Thursday, July 9, 2020

भारत में कोरोना संक्रमण : इम्यूनिटी बनाम कम्यूनिटी

कोविड-19 महामारी के भारत में पसरने पर लागू लॉकडाउन के पहले और दूसरे चरण के दौरान आमजन में मौत का जो भय व्यापा था वह भय संक्रमण बढऩे के बावजूद जाता रहा। गर्मियों में बढ़े तापमान की तसल्लियां चाहे काम ना आईं, लेकिन जैसी लापरवाह और कठोर जिन्दगी हम जीते हैं, उस जीवन-शैली ने कोरोना संक्रमण से चाहे हमें ना बचाया हो, कोरोना की मार से जरूर बचाया है। कोरोना संक्रमण से संबंधित दुनिया भर के आंकड़ों पर नजर डालें तो कोरोना हमारे यहां आया चाहे देर से ही हो पर अन्य अनेक देशों के मुकाबले संक्रमण की रफ्तार ज्यादा होने के बावजूद मृत्युदर हमारे यहां कम है। मेडिकल सुविधाओं की कमी के बावजूद कोरोना संक्रमितों के ठीक होने या जिसे हम संतोषजनक रिकवरी रेट कह सकते हैं, ऐसा होना आशा जगाने वाला है। वैसे संक्रमितों का आंकड़ा कम होने की एक वजह जांचों की धीमी रफ्तार भी है। कोविड-19 के सामुदायिक संक्रमण जैसे तीसरे चरण में जाचें व्यापक स्तर पर हों तो हो सकता है हर दूसरा-तीसरा भारतीय कोरोना पॉजिटिव मिले, संभव यह भी है कि अपनी इम्यूनिटी के चलते हम पॉजिटिव होकर कब नेगेटिव हो जाते हैं, खुद हमें ही पता नहीं चलता।
यहां उल्लेखनीय यह भी है कि बढ़ता संक्रमण और अच्छी रिकवरी रेट-दोनों की वजह हमारी लापरवाह और कठोर जीवन-शैली है, जिसे रफ-टफ जिन्दगी जीना भी कह सकते हैं। कमोबेश ऐसे ही आंकड़े भारत ही नहीं चीन को छोड़ अन्य दक्षिण एशियाई देशों में देख सकते हैं। अध्ययन किया जाय तो हो सकता है इस बात की भी पुष्टि हो कि खान-पान में जिस तरह के मसाले हम वापरते हैं, रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बनाये रखने में रफ-टफ जीवन-शैली के साथ उन मसालों की भूमिका भी बरामद हो। 
संक्रमण फैलने की वजह भी हमारी लापरवाही और कठोर जीवन-शैली कैसे है, इसे समझना जरूरी है। जैसे ही हमें समझ में आया कि कोरोना हमारा कुछ खास नहीं बिगाड़ रहा, हम लापरवाह होते गये, स्वास्थ्य विभाग की दिशा-निर्देशों को धता बताते गये। साबुन से बार-बार हाथ धोना, नाक और मुंह को कपड़े से ढके रखना, हर कहीं नहीं थूकना और एक-दूसरे से एक से दो मीटर की दूरी रखने जैसी जरूरी हिदायतों के प्रति सावचेत नहीं रहे, वहीं भीड़-भाड़ की बिना परवाह किए मिलना-जुलना, आवागमन, मौज-मस्ती और शोक-बैठकों के आयोजनों में पूर्वत: सम्मिलित होने लगे। यहां कठोर जीवन-शैली का उदाहरण देना भी जरूरी है, रोजगार की समस्या से जूझ रहे भारत जैसे विशाल देश के लोग रोजगार के लिए दूसरे प्रदेशों में और पात्रता और सुविधा होने पर विदेशों तक जाते रहे हैं। ऐसे में उस मानसिकता से भी कभी दो-चार होना लाजि़मी है जिसमें किसी बड़े संकट के समय व्यक्ति जैसे-तैसे अपने गांव-घर की ओर लौटना चाहता है। 25 मार्च, 2020 से अचानक हुए लॉकडाउन में जहां असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के रोजगार छिन गये, वहीं जमा पूंजी के खत्म होते चले जाने से कई तरह की असुरक्षाओं ने भी उन्हें घेरा। रेलवे-रोडवेज सहित सरकारी-निजी परिवहन पर रोक के बावजूद सब्र टूटने पर लोग हजारों किलोमीटर दूर अपने गांव-घर की ओर पैदल या और अनाधिकृत वाहनों से निकल पड़े। ऐसे में स्वास्थ्य-मानकों की धज्जियां उड़नी थी और संक्रमण फैलने की वजह भी। जिस रफ-टफ जिन्दगी के चलते हम संक्रमित हो रहे हैं, उसी रफ-टफ जीवन-शैली के कारण हासिल मजबूत रोग प्रतिरोधक क्षमता की बदौलत इस महामारी से संक्रमित होने के बावजूद बिना दवा विशेष के स्वस्थ भी हो लेते हैं। पॉजिटिव होकर नेगेटिव होने की प्रक्रिया से इसे हम अच्छे से समझ सकते हैं।
इस महामारी से मृत्यु को हासिल होने वाले अधिकांश संक्रमितों के बारे में जानें तो मालूम होगा कि जिनको भी कोई पुरानी बीमारी थी, जैसे मधुमेह है या हृदय, किडनी, लीवर संबंधी रोग है, कैंसर है, दमा इत्यादिपुराने रोगों को झेलते-झेलते ऐसों के शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता ऐसी रही ही नहीं कि इस नये संक्रमण का वह मुकाबला कर सके। मृत्यु के मामले ज्यादातर ऐसे ही हैं।
जैसा कि लग रहा है, जब तक कोविड-19 का टीका नहीं बनता है या कोई दवा नहीं बनती है तब तक हमें सावचेती रख कर ही इसका मुकाबला करना होगा। टीका बनने में एक से डेढ वर्ष भी लग सकता है। इसलिए फिलहाल बचाव ही उपाय है। ऐसे में जरूरी है कि ना भीड़-भाड़ होने दें, ना ही किसी ऐसे आयोजन को होने दें, जहां लोग-बाग एक-दूसरे से पर्याप्त दूरी बनाये ना रख सकें। अनावश्यक घरों से ना निकलें, निकलें तो नाक और मुंह अच्छे से ढके हो क्योंकि कोरोना वायरस के लिए अनुकूल ठिकाना गला और फेफड़े हैं, जिनका सीधा संबंध नाक और मुंह से है, खांसेंगे-छींकेंगे तो वह लार-थूक या स्त्राव की बूंदों के साथ नाक-मुंह-आंखों के माध्यम से दूसरे के शरीर में पहुंचने में देर नहीं करता। घर लौटते हैं तो बाहर से लाये समान को या तो सेनेटाइज करें या दो-तीन घंटे घर के बाहरी हिस्से में रखें ताकि कोरोना तब तक विदा हो ले। साबुन से हाथ अच्छे से धोंये। कहीं भी आने-जाने या किसी को बुलाने से बचें, खासकर उन परिवारों को जिनके घर का कोई सदस्य किसी पुरानी बीमारी से ग्रसित है। यहां यह भी ध्यान रखें कि कोरोना वायरस का मुख्य कुरियर तरलता है।

प्रकृति हर पीढ़ी को ऐसे अनुभव कराती है। 18वीं ईस्वी शताब्दी के अंत में संवत् 1956 में पड़े अकाल को 'छपने के काल' और सन् 1919 में आई महामारी स्पेनिश फ्लू को 'मरी' के नाम से भयावहता अपने दादा से हमने सुनी है। स्पेनिश फ्लू को हमारे यहां 'मरी' इसलिए भी कहा गया  कि एक का अन्तिम संस्कार करके लोग लौटते तो गांव में चार अन्य लाशें अंतिम संस्कार के लिए तैयार मिलती थींं। उम्मीद करते हैं वैसे भयावह अनुभव हमारी पीढ़ियों को ना हों। फिर भी अगली पीढ़ियों के बताने के लिए हमारी पीढ़ी के पास कोरोना काल की भयावहता तो होगी ही। यूरोपियन्स और अमेरिकन्स की उस पीढ़ी के पास तो बताने के लिए दो महायुद्धों की विभीषिका भी थी।
दीपचन्द सांखला
09 जुलाई, 2020

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