Thursday, November 21, 2019

बीकानेर : निगम चुनाव नतीजों के बहाने अर्जुन, कल्ला, भाटी की बात

स्थानीय राजनीति को समझना हो तो बजाय लोकसभा-विधानसभा चुनावों के, निकाय और पंचायत-जिला परिषद चुनावों से ज्यादा अच्छे से समझ सकते हैं। बीकानेर शहर की राजनीति को हाल ही में सम्पन्न नगर निकाय के चुनाव परिणामों से समझने की कोशिश करते हैं।
बीकानेर नगर निगम में तीन पार्षद कम होने के बावजूद भाजपा ने निर्दलीयों के सहयोग से बहुमत जुटा लिया है। इसलिए पहले पड़ताल भाजपा की ही कर लेते हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्ति लेकर मात्र 11 वर्ष पहले ही सक्रिय राजनीति में आये अर्जुनराम मेघवाल ने इन चुनावों के बाद क्षेत्र की भाजपा राजनीति में अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। पूर्व विधायक गोपाल जोशी की निष्क्रियता और कभी पार्टी में क्षेत्रीय वर्चस्वी रहे देवीसिंह भाटी के पार्टी छोडऩे के बाद फिलहाल उन्हें चुनौती देने की हैसियत वाला कोई दूसरा नेता नजर नहीं आ रहा। अर्जुनराम मेघवाल की बनी इस हैसियत से दूसरी पंक्ति के किसी नेता की राजनीति को खतरा हो सकता है तो वे हैं खाजूवाला के पूर्व विधायक डॉ. विश्वनाथ मेघवाल। डॉ. विश्वनाथ से अर्जुनराम की और अर्जुनराम से डॉ. विश्वनाथ की कभी अनुकूलता नहीं रही। इस बीच अर्जुनराम के पुत्र रविशेखर ने भी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है और उनकी नजर खाजूवाला सीट पर है। पिछला विधानसभा चुनाव हारना डॉ. विश्वनाथ के लिए बड़ी प्रतिकूलता साबित होगा। रविशेखर को खाजूवाला से 2023 के चुनाव में उम्मीदवारी नहीं भी मिली तो भी अर्जुनराम डॉ. विश्वनाथ की उम्मीदवारी में आड़े आयेंगे ही। दलित वर्ग से आए अर्जुनराम मेघवाल ने अपनी हैसियत के इस मुकाम को बड़ी जद्दोजहद से हासिल किया है।
अर्जुनराम के लिए पार्टी में बड़ी चुनौती रहे देवीसिंह भाटी अपनी राजनीतिक असफलताओं की परिणति के तौर पार्टी से बाहर हैं। यह नौबत खुद उनके कारण से कम और उनके सलाहकारों और नजदीकी लोगों की वजह से ज्यादा आयी है। संजीदगी और समझदारी की राजनीति करने वाले भाटी के पुत्र पूर्व सांसद महेन्द्रसिंह के देहान्त बाद से ही देवीसिंह भाटी की ना केवल राजनीतिक निर्णयों में बल्कि क्षेत्र पर भी पकड़ ढीली होती गयी। भाटी जिन सलाहकारों और तथाकथित अपनों से घिरे रहते हैं उनमें कोई एक भी शुभचिन्तक होते तो भाटी इस हश्र को हासिल नहीं होते। ये सबके-सब बजाय भाटी की साख को साधने के, अपने स्वार्थों को साधते रहे हैं। यही वजह है कभी मगरे के शेर के नाम से पहचाने जाने वाले देवीसिंह भाटी बूढ़े शेर की उस नियति को ही हासिल हो गये जिसमें उसको उसके जंगल से ही खदेड़ दिया जाता है। भाटी के लिए अब भी समय है, वे चाहें तो अपनी राजनीतिक विरासत को पल्लवित होता देख सकते हैं। लेकिन उन्हें इसके लिए समझना यह होगा कि वे जिन पर अब तक भरोसा करते आए हैं, वे भरोसे लायक नहीं हैं। होते तो लगातार तीन चुनावों में भाटी की भद ऐसी नहीं पिटती जैसी विधानसभा चुनावों के बाद फिर लोकसभा के चुनावों में पिटी और स्थानीय निकाय चुनावों में उसका कुछ अब बचा ही नहीं! 
कांग्रेस की बात करें तो अपनी अपरिपक्वता के चलते क्षेत्रीय क्षत्रप बनने की असफल कोशिश में लगे एक रामेश्वर डूडी फिलहाल हाशिये पर हैं और उतर भीखा म्हारी बारी की तर्ज पर दूसरे डॉ. बीडी कल्ला हाशिये से मुख्यधारा की राजनीति में लौट आए हैं। वैसे डॉ. कल्ला के बारे में यह माना जाता है कि वे प्रतिद्वंद्वियों की जरूरत नहीं रखते, राजनीति करने के उनके तौर तरीके खुद ही उनके प्रतिद्वंद्वी हो लेते हैं। 2018 का विधानसभा चुनाव जीत कर सूबे की सत्ता में नम्बर तीन भले ही वे हो लिए हों, पर राजनीति और शासन करने के उनके तरीके पहले से बदतर हुए हैं। इसकी बानगी के तौर पर बीकानेर नगर निगम के चुनाव परिणामों को देख सकते हैं। चुनाव की घोषणा के साथ ही यह माना जाता रहा कि बीकानेर नगर निगम में कांग्रेस अपना बहुमत जैसे-तैसे भी बना लेगी। लेकिन मिले परिणामों से महापौरी दूर की कोड़ी हो गई। 80 पार्षदों के निगम में कांग्रेस अपने मात्र 30 पार्षद ही जिता पायी जबकि मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा अपने 38 पार्षद जितवा कर बेहतर स्थितियों में आ गयी। परिणामों के फौरी विश्लेषण से लगता है कि देवीसिंह भाटी बाधा नहीं बनते तो भाजपा बहुमत का आंकड़ा आसानी से पा लेती।
कांग्रेस के पिछडऩे की बड़ी वजह चुनाव संचालन कार्य डॉ. बीडी कल्ला और कन्हैयालाल झवंर को देना रहाझंवर ने रुचि नहीं दिखायी, अपने कुछ हितों की पैरवी कर बाकी सब-कुछ उन्होंने डॉ. बीडी कल्ला पर छोड़ दिया। डॉ. कल्ला राजनीति को जिस तरह साधते रहे हैं उसमें उनके निजी स्वार्थ, व्यक्तिगत पसन्द-नापसन्द पार्टी हित पर हावी रहते हैं। बीते चालीस वर्षों में शहर कांग्रेस की राजनीति में दूसरी पंक्ति तक पहुंचे कितने ही कार्यकर्ताओं को इन्होंने इस कदर निराश किया कि वे कहीं के नहीं रहे। वहीं डॉ. कल्ला के अधिकांश कार्यकर्ता आरएसएस के प्रकल्प हिन्दू जागरण मंच द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित जागरण यात्रा में मुखर भूमिका में देखे जा सकते हैं। ऐसे में एक पार्टी के तौर पर स्थानीय कांग्रेस के अस्तित्व को बचाकर कैसे रखा जा सकेगा, यह विचारणीय है। यही वजह है कि कई उम्मीदवार तो कांग्रेस ने ऐसे दिये जिनका और जिनके परिवार का कांग्रेस से कभी नाता तक नहीं रहा। कांग्रेस के टिकट बंटवारे में कई कर्मठ कार्यकर्ता तो इतना निराश हुए कि उन्हें बगावत करनी पड़ी और वे जीते भी गए। कांग्रेस के वर्तमान हश्र की बड़ी वजह संगठन पर भरोसा ना करके सत्तासीनों पर आश्रित रहना भी रहा। जिसका खमियाजा यह भुगत रही है।
हालांकि टिकट बंटवारे पर असंतोष भाजपा में भी रहा लेकिन इसे बड़ी चतुराई से मैनेज कर लिया गया। सूबे में सरकार के न होते भी इसके सुखद परिणाम इन्हें मिले। बिना उम्मीद नगर निगम में उसने बहुमत हासिल कर लिया है। डॉ. कल्ला अपनी राजनीति की शैली से उलट के उलटकर सक्रियता दिखाते तो कांग्रेस को बहुमत हासिल होना टेढ़ी खीर नहीं थी। बावजूद बुरे परिणामों के, डॉ. कल्ला राजनीति के अपने तौर-तरीकों को बदल पायेंगे, लगता नहीं है।
—दीपचन्द सांखला
21 नवम्बर, 2019

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