Thursday, October 15, 2020

वर्तमान मीडिया : बाड़ खेत ने खाय

 थार रेगिस्तान में एक कहावत प्रचलित है ‘बाड़ खेत ने खाय’। हमारे इधर बारानी खेती में जानवरों से खेत की रक्षा के लिए बोरटी की सूखी कंटीली झाड़ियां चारों ओर लगा दी जाती हैं। रेगिस्तान के बेर को हम बोरिया और उसके पेड़ को बोरटी कहते हैं। पेड़ बनने से पूर्व ही झाड़ियों को काट कर सुखा लिया जाता है। इन झाड़ियों से खेत के चारों तरफ लगाई गयी आड़ को बाड़ कहा जाता है।

इसी तरह पत्रकारिता को लोकतंत्र को सुरक्षित रखने वाली बाड़ कह सकते हैं। भारत में पत्रकारिता का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, बामुश्किल दो सौ वर्षों के अपने इतिहास में पत्रकारिता वहीं पनपी जहां सीधे अंग्रेजी शासन था। खुद अंग्रेज शासकों ने गजट के रूप में अपने बुलेटिन निकालने शुरू किये। वहीं उनकी देखा-देखी में कुछ नवाब और राजा भी गजट निकाल कर अपनी प्रशस्ति पढ़ी-लिखी जनता तक पहुंचाने लगे। जहां ब्रिटिश हुकूमत थी वहां जनता की नुमाइन्दगी के तौर पर निजी क्षेत्र में भी अखबार शुरू होने लगे थे। लेकिन राजा-नवाबों के जहां राज थे, बावजूद ब्रिटिश क्राउन के अधीन इन रियासतों में अखबार निकालने की ऐसी छूट के उदाहरण नहीं मिलते। यह अन्तर इसलिए था कि खुद इंगलैण्ड में गणतंत्र चाहे ना हो, लोकतंत्र था और उसकी कोशिश रहती थी एक लोकतांत्रिक देश के तौर उसकी साख सब से अच्छी हो। यही वजह थी कि ना केवल वहां की संसद की समृद्ध लोकतांत्रिक परम्परा की बल्कि वहां के स्वतंत्र अखबारों की भी अपनी पैठ थी। वे शासन प्रशासन की आलोचना में कोई कमी नहीं छोड़ते। इस का असर यह हुआ कि ब्रिटिश संसद और ब्रिटिश अखबारों के संभावित दबाव में अंग्रेजों को अपने उपनिवेशों में भी अखबारों को लगभग वैसी छूट देनी पड़ी जैसी ब्रिटेन में दी जाती रही थी। देशी रियासतों और अंग्रेज शासित इलाकों का यह अन्तर बताने का मकसद यह बताना है कि मीडिया की गुंजाइश लोकतांत्रिक मूल्यों के दबाव के बिना संभव नहीं है।

दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ अपनी लड़ाई में महात्मा गांधी ने ‘इंडियन ओपिनियन’ नाम के अपने अखबार को अंग्रेजों के खिलाफ अस्त्र के तौर पर आजमाया वहीं भारत में बाल गंगाधर तिलक ने ‘केशरी’ नाम के अखबार से भारत में अंग्रेजी शासन के खिलाफ सामाजिक
जागरूकता पैदा की। भारत लौटने और आजादी की लड़ाई के नेतृत्व के दौरान गांधी ने ‘नवजीवन’, ‘यंग इंडिया’, ‘हरिजन’ नामक अखबारों को अपने अहिंसक आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण जरीया बनाया। भारत में नवाबी और रजवाड़ी रियासतों में अखबारों की ऐसी छूट तो दूर की बात बल्कि तिलक-गांधी और ऐसे ही अन्य अखबारों के प्रवेश तक की छूट नहीं थी, जब कि ये सभी नवाब और राज महाराजे ब्रिटिश क्राउन के अधीन थे।  सीधे अंगे्रजी शासन वाले इलाकों में तिलक और गांधी के अखबारों के अलावा भी अनेक अखबारों का इतिहास है और यह भी कि इन अखबारों में राजा-नवाबी वाली रियासतों में जनता पर होने वाले अत्याचारों-अनीतियों की खबरें पहुंचने पर प्रकाशित होती थीं।

कहने का भाव यही है कि अखबार के लिए अनुकूलता के लिए जैसे-तैसे भी लोकतांत्रिक मूल्यों वाले शासन का होना जरूरी है। ब्रिटेन के तब के अखबार भी अपनी स्वतंत्रता का पूरा उपयोग करते हुए ना केवल अपने शासन की आलोचना जमकर करते थे बल्कि उपनिवेशों में अपने संवाददाताओं के माध्यम से वहां के हालात को प्रकाशित किये बिना नहीं रहते। अखबारों की इस आलोचना को अंग्रेज शासक लोकतांत्रिक परम्पराओं को मजबूती देने वाली मानते थे। इसीलिए लोकतंत्र और मीडिया को हम एक दूसरे का सिद्ध और साधक मान सकते हैं।

भारत की बहुदलीय लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली में राजनीति की सभी धाराओं को बराबर का स्थान मिला है। इसी के मद्देनजर मीडिया का निष्पक्ष होना उसका नैतिक दायित्व  माना गया है। यहां हमें तटस्थ होने और निष्पक्ष होने का अन्तर समझ लेना चाहिए। तटस्थ होना उदासीन होना है जबकि निष्पक्ष होना किसी राजनीतिक पार्टी का पक्षधर या विरोधी होना नहीं है बल्कि कोई दल या उसकी सत्ता लोकतांत्रिक मूल्यों पर और संवैधानिक कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो उसे टोकना और जनता को आगाह करना मीडिया का धर्म है।

आजाद भारत के संदर्भ में बात करें तो आजादी बाद यहां अखबारों को पूर्ण स्वतंत्रता थी। सरकारी नीतियों और शासन-प्रशासन की जमकर आलोचना होती थी। आजाद भारत के नेता भी यह मानते थे कि स्वच्छ अखबारी आलोचना लोकतंत्र में मार्गदर्शन का काम करती है। लोकतंत्र की कसौटी जैसे संविधान को माना गया है वैसे ही संविधान का उद्देश्य सभी तरह के धर्मावलंबियों के सबसे निचले तबके का उत्थान माना गया है। लोकतांत्रिक सरकार इन उद्देश्यों के लिए सचेष्ट है या नहीं, इस की निगरानी का काम अखबारों का, मीडिया का है। मीडिया निगहबानी के अपने इस कर्तव्य से च्युत होता है तो अपने धर्म को भ्रष्ट कर रहा होता है। पिछली सदी के आठवें दशक में जब आपातकाल में मीडिया पर आजादी बाद पहली बार संकट आया तब सेंसरशिप के बावजूद मीडिया का बड़ा हिस्सा धर्म से च्युत नहीं हुआ, सरकार की आलोचना चाहे वह ना छाप सकता हो, लेकिन उसने ठकुरसुहाती से भी अपने को बचा कर रखा। जो अखबार इससे नहीं बचे, उन्होंने अपना आपा दिया और आपातकाल बाद आलोचना के शिकार भी हुए।

आपातकाल बाद भारत के मीडिया के सामने बड़ी चुनौती बन कर आयी 1990 के बाद। 90 के दशक में तीन बड़ी घटनाएं ऐसी हुई जिसने मीडिया के चेहरे और चरित्र दोनों को बदल कर रख दिया। पहली घटना निजी क्षेत्र में टेलीविजन प्रसारण की छूट, दूसरी भारत का विश्व व्यापार संधि में शामिल होकर खुली बाजार व्यवस्था स्वीकारना और तीसरी बाबरी मस्जिद का विध्वंस। टेलीविजन का निजी क्षेत्र में आना हम लोकतंत्र में जितना सकारात्मक मानते थे, वैसी आशाओं पर मीडिया खरा नहीं उतरा। बड़े पूंजी निवेश की जरूरत की वजह से टेलीविजन कोरपोरेट घरानों के अधीन होता गया। कोरपोरेट कुसंस्कृति अधिकतम लाभ और व्यापार पर एकाधिकार के लिए काम करती है, और इसके लिए वह कितनी भी निचाई तक उतर सकती है। उसे ना संविधान की भावना से लेना-देना होता है और ना ही लोकतांत्रिक मूल्यों से। टेलीविजन में निजी क्षेत्र को छूट, खुले बाजार की व्यवस्था और बाबरी विध्वंस के बाद सांप्रदायिकता के उफान-इन तीनों ने मिलकर देश के संवैधानिक ताने-बाने को कमजोर करना शुरू कर दिया। अटलबिहारी वाजपेयी के बाद दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी कुछ समय के कमजोर नेतृत्व के उपरान्त 1990 के उक्त तीनों बदलावों से मिली अनुकूलता में मजबूत होते नरेन्द्र मोदी के लिए मीडिया का नया बना चेहरा और चरित्र बहुत सहायक सिद्ध हुए।

2014 में मोदी के सत्ता पर काबिज होने से पूर्व तक तो मीडिया-कोरपोरेट और साम्प्रदायिकता का त्रिशंकु बर्दाश्त हो गया लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मीडिया जिस तरह की वर्तमान भूमिका में है, वह उसके मूलचरित्र के बिलकुल खिलाफ है। मीडिया यह भूल गया है कि वह लोकतंत्र के मुख्य पोषकों में है। इसी वजह से लोकतंत्र के तीन में से दो संवैधानिक पाये-व्यवस्थापिका (संसद) और न्यायपालिका दो व्यक्तियों में केंद्रित हो चुके तीसरे पाये कार्यपालिका के सामने बेबस दिखने लगे। बिना किसी संवैधानिक आधार के, केवल अपनी ड्यूटी-धर्म के चलते लोकतंत्र के चौथे पाये की प्रतिष्ठा पाया मीडिया इस दौरान पूरी तरह धर्मच्युत होता देखा गया। वह इसे भूल गया कि चौथे पाये की उसकी प्रतिष्ठा का कोई संवैधानिक आधार नहीं है कि वह इतने झंझावतों के बावजूद संविधान को पुन: प्रतिष्ठ करवा सकेगा। यह प्रतिष्ठा मीडिया को खुद अपने बूते पुन: हासिल करनी होगी, जिसकी अनुकूलता निकट भविष्य में नहीं दिख रही। वह यह भी भूल गया कि उसकी निगहबानी के बिना कमजोर होता लोकतंत्र कब तानाशाही में बदल जायेगा। मीडिया इससे भी अनभिज्ञ है कि लोकतंत्र नहीं रहेगा तो वह ताकत वालों का भोंपू मात्र बनकर रह जायेगा। इसीलिए मीडिया को लोकतंत्र की बाड़ कहा है और बाड़ यदि खुद खेत को खाने लगे तो उस खेत को बचायेगा कौन? खेत को बचाने का सामर्थ्य केवल उसके मालिकों (नागरिकों) में होता तो मीडिया की जरूरत ही क्यों होती?

दीपचन्द सांखला

15 अक्टूबर, 2020

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