Thursday, April 14, 2016

अवाम को कैसे निहाल करें ये प्रवासी जनप्रतिनिधि-एक

आजादी पाने का एक उद्देश्य यह भी था कि राज अवाम की अनुकूलताओं में चले, आप अपने शासक खुद हों। इसके लिए पंचायतों-स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा, लोकसभा में नुमाइंदे अपने बीच से हों। अपने बीच से होगा तभी आमजन जब चाहे तब, बिना किसी संकोच से उससे बतलावन कर लेगा, अपनी जरूरतें बता देगा, लेकिन हुआ क्या? आजादी बाद से ही ऐसी जरूरतों और शिकवा-शिकायतों की अभिव्यक्ति हेतु स्थानीय नेताओं ने जनता को स्थानीय उच्च अधिकारियों के मुखातिब कर दिया। इससे दो नुकसान हुए, एक तो चुने जनप्रतिनिधियों के मौज हो गई, जनता को सीधे जवाब देने के झंझट से उन्हें छुटकारा मिल गया, अब तो लगभग हमेशा के लिए ही। दूसरी ओर बिना वजह सरकारी मुलाजिमों की पूछ बढ़ती गई तो इनकी भौंहें भी ऊंची उठती गई।
बात यहीं समाप्त नहीं होती। चुने गए जनप्रतिनिधियों में से अधिकांश प्रवासी जनप्रतिनिधि की हैसियत को हासिल होते गए। बीकानेर के संदर्भ में बात करते हैं, एकदम शुरुआत के जनप्रतिनिधियों को छोड़ भी दें तो मुरलीधर व्यास ऐसा नाम है जो जनता के बीच पाए जाते थे। सुथारों की बड़ी गुवाड़ स्थित अपने घर से अधिकांशत: पैदल ही निकलते। कभी-कभार किसी तांगेवाले ने कुछ ज्यादा आग्रह किया तो थोड़ी दूर बैठते और फिर उतर जाते, कचहरी परिसर तक पहुंचते-पहुंचते व्यास न जाने कितनों को सुनते, सभी समुदायों को आश्वस्त करते थे। रात में उनके घर की कुंडी खटखटाने का भी कोई समय नहीं था। गोकुलप्रसाद पुरोहित आए तो वे आमजन को कुछ सुलभ तो थे लेकिन यहां किसी ना किसी माध्यम की जरूरत होने लगी। गोकुलप्रसाद को उन्हीं के शिष्य गोपाल जोशी ने अखाड़े से बाहर कर दिया। गोपाल जोशी के बारे तब भी कहा जाता था कि वे ड्राइंग रूम की राजनीति करते हैं और सुनते है, जवाब में जोशी कहते भी थे कि मेरी पार्टी की हवा है, मैं कुछ खास न भी करूं तो भी जीत जाऊंगा। हवा कहीं खिलाफ पार्टी की हो गई तो मैं जनता के लिए कितना भी कुछ कर दूं, हार जाऊंगा। शायद मुरलीधर के हार जाने का उदाहरण उनके सामने था। गोपाल जोशी की उस बात में दम था, यह अब हर चुनाव में साबित होता है। गोपाल जोशी ने 1972 के बाद कई चुनाव लड़े लेकिन जीत वे तीस वर्ष बाद ही पाए। वह भी लगातार दो बार जीते हैं। पहला विरोधी कल्ला के खिलाफ पड़े वोटों से तो दूसरी बार केन्द्र की सरकार के खिलाफ बनी हवा के चलते।
जैसा कि कहा जाता है कि गाड़ी तो चीलों (रेल लाइनों) पे ही चलती है। गोपाल जोशी ने गुरु गोकुल को कांग्रेस की स्थानीय राजनीति से बाहर किया तो जोशी को रिश्ते में साले और तब तक जीजा के सामने आते सहमने वाले बीडी कल्ला ने भाईजी जनार्दन की बदौलत जीजाजी को लम्बे समय तक राजनीतिक बनवास में भेज दिया था। शहर को मानों यहीं से ब्यूरोक्रैटिक जनप्रतिनिधि मिला। डॉ. कल्ला के व्यवहार से लगता है कि वे बनना तो उच्च अधिकारी चाहते थे। बन नहीं पाए तो जनप्रतिनिधि बन अपनी उन सभी हेकड़-इच्छाओं को पूरा करने में लग गए। कल्ला 1980 से राजनीति तो करते हैं लेकिन उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को कभी भी कार्यकर्ता रूप से नहीं परोटा तो बेचारी जनता की पहुंच उन तक कहां होती। कल्ला बन्धु शहर के नए सामन्तों के रूप में पहचाने जाने लगे। खुद डॉ. कल्ला तो स्थाई रूप से जयपुर ही रहने लगे। कभी आते भी तो उन तक किसी आम की पहुंच आसान रही ही नहीं, यहां तक कि उन्होंने कभी इस शहर की जरूरतों तक का पता करने की कोशिश नहीं की। अब भी वे रहते जयपुर ही हैं और कभी-कभार 'हम आ गए हैं' की तर्ज पर आते और लौट जाते हैं। जनता ने एक सीमा तक इन्हें बर्दाश्त किया और जब-जब अवसर मिला तब-तब आईना दिखा दिया। इस बार लगातार दूसरी बार और पिछले पैंतीस वर्षों में कुल तीन बार चुनाव हार चुके प्रवासी राजनीति करने वाले कल्ला 2018 के चुनाव में बीकानेर (पश्चिम) से फिर आस लगाए बैठे हैंवह भी जयपुर में रहते हुए।
इस बीच एक महबूब अली भी आए तो नन्दलाल व्यास भी जनप्रतिनिधि रहे। 1977 की जनता पार्टी की हवा में समाजवादी महबूब चुनाव जीते। कभी जनता से सीधे मेल-जोल न रखने वाले महबूब मंत्री भी बने। आम जनता में लोकप्रिय भले ही न हुए लेकिन ढाई वर्षों की अपनी नुमाइंदगी की छाप कई महत्त्वपूर्ण काम करवा कर छोड़ गए। शहर को पीने का पानी नहर से उन्हीं की बदौलत मिलने लगा। उन पर भ्रष्टाचार और पद भोगने जैसे किसी लांछन की छाया भी नहीं पड़ी।
इसी बीच 1993 में राजनीतिक पटल पर अचानक प्रकट हुए नन्दलाल व्यास ने तिकोने मुकाबले में डॉ. कल्ला के खिलाफ चुनाव जीत लिया। इसी के साथ परम्परागत रूप से कभी समाजवादी और फिर कांग्रेसी रहे इस क्षेत्र में भारतीय जनता पार्टी ने पांव टिका लिए। मुरलीधर व्यास जितने तो नहीं लेकिन फिर भी आमजन के लिए लगभग सुलभ और लोकप्रिय नन्दलाल व्यास ने पैठ जरूर बनाई लेकिन कुछ तो पुरानी छाप व पुराने तौर-तरीकों के चलते और कुछ राजनीतिक चतुराई के अभाव में नन्दलाल व्यास भी 2003 का चुनाव हार गए। यद्यपि अनुकूलता साधे न रखने के चलते फिर से जनप्रतिनिधि तो वे न बन पाए लेकिन नन्दलाल व्यास को प्रवासी जनप्रतिनिधि नहीं कह सकते।
क्रमश:

14 अप्रेल, 2016

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