार युग में गोपालक अपनी जो आजीविका कमाते
हैं, वह नाकारा गोवंश को बेचे
बिना या दूध से क्रीम निकाले बिना या पानी मिलाए बिना या नकली दूध मिलाए बिना अपना
गुजारा ही नहीं कर सकता। डेयरी इकोनॉमी के जानकारों का आकलन है कि वर्तमान में दूध
उत्पादन की लागत न्यूनतम चालीस रुपए लिटर आती है जबकि गोपालक को बीस से तीस रुपये
लिटर से ज्यादा का भाव मिलता ही नहीं। अपवादस्वरूप किसी को इससे कुछ ज्यादा मिलता
भी है तो वह उल्लेख योग्य नहीं है।
यह सब लिखने का मकसद इतना ही है कि गोरक्षा के नाम पर जो लठैत नरभक्षी होते जा
रहे हैं या कानून और व्यवस्था को अपने हाथ में ले रहे हैं, ऐसे लोग भारतीय सामाजिक ताने-बाने की समझ नहीं रखते।
अधिकांश भारतीय जीवनयापन की अपनी न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के वास्ते किस कदर
जूझते हैं, उन्हें इसकी भी खबर नहीं
है। लेकिन वे यह तो अच्छी तरह जानते ही होंगे कि बूचडख़ानों के माध्यम से जो मांस
का निर्यात करने वाले और चमड़ा उद्योग चलाने वाले अधिकांश धनपति समर्थ-सवर्ण ही
हैं। इन लठैतों ने कभी इन उद्योगपतियों की ओर आंख उठाकर भी देखा क्या?
ये तथाकथित गोरक्षक क्या इससे भी अनभिज्ञ हैं कि भारत की कुल आबादी में
इकहत्तर प्रतिशत मांसाहारी हैं। जबकि कुल आबादी में मात्र चौबीस प्रतिशत
अल्पसंख्यक हैं जिनमें मुसलिम, सिख, ईसाई, जैन और पारसी भी शामिल हैं। मुसलिम कुल आबादी का मात्र चौदह प्रतिशत ही हैं।
ये आंकड़े 2011 कीे जनगणना से
लिए गये हैं।
अगर पिछड़ों, दलितों को हिन्दू
मानते हैं तो इस तरह लगभग दो-तिहाई हिन्दू मांसाहारी हैं। यह बात भी जाहिर है कि
चूंकि गोमांस अन्य खाद्य मांसों से कुछ सस्ता होता है इसलिए आर्थिक तौर पर
हिन्दुओं का कमजोर तबका जिसमें दलित और कुछ पिछड़े भी आते हैं, चोरी-छिपे ही सही वे नाकारा चौपायों का बीफ खा
गुजारा करते हैं। अगर कोई अपराध कर भी रहा है तो इसकी शिकायत करें, कानून को अपना काम करने दें। वैसे अधिकांश
समर्थ कानून कायदों के अनुसार कितना चलते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। हां,
समर्थ अपनी एयाशी बढ़ाने के लिए नियम-कायदों का
उल्लंघन करते हैं जबकि कमजोर मात्र अपना पेट पालने के लिए। यह सब लिखने का आशय न
मांसाहार को प्रोत्साहन देना है और न बीफ सेवन की पैरवी करना और ना ही कानून तोडऩे
वालों की हिमायत करना है। यह सब इसलिए लिखा जा रहा है कि किन्हीं के बहकावे में
आकर हिंसक होने से पूर्व ठिठकें और जिस पर हिंसा कर रहे हैं उसकी जगह अपने को रख
कर देखें। देखा यह भी गया है गो-रक्षा के नाम पर इस तरह की वारदातें करने वाले
अधिकांश धाये-धापे परिवारों से आते हैं, जिनकी अपनी आजीविका सुरक्षित होती है।
गाय के नाम पर कुछ करना ही है तो सब से सार्थक काम यह होगा कि पॉलिथिन पर
सम्पूर्ण देश में पूरी तरह रोक लगवाएं। सरकार से मांग कर इनकी फैक्ट्रियां बन्द
करवाएं। यह बहुत मुश्किल नहीं, दुनिया के कई
देशों में पॉलिथिन हर तरह से वर्जित है। अधिकांश आवारा गोवंश पॉलिथिन खाकर ही मरता
है।
गाय के नाम शेष जो भी हो रहा है वह चाहे भारतीय जनता पार्टी या उसके संंबंधित
संगठन कर रहे हैं या कांग्रेसी-मात्र ढोंग है। इनका मकसद केवल राजनीति करना और गाय
की पूंछ पकड़ सत्ता तक पहुंचना भर है, पहुंच सकते हैं तो पहुंचिए, लेकिन गाय के नाम
पर मनुष्यों को मारना बन्द कीजिए, यह ना धर्म सम्मत है और ना ही कानून सम्मत।
—दीपचन्द सांखला
6 जुलाई, 2017
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