Thursday, December 3, 2020

किसान उद्वेलित क्यों?

 मोदी के नेतृत्व में नाममात्र की राजग सरकार जब से आयी है, संसदीय गरिमा के ह्रास की गति तेज हो गई। 2014 में मोदी प्रधानीमंत्री बनकर जब संसद पहुंचे तो संसद भवन की सीढिय़ों को नमन किया। जागरूक नागरिकों ने तब संसदीय गरिमा पर आशंका की बात ठीक उसी तरह की थी जिस तरह 2019 में मोदीजी के द्वारा संविधान पर शीश नवाने पर जताई थी। मोदीजी के इस कार्यकाल में संविधान की धज्जियां लगातार उड़ाई जा रही हैं। फिर वह चाहे अनुच्छेद 370 की खुर्दबुर्दगी हो या जम्मू-कश्मीर को 35 से महरूम करना हो। इस कोरोना काल में श्रमिक और किसान विरोधी अध्यादेशों को संसद में जिस तरह पारित करवाया, वह अपने आप में नकारात्मक उदाहरण है।

श्रमिकों, खासकर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की सुनवाई जहां संप्रग सरकार के समय से कमजोर होती गयी, वहीं मोदी सरकार द्वारा लाए गये नये कानूनों के बाद तो उनकी सुनवाई लगभग खत्म हो गयी। असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का कोई प्रभावी संगठन कभी बन ही नहीं पाया। ना कभी वे ऐसी स्थिति में रहे कि कभी साथ बैठ कर अपने हितों को सुरक्षित रखने की बात कर सकें। लेकिन किसानों की स्थितियां सभी राज्यों में ऐसी नहीं है। जहां-जहां उनकी स्थिति ठीक-ठाक है, वहां उनके ना केवल संगठन हैं बल्कि समय-समय पर उन्होंने अपनी ताकत भी दिखाई है। भू-अधिग्रहण अध्यादेश को वापस करवाना किसानों की बड़ी सफलता माना जाता है। मोदी सरकार और कॉरपोरेट ने संभवत भू-अधिग्रहण अध्यादेश के हश्र के समय ही ठान लिया था कि किसानों की यह अकड़ कैसे तोडऩी है। इसके लिए कोरोना काल से बेहतर अवसर और क्या हो सकता था। राज्य सभा के उपसभापति और पूर्व पत्रकार हरिवंश उर्फ हरिवंशसिंह ने अपनी पिछली पूरी पुण्याई दावं पर लगाकर कृषि संबंधी विधेयकों को जिस तरह पारित करवाया, वह हरिवंश पर कलंक से कम नहीं है।

खैर! कृषि संबंधी तीन विधेयकों पर संक्षिप्त में नजर डालकर किसानों की आशंकाएं और सरकार और भाजपा की सफाई पर बात कर लेते हैं। इन तीन विधेयकों द्वारा क्रमश: मण्डी व्यवस्था खत्म करना, आवश्यक वस्तु अधिनियम को समाप्त करना और अनुबंध पर खेती करवाने की छूट देना शामिल हैं।

जिन प्रदेशों में मण्डी व्यवस्था सुदृढ़ है वहां के किसानों का मानना है कि मण्डी व्यवस्था खत्म करके खुले बाजार में छोडऩा हमारे लिए कंगाली का पैगाम है। मण्डी व्यवस्था में किसानों को कई तरह की सुविधाएं और सुरक्षा है। आढ़ती खेती के लिए आधी रात को पैसा उपलब्ध करवा देते हैं, उपज की दरें ठीक-ठीक मिल जाती है। किसानों को लगता है कि अगर कॉरपोरेट इस बीच गये-आएंगे ही, अध्यादेश उन्हीं के लाभ के लिए लाया गया है। कोरपोरेट वही करेंगे जो जीयो ने किया। जीयो ने पहले फ्री सेवा दी, फिर कम टेरिफ में। जैसे ही पर्याप्त कंजूमर पोर्ट करके गये, वह अपनी मर्जी की दरें लेने लगा। ठीक इसी तरह कोरपोरेट सुविधाएं और जो दरें शुरू में देंगे, उससे आढ़तियों की कमर टूट जानी है। जैसे ही आढ़तिये खत्म होंगे-कॉरपोरेट अपनी पर ठीक वैसे ही जाने हैंजैसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारतीय उत्पादन और व्यापार को खत्म करने पर गये थे। अध्यादेश में बहुत चालाकी से यह प्रावधान भी कर दिया गया है कि वह अपनी शिकायत लेकर न्यायालय के पास भी नहीं जा सकते। विवाद की स्थिति में किसान की पहुंच एसडीएम और ज्यादा से ज्यादा डीएम (जिला कलक्टर) तक कर दी गई है। 

इसी तरह आवश्यक वस्तु अधिनियम को समाप्त करना किसान और उसके उपभोग्ता दोनों के लिए मारक साबित होगा। गोदाम और रकम की खुली छूट वाले कोरपोरेट को इस कानून से खरीद और बिक्री की दरें लूट के स्तर तक ले जाने की खुली छूट दे दी गयी है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम एस पी) के बिना उल्लेख के इन अध्यादेशों में इसकी पूरी गुंजाइश है। प्रधानमंत्री चाहे ये कहते रहें कि एम एस पी चालू रहेगी-अगर वे सच भी बोल रहे हैं तो उनका रिकॉर्ड देखते हुए सच की गुंजाइश ना के बराबर हैप्रधानमंत्री सच्चे होते तो अध्यादेश में एम एस पी का उल्लेख करवाते।

तीसरे विधेयक के द्वारा ठीक ईस्ट इंडिया कम्पनी की तर्ज पर कॉन्ट्रेट खेती की छूट दी गई है। कमजोर होते किसान से कोरपोरेट अनुबंध पर कृषि भूमि लेंगे-जमीन के मालिक से अपनी शर्तों पर मजदूरी करवाएंगे और कोरपोरेट से विवाद होने पर खेतिहर मजदूर बन चुका वह गरीब कलक्टर से ऊपर जा ही नहीं सकेगा।

इसी तरह की आशंकाओं से घिरे किसान आन्दोलनरत हैं। भाजपा का कहना है कि इन अध्यादेशों पर पंजाब और हरियाणा के किसानों को ही शिकायत क्यों। इसका उत्तर यह है कि देश में सबसे सुदृढ़ कृषि मंडी व्यवस्था पंजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान में ही है। इसी वजह से यहां के किसान कुछ समृद्ध भी हैं, और समृद्ध हैं तो अपना बुरा-भला सोचने का सामथ्र्य भी उनमें है। उत्तरप्रदेश की मुख्य उपज गन्ना मण्डी व्यवस्था से बाहर है, शेष उपज के लिए भी उत्तरप्रदेश में मण्डी व्यवस्था उतनी अच्छी नहीं है, जितनी पंजाब, हरियाणा की है। इसी तरह बिहार में 2006 में मण्डी व्यवस्था खत्म कर दी गयी, छोटी जोतों के चलते जैसी भी मण्डी व्यवस्था थी, उसे सुदृढ़ करने की कोशिश पूर्व की सरकारों ने की नहीं। मण्डी व्यवस्था खत्म करने पर कोढ़ में खाज यह हुई कि उन्हें अब उपज का पूरा दाम भी नहीं मिलता, इसी की वजह से बिहार में बेरोजगारी बढ़ी। परिणाम स्वरूप बिहारी मजदूर काम की तलाश में पूरे देश में घूमते दिख जाएंगे। और यह भी कि बिहार और उत्तरप्रदेश के किसान अपनी उपज लेकर हरियाणा, पंजाब की मंडियों तक बेचने आते रहे हैं। ऐसे में मोदी सरकार का यह दावा कि नयी व्यवस्था में किसान अपनी उपज कहीं भी बेच सकेंगे-तो उस पर पहले से ही रोक कहां है।

मध्यप्रदेश में भी कमोबेश उत्तरप्रदेश वाली ही स्थिति है। जिस तरह उत्तरप्रदेश के किसान पंजाब-हरियाणा के किसानों के कंधे से कंधा मिलाने के लिए आन्दोलन में शरीक हुए, उसी तरह 3 दिसम्बर से मध्यप्रदेश और 5 दिसम्बर से महाराष्ट्र के किसान भी आन्दोलन में शामिल हो रहे हैं। राजस्थान और गुजरात के किसानों का प्रतिनिध्त्वि भी इस आंदोलन में हो रहा है। इसी तरह कर्नाटक के किसान भी तीनों अध्यादेशों के विरोध में इसी सप्ताह अपनी विधानसभा को घेरने वाले हैं। 

देश भर के किसानों में जहां सामथ्र्य की कमी है वहीं अपने हकों को लेकर जागरूकता भी नहीं है। यही वजह है कि देश में प्रति 24 घंटों में 45 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसे में मोदी सरकार द्वारा कोरपोरेट्स के हित में लाये इन अध्यादेश के परिणाम कितने भयावह होंगे, सोचकर ही रूह कांपने लगती है। बेहतर यही है कि भू-अधिग्रहण अध्यादेश की तरह तीनों कृषि अध्यादेशों को सरकार वापस ले और मण्डी व्यवस्था की चेन को सुदृढ़ करे और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम एस पी) में पूरी उपज खरीदने की व्यवस्था बनाये। इसमें किसानों को यह सलाह जरूर दी जा सकती है कि क्षेत्रवार क्या उपज लेनी है-यदि वह सलाह से उपज नहीं लेता है तो एम एस पी पर खरीदे जाने की गारण्टी चाहे ना दें।

दीपचन्द सांखला

3 दिसम्बर, 2020


No comments: