सुना है गजानन्द माधव मुक्तिबोध यह तकिया कलाम अकसर उच्चारित करते थे। मुक्तिबोध अपने
इस वाक्य के माध्यम से क्या जताना और जानना चाहते थे, पता नहीं। लेकिन लेखकों, विचारवेत्ताओं की हाल ही
में हुई हत्याएं और दादरी में आशंका मात्र पर एक अल्पसंख्यक के घर पर भीड़ का हमला
और एक को मार दिया जाना जैसी घटनाएं धार्मिक-असहिष्णुओं के बढ़ते हौसले का ही
परिणाम है। लगता है पिछले दो वर्षों में कट्टरपंथियों को देश की तासीर बदलने की
गुंजाइश मिल गई है। ऐसे आभास के बाद विभिन्न विधाओं के सर्जक, खास कर लेखक समुदाय जिस तरह से उद्वेलित हुआ और उस उद्वेलन पर हो रही चर्चा पढ़-सुन जो पहली प्रतिक्रिया सूझी, वह यही कि 'पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक़्स क्या है?
एमएम कलबुर्गी की हत्या के बाद कथाकार उदयप्रकाश ने साहित्य अकादमी से मिले
अपने सम्मान से किनारा करने की घोषणा की थी। उनकी उस व्यक्तिगत मन:स्थिति से साझा
तब किसी अन्य लेखक ने नहीं किया। उनकी वह तकलीफ अन्य समानधर्मियों को तब संभवत:
उद्वेलित नहीं कर पायी। अभी जब दादरी की घटना के बाद अशोक वाजपेयी ने वैसी ही
घोषणा की तो उनकी चिन्ताओं को उनकी तरह ही अन्य अनेक लेखक लगातार साझा कर रहे हैं
और साहित्य अकादमी से मिले अपने-अपने सम्मानों को लौटा रहे हैं।
अशोक वाजपेयी की प्रतिक्रिया के बाद से ही लग रहा था कि उनकी चिन्ता तो वाजिब
है। लेकिन विरोध जाहिर करने का तरीका जो उन्होंने इस बार अपनाया वह जम नहीं रहा।
कारण, वही जो अन्य गिनवा रहे हैं जैसे—साहित्य अकादमी स्वायत्त है, वहां राजनीतिक व किसी अन्य तरह का हस्तक्षेप न्यूनतम है, इससे अकादमी की प्रतिष्ठा कम होगी और विरोध के अन्य
तौर-तरीके आदि-आदि भी कारगर हो सकते हैं। जैसे-जो पुरस्कार व सम्मान सरकारों से
हासिल हैं उन्हें लौटाने के अलावा लेखक अभियान के साथ आमजन के बीच जाएं और उन्हें
लोकतांत्रिक मूल्यों की जानकारी दें-ऐसा करना मुश्किल जरूर है लेकिन यदि ऐसा होता
तो इसके दूरगामी और स्थाई परिणाम मिलते। खैर, चिंता और विरोध जताने के तरीके अपने-अपने हो सकते हैं और, यह भी कि कौन-किस तरीके में विरोध की तीव्रता देखते और
ज्यादा कारगर मानते हैं।
इसलिए विरोध के इस तरीके को गलत मानना, विरोध करना और इस पर नकारात्मक प्रतिक्रिया देना आदि-आदि असल मुद्दे को नेपथ्य
में ही डालना है। चर्चा और चिन्ता इस पर होनी चाहिए थी कि उन समूहों को कैसे रोका
जाए जो देश में असहिष्णुता बढ़ाने को आमादा हैं।
सर्जनात्मक व्यक्तित्वों से उम्मीद की जाती है कि वे मानवीय मूल्यों के प्रति
आग्रही होंगे और उन्हीं की ओर अग्रसर-तत्पर रहेंगे। चूंकि ऐसे लोगों को समाज में
विशिष्ट दर्जा हासिल है इसलिए कम-से-कम ऐसी प्रवृत्तियां और घटनाएं जिनसे
सामाजिक-राजनीतिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होने और देश की तासीर बदलने की आशंका हो,
उन पर लेखन और सृजन की अन्य विधाओं में लगे लोग प्रतिक्रिया
इस तरह से दें जिससे समाज को मानवीय मार्गदर्शन मिले और विचलन ना आए।
लेकिन खेद है कि तमाम चर्चाओं को दिग्भ्रमित कर दूसरी ओर ले जाया जा रहा है।
इससे असहिष्णुता जैसा चिंताजनक और विचारणीय मुद्दा गौण हो रहा है और इस तरह से
असहिष्णु प्रवृत्तियों में जो लगे हैं उनके लिए अनुकूलताएं बनाने में अनायास सहायक
भी हो रहे हैं। बेलगाम घोड़े की तरह मीडिया भी मुद्दे को उसी ओर हांकने में
प्रवृत्त दीख रहा है।
ऐसे समय वे कुतर्क, जिनमें यह प्रतिप्रश्न किया
जाता है कि फलां-फलां समय जब वैसा हुआ तब ऐसी प्रतिक्रिया देने वाले कहां थे,
तब इनकी जबानें बंद क्यों थी, ऐसे प्रतिप्रश्न करने वाले यह पड़ताल करने की भी कोशिश नहीं करते कि जिन पर
ऐसे प्रतिप्रश्नी आक्षेप लगाए जा रहे हैं वे आक्षेप प्रामाणिक कितने हैं, हो सकता है तब उन्होंने अन्य तरीकों से विरोध जताया हो,
हो यह भी सकता है कि वे तब चुप ही रहे हों। बावजूद इस सब के
कोई सृजनधर्मी गलत का विरोध अब कर रहे हैं तो उनके तरीके से असहमति जताना और उस पर
ही चर्चा करना अमानवीय और असहिष्णु प्रवृत्तियों में लगे लोगों को शह देना ही है।
कुतर्की लोग जो समान्तर घटनाओं के उदाहरण देते हैं वे ये बताएंगे कि क्या उन
जैसा हो जाना ही इसका समाधान है, या जिन देशों में ऐसी हिंसक
और असहिष्णु प्रवृत्तियां आम हैं, उनका उदाहरण देकर क्या यह
सन्देश देना चाहते हैं कि हमारा देश भी वैसी ही बदतर स्थितियों की ओर बढ़े।
बीकानेर के दो स्थानीय अखबारों ने इस मुद्दे पर जो चर्चा आयोजित की वह
पूर्णतया मुद्दे से भटकाने वाली थी। चर्चा असहिष्णुता जैसे असल मुद्दे पर न करवा
कर विरोध के तरीकों पर केंद्रित करवा कर मीडिया अपने इस अबोध-बोध में प्रकारान्तर
से उन्हीं लोगों का सहायक बन रहा है, जिसके असल विरोध की
जरूरत है और जिनसे समाज को बचाना है। मीडिया तो जैसे हंकने-हंकवाने को प्रस्तुत ही
है।
खेद यह भी है कि तमाम स्थानीय लेखक मीडिया के हांके हंक गये और गैर-जरूरी
मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया देकर मुक्त हो लिए। असहिष्णुता की घटनाओं और
प्रवृत्तियों को किसी ने गलत बताया भी तो सांकेतिक तौर पर, जबकि चर्चा का केन्द्रीय बिन्दु यही होना चाहिए था। ये लेखक यदि सावचेत होते
तो चर्चा की दिशा बदल सकते थे लेकिन लगता है इनमें से कुछ या तो इस पर अपनी राय
नहीं रखते, रखते भी हैं तो असहिष्णु प्रवृत्तियों को एक
समाधान के रूप में देखते होंगे और जो हो रहा है उसको उचित मानकर जाहिर नहीं करना
चाहते हों। कई तो ऐसे भी होंगे जो इस बलाय में पडऩा ही नहीं चाहते। इसीलिए इस
आलेख का शीर्षक मुक्तिबोध के हवाले से लगाया गया ।
15 अक्टूबर, 2015
5 comments:
उम्मीद के मुताबिक आपका साहसिक संपादकीय
उम्मीद के मुताबिक आपका साहसिक संपादकीय
उम्मीद के मुताबिक आपका साहसिक संपादकीय
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सहमत | छोटा-स्वार्थपूर्ण कुछ भी कहिये प्रायश्चित तो है |
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