Wednesday, October 7, 2015

पीबीएम के बहाने आज कुछ घाइ-घुती

सूबे की इस सरकार के स्वास्थ्य मंत्री राजेन्द्र राठौड़ पीबीएम अस्पताल की सर्जरी करने की जरूरत डेढ़ वर्ष पूर्व भले ही बता गये हों लेकिन सर्जरी का समय उन्होंने अभी तक संभवत: इसलिए तय नहीं किया कि उसे न करने की फीस उनके पास पहुंच गई होगी। इसके ठीक उलट पीबीएम के सर्जनों के लिए कहा जाता है कि ऑपरेशन की तारीख ये तभी देते हैं जब इनके घर फीस पहुंच जाए। यानी यह फीस भी कभी काम करने की होती है तो कभी न करने की। वैसे हल्लर-फलरियों से यह तक सुना है कि बीकानेर के एसपी मेडिकल कॉलेज का प्रिंसिपल बनने की फीस अभी दो करोड़ है। कभी पीबीएम के अधीक्षक बनने की भी फीस अच्छी-खासी हुआ करती थी, लेकिन जब से माथा-फोड़ी ज्यादा होने लगी और डॉक्टरों को लगने लगा कि भले यह ऊपर की कमाई का अच्छा पद हो लेकिन 'नींद बेच कर ओजकौ मोल लेणे से कम भी नहीं'। दूसरा, ऊपर की कमाई तब ही भोगेंगे ना जब स्वस्थ रहेंगे, तनाव में बीमार रहने लगे तो उलटे इलाज के लिए ही फीस न देनी पड़ जाय। कुछ बनने के लिए और किसी को न बनने देने की अपनी आदत से मजबूर पीबीएम के एक पूर्व अधीक्षक और कॉलेज के पूर्व प्राचार्य के बारे में पिछली सरकार के समय सुना गया कि उन्होंने पांच करोड़ अटैची में इसलिए रख छोड़े थे कि उन्हें राज्यपाल बना दिया जाए।
आज पीबीएम का यह कौथीणा फिर इसलिए काढ़ लिया कि कल यहां फिर बदमजगी हो गई, वह भी एक पत्रकार-परिजन के साथ। जो कुछ हुआ, अलबत्ता दोनों तरफ से कुछ जोड़-घटाकर बताया गया। वह आज के अखबारों में अलग-अलग रंग-ढंग से आ ही गया है। अपने-अपने विवेकानुसार अनुचित हटाए को जोड़कर व अनुचित जोड़े को घटा कर पढ़ा-मान लिया जाना चाहिए। लेकिन इस बार पुलिस जो बिना वजह बीच में आ पड़ी, वह माजरा समझ से परे का है। अब तक तो पुलिस वाले घटना होने तक पहुंचते नहीं, टाइमिंग की गलत समझ से समय पर पहुंच भी जाते हैं तो डाफाचूक की मुद्रा में तब तक साक्षी बने रहते हैं जब तक कि उस होम में हाथ जलने की गुंजाइश खत्म नहीं हो जाए। हमारे पत्रकार बन्धू भी इन दिनों एके-के साथ सक्रिय हैं और आन पर आंच आते ही अतिरिक्त चेतन हो लेते हैं।
वैसे अस्पताल वाले कारकुन इतनी चतुराई तो बरतते रहे हैं और नेताओं, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों से बिना ऊपरी फीस लिए तवज्जो यह मानकर देते रहे हैं कि ये लोग आधुनिक व्यवस्था के पितर-भोमिये हैं, इन्हें राजी रखने पर ही वे अपनी कारगुजारियों को निर्बाध जारी रख सकेंगे। इसका प्रमाण इससे अधिक क्या हो सकता है कि पीबीएम अस्पताल उस गत को हासिल हो गया जिसमें सामान्यत: बीमार और उसके परिजन की कोई सुनवाई ही नहीं है। यह गिरावट अचानक नहीं आयी। इसमें बरसों लगे हैं और इस सबको होने देने के लिए राजनेता, राजनीतिक कार्यकर्ता और पत्रकारोंसभी ने अनदेखी की मुद्रा अपना ली। कभी कुछ करते भी हैं या छापते हैं तो ठीक सर्कस के उस मास्टर की तरह जो शेर-बघेरों को बिना छुआए ही आवाज करने वाला हंटर बजाते हैं ताकि डॉक्टर और अस्पताल के अन्य कारकुनों को उनकी हैसियत का भान रहे।
रही बात अवाम की तो पीबीएम और मेडिकल कॉलेज हांकने वाले गत 27 जुलाई को आम जनता के मुंह में अंगुली फेर कर अच्छी तरह आश्वस्त हो लिए हैं कि दांत एक भी नहीं है। पीबीएम की व्यवस्था संबंधी उस जागरूक अभियान के अगुआ अभिनव नागरिकों को नेतृत्व देने वालों के बारे कैसी भी धारणाएं प्रचारित करवाई गई हों, जो मुद्दा उन्होंने उठाया और मुकाम तक पहुंचाने से पहले डॉक्टरों और अन्यों में जो भय जगाया उसे आम जनता 27 जुलाई को हथिया लेती तो पीबीएम का काफी ढंगढाळा सुधर जाता। आम जनता ने इस अभियान को कोई खास भाव नहीं दिया और जिस जोश से ज्वार आया उससे उलट भाटे के साथ ही वह तिरोहित हो लिया।
सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों की अगुवाई हमेशा सामथ्र्यवानों ने की और उससे लाभान्वित पूरा समाज होता आया। लेकिन अब वैसा भाव सिरे से गायब है। सामथ्र्यवान अपना काम ले-देकर निकालने लगे और नीचे के सामाजिक तबके को पूरी तरह भुगतने को छोड़ दिया गया है। ऐसी भावना के बाद मानवीय उम्मीदें करना समर्थों को असहज-सा लगने लगा है। कहा जा सकता है कि हमारा यह दौर अमानवीय होने को तत्पर है। रही बात कल की घटना की तो इससे पहले हुई ऐसी अनेक घटनाओं की तरह जांच के नाम पर बिना पछाड़े उसे कैसे धोया जाएगा, उसकी कथा कोई कभी लिखे तो उत्सुकता से पढऩे लायक होगी। क्योंकि ऐसी घटनाओं पर आरोप-प्रत्यारोपों के बाद जो होता है उसमें आम-आदमी की जरूरतों का नहीं, अपने ही स्वार्थों को पोसने और अपने अहम् को बनाए रखना ही मुख्य ध्येय होता है।

8 अक्टूबर, 2015

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