Thursday, January 9, 2020

आज बात अपनी पत्रकार बिरादरी से

बात आज अपनी पत्रकार बिरादरी के साथ है। आगे बढऩे से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि यह ना लोक कल्याणकारी नीतियों से पीछे हटती सरकार की पैरवी है और ना ही लालच में कर्तव्यच्युत होते सरकारी डॉक्टरों/कारकुनों की। स्वास्थ्य सेवा की बात करें तो लगभगत तीस आलेख मेरे ब्लॉग पर पड़े हैं, जिनमें पीबीएम अस्पताल और उसके बहाने स्वास्थ्य सेवाओं की ना केवल कमियों को उजागर किया गया है, बल्कि उन कमियों के मानवीय, प्रशासनिक और सरकार से संबंधित मूल कारणों और सुझाये समाधानों का विस्तार से उल्लेख है।
अभी इसकी जरूरत इसलिए पड़ी कि एक सप्ताह पूर्व कोटा में बच्चों के अस्पताल जेकेलोन के हवाले से एक खबर ब्रेक की गई, जिसमें बताया गया कि एक माह में वहां इलाज के लिए आए बच्चों में से 107 शिशुओं की मौत हो गई। ब्रेक करने वाले 'ले भागू' रिपोर्टर ने इसे ब्रेक करने से पूर्व ना मासिक आंकड़े देखे ना ही शिशु मृत्युदर के राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय आंकड़ों को देखने-समझने की जहमत उठाई। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि लोक-कल्याणकारी राज्य की कसौटी यही है कि वह स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे आमजन से जुड़े अपने कर्तव्यों के लक्ष्य को शत-प्रतिशत हासिल करने की ओर प्रयत्नशील रहे, ऐसा मैं मानता हूं। हॉस्पिटल में बच्चों के लिए बने टर्सरी सेन्टर में आने वाले शिशुओं की मृत्युदर को भारत में आजादी बाद से अभी तक कम करके 5 से 10 प्रतिशत के बीच ही लाया जा सका है। 5 से 10 प्रतिशत के इस आंकड़े को उल्लेखनीय मानने के बावजूद शाबासी लायक नहीं माना जा सकता। जिसने भी जन्म लिया है, स्वास्थ्य के आधार पर उसे जिन्दा रखने की गारन्टी शासन की है, अगर वह इसे हासिल करने में सफल है तो भी शाबासी किस बात की!
पत्रकारिता या कहें मीडिया जब से बाजार के हवाले हुआ है, तब से यह लगातार ना केवल कर्तव्यच्युत होता गया बल्कि आर्थिक और अन्य लालचों में धनाढ्यों और सरकार का मुखापेक्षी भी हो गया है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि अखबारों के आर्थिक हालात ठीक रहें यह जिम्मेदारी भी लोक कल्याणकारी शासन की मानी जाती रही है, इसीलिए मीडिया को विज्ञापन देकर सरकारें उन पर कोई अहसान नहीं करती। लेकिन वर्तमान दौर की सरकारें इसे भी अहसान मानने लगी हैं। बल्कि प्रतिकूल दीखते अखबार पर सरकारें ना केवल अनुचित दबाव बनाती है वरन् अनुकूल को कृतार्थ भी किया जाने लगा है। समाचार पत्र मालिकों के बढ़ते लालच के अलावा सरकारों के ऐसे रवैये ने भी अखबारों को जन भावनाओं और जन-जरूरतों से दूर किया है। अभी हाल ही में अशोक गहलोत जैसे सजग-संवेदनशील और चतुर राजनेता ने भी यह चूक की है। उन्होंने पत्रकारों के कार्यक्रम में धमकी देने का दुस्साहस तक कर लिया, उन्होंने यहां तक कह दिया कि सरकारी विज्ञापन लेने वालों की जिम्मेदारी है कि वे सरकार की खबरें भी छापें। 
अलावा इसके क्षेत्रवार संस्करण और बढ़ते न्यूज चैनलों ने पत्रकारों की जरूरत को बढ़ा दिया जिसके चलते पात्रताविहीन लोगों की इस पेशे में भरमार हो गई। ऐसे मीडियाकर्मियों ने सरकार, ब्यूरोक्रेट, अखबार मालिक और सम्पादकों को खुश रखने तक ही अपनी जिम्मेदारी को सीमित कर लिया। ऊपर से 'ब्रेकिंग' का दबाव इतना है कि वे बिना आगा-पीछा देखे-समझे खबरों को पेलने लगे हैं। आजकल के पत्रकार अपने मालिकों-संपादकों और नेताओं व ब्यूरोक्रेट के अलावा सरकारी कारकुनों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, धनाढ्य से मिलने वाली तवज्जुह को ही अपनी उपलब्धि मानने लगे हैं।
अपरोक्ष तौर पर इस तरह की उक्त सभी 'इल प्रैक्टिसेज' ने इस पत्रकारीय पेशे को 'अपवित्र' कर दिया है। पवित्र-अपवित्र के यहां मानी विश्वसनीयता और अविश्वसनीयता से है, उसे इसी अर्थ में लें। बल्कि ऐसी 'इल प्रैक्टिसेज' से दूरी बनाये रखने का विचार भी नई पीढ़ी में देखने को नहीं मिलता। इस नजरंदाजी के बुरे परिणाम आने शुरू हो गये हैं। जनता जहां अपनी आवाज का माध्यम खो रही है वहीं पत्रकार भी अपनी प्रतिष्ठा लगातार खो रहे हैं। छोटे-बड़े विभिन्न तरीकों से पत्रकारों को जो भी कृतार्थ करते हैं, उनके भी मन में पत्रकारीय पेशे के प्रति सम्मान अब दिखावटी मात्र रह गया है। जो ऐसा नहीं मानते हैं, वे कृतार्थ करने वाले अपने किसी आत्मीय को भरोसा देकर पूछ लें वह अपने पेशेवरों में पत्रकारों के लिए किस तरह की बात करते या राय रखते हैं।
लोकतंत्र के चौथे पाये की हैसियत पा गया मीडिया जनता के प्रति उत्तरदायी होने के अपने असल कर्तव्य से दूर होता है तो उसकी ना हैसियत बचेगी और ना ही असल सम्मान। बडेरे कह भी गये हैं कि अपना 'माजना' अपने पास ही होता है, उसे सहेज कर रखें या पाडऩे दें। इसका खयाल पत्रकारों को खुद रखना है।
—दीपचन्द सांखला
09 जनवरी, 2020

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