इस बीच 2 फरवरी 1943 ई. को महाराजा गंगासिंह का देहान्त मुम्बई में हो गया। जेल में इसकी सूचना उसी दिन कैदियों को मिल गयी। काल कोठरी में बन्द दाऊदयाल आचार्य ने लिखा कि 'इतने नामी नरेश के स्वर्गवास की खबर से जेल के बाहर मातम छाया होगा, पर सच्चाई यह है कि मैंने इसको खुशखबरी माना और शान्त होकर अपनी सीट पर लेट गया।'
बारह दिन के क्रियाकर्म सम्पन्न कर पुत्र सादुलसिंह ने 13 फरवरी, 1943 ई. को राजकाज संभाला। महाराजा सादुलसिंह इससे पूर्व राजकाज के अनुभव और पिता से असहमतियों के दौर-दोनों से गुजर चुके थे। 1902 ई. में जन्में सादुलसिंह जब वयस्क हुए तो 8 सितम्बर, 1920 ई. में गंगासिंह ने बड़ी उम्मीदों से रियासत के प्रधानमंत्री जैसी महती जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी थी। राजकाज के अपने तौर-तरीकों और पिता को नाराज करने वाले फैसले देकर सादुलसिंह अपने पिता से लगातार दूर होते गये। नौबत यह आयी कि पांच वर्ष में ही 'शासन की ट्रेनिंग पर्याप्त रूप से सम्पन्न हो चुकी है', आदेश में लिख कर उन्हें सादुलसिंह को प्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया।
प्रधानमंत्री पद छीने जाने से लेकर पिता की मृत्यु के बाद 13 फरवरी, 1943 ई. को पूर्णतया शासन संभालने तक के 17-18 वर्ष में पिता-पुत्र में संवाद तो दूर की बात, एक शहर में कभी साथ रहे तक नहीं। कभी पहला बम्बई तो दूसरा बीकानेर, पहला बम्बई तो दूसरा दिल्ली।
ऐसी स्थितियों के बावजूद उत्तराधिकारी अकेले सादुलसिंह ही थे। शासन संभालते ही सादुलसिंह की प्राथमिकता में जेल में बंद प्रजा परिषद् के नेताओं और सदस्यों का मसला था, इससे जाहिर होता है कि वे गत 15 वर्षों में राज की और राजकाज की जानकारी रखते रहे थे।
13 फरवरी, 1943 ई. को शासन संभाला। 14 को छुट्टी थी। 15 को मन्दिर-देवरे धोकने में लगे रहे। 16 फरवरी को सुबह ही जेल मिनिस्टर जसवंतसिंह को आजादी के दीवानों से बात करने जेल भेज दिया। सुपरिंटेन्डेंट कार्यालय में रघुवरदयाल गोईल, गंगादास कौशिक और दाऊदयाल आचार्य को काल-कोठरियों से बुलवा लिया। लम्बी वार्ता चली। नये महाराजा की उदारता की मिसालें देकर माफीनामे लिखवाने की भरसक कोशिशें हुईं। वार्ता टूटने को होती तो जसवंतसिंह किसी तरह से फिर जोड़ते—जैसे वे यह तय करके आए थे कि सकारात्मक परिणाम लेकर ही जाऊंगा। अंत में दबाव काम कर गया। 'मानव भूलों से भरा हुआ है। विपक्ष की तरह हम से भी भूलें हुई होंगी, अगर हमसे कोई भूल हुई हो तो उसके लिए हम बेझिझक खेद प्रकट करते हैं। भविष्य में जिस मार्ग को अन्नदाताजी अनुचित समझेंगे, हमारे लिए वह मार्ग अनुकरणीय नहीं होगा।' इस लिखे पर तीनों—गोईल, कौशिक और आचार्य ने हस्ताक्षर कर दिये।
हस्ताक्षर करने के बाद की उनकी ऊहापोह से लगा कि उक्त मजमून पर हस्ताक्षर करने से पूर्व 24 घंटे का समय मांगते और जेलमंत्री को दूसरे दिन आने का कहते तो ये तीनों हस्ताक्षर करने को तैयार नहीं होते। यह पूरा प्रकरण जेलमंत्री जसवंतसिंह की सफलता थी।
जेल से जाते हुए जसवंतसिंह यह भी कह गये कि शाम को आपकी मुलाकात महाराजा से तय है। जेल सुपरिंटेन्डेंट ने भी तीनों को एक कालकोठरी में रहने की इजाजत दे दी। शाम को जेल तक गाड़ी आयी, जिससे तीनों को लालगढ़ पैलेस ले जाया गया। तीनों को अनुमान था कि उनकी महाराजा से निजी बातचीत होगी, जिसमें वे अपनी बात खुलकर रख सकेंगे। लेकिन वहां तो पूरा दरबार सजा हुआ था, जिसमें उन्हें एक तरफ खड़ा कर दिया गया। दृश्य ऐसा बना कि तीनों सेनानियों द्वारा दरबार के प्रोटोकॉल फोलो ना करने पर महाराजा असहज हुए, वहीं दरबार में मनोनुकूल माहौल न मिलने पर तीनों सेनानी, सबसे आगे गोईल फिर कौशिक और अंत में आचार्य खड़े थे। वहां से तीनों के विदा होने पर महाराजा ने इतना ही कहा, 'वेट एण्ड सी'। इसके बाद वे तीनों उसी गाड़ी से रवाना हो गए जिससे आए थे। गाड़ी जेल की तरफ न जाकर एक-एक को घर छोडऩे लगी। तीनों का इस तरह अचानक घर पर आ जाना घर वालों के लिए भी अप्रत्याशित था।
महाराजा का 'वेट एण्ड सी' तीनों के लिए असमंजस था। तीनों आपस में और अन्य साथियों से मिलते तो 'वेट एण्ड सी' में खो जाते। सप्ताहभर बाद 23 फरवरी, 1943 ई. को गोईल ने समय लिया और महाराजा के पास पहुंच गये। लम्बी बातचीत में महाराजा ने कुछ भी निकाल कर नहीं दिया। यही सुनने को मिला कि मैंने शासन अभी संभाला है, देखूंगा, विधान में भी परिवर्तन करवाने होंगे, ऊपर से अंग्रेज शासन की मंशा जाननी होगी।
यही सब सुन गोईल लौट आये। लम्बे समय तक निष्क्रियता में इंतजार करते रहे। शासन 'वेट एण्ड सी' मोड से बाहर नहीं आया। प्रजा परिषद् रचनात्मक कामों यथा खादी, अछूतोद्धार और शिक्षा प्रसार आदि के माध्यम से धीरे-धीरे सक्रिय होने लगी।
इसी बीच 8 मार्च, 1943 ई. को खरीता समारोह भी हो लिया। मतलब राजा को ब्रिटिश क्राउन की मान्यता का फरमान रेजिडेंट द्वारा दरबार में पढ़ा जाना। 24 फरवरी, 1943 ई. के देश के नामी अखबार 'दैनिक विश्वामित्र' में गंगादास कौशिक का सादुलसिंह के शासन संभालने के बाद की घटनाओं के उल्लेख के साथ लेख भी छप गया, जिसमें बताया गया कि तीनों—गोईल, कौशिक और आचार्य ने क्षमा नहीं मांगी। यह जरूरी इसलिए हो गया क्योंकि राज की तरफ से यह चलाया गया कि तीनों माफी मांगकर छूटे हैं। उक्त लेख को शासन ने आपत्तिजनक माना। बावजूद इन सबके गोईल की ख्याति चौफेर हो गयी। बाहर से न्योते आने लगे। शेखावाटी के लक्ष्मणगढ़ में आयोजित दो दिवसीय राजनीतिक सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए गोईल को बुलाया गया। क्रमश:
—दीपचंद सांखला
14 जुलाई, 2022
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