पड़ोस का लोकसभाई क्षेत्र है नागौर, प्रदेश में अभी के सभी बड़े शहरों से पुराना। आजादी बाद के पहले आम चुनाव में
पाली से जुड़े नागौर लोकसभा क्षेत्र से निर्दलीय गजाधर सोमानी जीते थे—उसके बाद के चुनावों में लगातार जीतने वाले
नाथूराम मिर्धा के बारे में कहा जाता था कि बाबा नागौर में विकास इसलिए नहीं
करवाते कि विकास के साथ लोग समझदार हो जाएंगे, जब तक डोफे हैं तभी तक बाबे को वोट देंगे। ऐसा ही एक
विधानसभाई क्षेत्र अपने जिले में भी है कोलायत, जो पहले आधा शहरी और आधा ग्रामीण था। पुन:सीमांकन के बाद यह
क्षेत्र पूरा ग्रामीण हो गया। नागौर को जिस तरह आज भी कस्बाई शहर माना जाता है
वैसे ही कोलायत को गांव जैसा कस्बा। जबकि यह उत्तर पश्चिमी भारत का बड़ा तीर्थ है।
1962 में बने इस विधानसभा
क्षेत्र से तब समाजवादी मानिकचन्द सुराना जीते थे। सूबे और केन्द्र में राज
कांग्रेस का था। ऐसे में विकास की उम्मीद करना बेकार था। बाद के दो चुनावों में
कांग्रेस की कान्ता खथूरिया जीती। सत्ता के साथ अच्छे संबंधों के बावजूद उन्होंने
कुछ नहीं करवाया।
1977 के चुनाव में जनता पार्टी लहर की बदौलत रामकृष्णदास गुप्ता
जीते, यद्यपि इस विधानसभा का
पटाक्षेप जल्दी हो गया, नहीं भी होता तो
कोलायत के विधायक ने विधायकी की फाड़ा-फूंसी पहले ही कर दी, राज होते भी क्षेत्र में कुछ नहीं हो पाया। 1980 से विधायकी को बपौती बना चुके देवीसिंह भाटी
हाल की विधानसभा के अलावा हमेशा न केवल विधायक रहे हैं बल्कि जब भी भाजपा की सरकार
रही भारी-भरकम मंत्रालय के साथ मंत्री रहे। बावजूद इसके कोलायत की गिनती प्रदेश के
सर्वाधिक पिछड़े विधानसभा क्षेत्रों में है। दिल्ली में स्थाई डेरा बना चुके
प्रवासी जनप्रतिनिधि मिर्धा की तरह भाटी भी प्रवासी हो लिए। जयपुर रहते भाटी को जब
क्षेत्र को नवाजना होता है बीकानेर आ लेते हैं। क्षेत्र के अपने से लाभान्वितवृन्द
को बुलाकर मिल लेते हैं। हां, कभी एकांतवास
करना हो तो गांव के अपने फार्म हाउस में कुछ समय बिताते हैं। लेकिन आम मतदाता को सुलभ इसलिए नहीं रहे क्योंकि भाटी
पुराने सामन्त हैं तो ग्रामीण वैसे ही दाता मानते हैं। वे पहले तो उन तक पहुंचने
की हिम्मत ही नहीं जुटाते, अगर पहुंच जाते
हैं तो मुंह नहीं खोल पाते। किसी मुंहलगे ने मेहरबानी कर दी तो बात भाटी तक पहुंचा
दी। कह सकते हैं कि भाटी चाहते तो कोलायत क्षेत्र में बहुत कुछ हो सकता था लेकिन
यह क्षेत्र अब तो मात्र अवैध खनन का हब होकर रह गया। चुनाव जीतते तो भी भाटी जयपुर
ही रहते, हार गए तो भी जयपुर ही
रहते हैं—कोढ़ में खाज ऊपर से यह
कि सूबे की मुखिया पिछली बार जैसा भाव भाटी को नहीं दे रही हैं। बावजूद इस सब के
प्रवासी भाटी इस बटबटी में तो हैं ही कि 2018 का चुनाव तो जैसे-तैसे जीतना ही है, सरकार भले ही बने न बने। कोलायत के वर्तमान विधायक भंवरसिंह
भाटी युवा हैं कुछ करना भी चाहते हैं लेकिन सत्ता नहीं है, अगले चुनाव पर नजर है। बीकानेर में रहते हैं, क्षेत्र के लोगों का हाल-चाल जानने को लगातार
सम्पर्क करते हैं। कोलायत क्षेत्र के आम लोग बहुत ज्यादा उम्मीद कोई पाले भी नहीं
हुए, मगरे के लोग अवैध खनन के
वेस्ट से बनते टीलों को अपनी नियति मान चुके हैं।
तीसरा पुराना विधानसभाई क्षेत्र नोखा है। यह क्षेत्र 1952 के पहले चुनाव से है। 1957 में यह क्षेत्र सामान्य और सुरक्षित दोहरी सीट
का रहा और 1962 से सुरक्षित हो
गया। नोखा क्षेत्र राजनीतिक रूप से लगभग जाट प्रभावी रहा है। जिस उम्मीदवार के साथ
जाट हो लिए वही जीतता है। इसका अपवाद 2008 का चुनाव रहा जब वणिक समुदाय के घाघ राजनीतिज्ञ कन्हैयालाल झंवर ने कांगे्रसी
हेकड़ जाट रामेश्वर डूडी को हरा दिया था। 2013 का चुनाव डूडी ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और जीत भी
लिया। डूडी मूलत: नोखा क्षेत्र से हैं लेकिन विद्यार्थी काल से अभी तक वे बीकानेर
में रहते हैं। इसलिए इन्हें प्रवासी जनप्रतिनिधि तो उस तरह नहीं कह सकते जिस तरह
कल्ला व भाटी को कह सकते हैं। रावतमल पारीक को छोड़ दें तो नोखा के लगभग सभी
जनप्रतिनिधि स्थानीय रहे। 1980 का चुनाव जीते
सुरजाराम ने जीतने के बाद नोखा से कोई खास लेना-देना नहीं रखा जबकि वे बीकानेर ही
रहा करते थे। सुरजाराम तबके मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाडिय़ा के रिश्ते में दामाद होते
थे। हालांकि प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा की उपस्थिति में उनकी कविता पर
नकारात्मक टिप्पणी करने पर पहाडिय़ा को एक वर्ष में ही अपना पद खोना पड़ गया था।
शायद इसीलिए सुरजाराम का मन अपने क्षेत्र और राजनीति से उचट गया।
नोखा क्षेत्र का जो भी विकास हुआ वह स्थानीयों के बूते ही हुआ या क्षेत्र की
अवस्थिति और परिस्थितियों के चलते। किसी जनप्रतिनिधि को इसका श्रेय नहीं दिया जा
सकता। कोई प्रभावी जनप्रतिनिधि क्षेत्र को मिला भी नहीं, जैसा कोलायत या बीकानेर क्षेत्र को मिलता रहा है। यद्यपि इन
प्रभावियों ने निहाल न कोलायत को किया और ना ही बीकानेर को। कह सकते हैं कि इन
जनप्रतिनिधियों की सत्ता में रहते भी ना वैसी मंशा थी, होती तो दृष्टिगत भी होती। बाशिन्दों के बूते हुए नोखा के
विकास को तुलनात्मक तौर पर देखें तो वहां का विकास बीकानेर और कोलायत से ज्यादा
गति से हुआ है। क्षेत्र का विकास जनप्रतिनिधियों के बूते ही होता है, इस धारणा का अपवाद नोखा में देखा जा सकता है।
बीकानेर जिले के पुराने क्षेत्रों में 1952 में बने लूनकरणसर की बात अगले अंक में करेंगे। इस क्षेत्र
की राजनीति का ढांचा आदर्श जनप्रतिनिधि माने जाने वाले मानिकचन्द सुराना ने एक
बारगी सेट कर दिया है। उनके मुकाबले में आने वाले राजनेता को इस क्षेत्र में
राजनीति सुराना के बनाए ढांचे में ही करनी होती है।
क्रमश:
21 अप्रेल, 2016
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