Thursday, August 22, 2019

गोवंश और हिंदू होने का धर्म

विद्यार्थी जीवन में एक किस्सा सुना करते थेपरीक्षा में गाय पर निबन्ध लिखना था, छात्र ने इतना ही लिखा 'गाय हमारी माता है, आगे कुछ नहीं आता है'। कॉपी जांचने वाले अध्यापकजी ने उस पर लिख दिया कि 'बैल हमारा बाप है नम्बर देना पाप है'। पचास वर्ष पूर्व के इस किस्से में अध्यापकजी को ध्यान ही नहीं रहा कि बेचारा बैल बाप कैसे हो सकता है। इसे अध्यापकजी का अधकचरा ज्ञान मानें या तुकबंदी की हड़बड़ी। सब स्कूलों में यह किस्सा आम था। बात को टेर देने के लिए किस्से से शुरुआत चाहे की हो, गाय का हमारे यहां धार्मिक महत्त्व रहा है।
यह महत्त्व जब तक धार्मिक रहा तब तक सब ठीक-ठाक रहा, जब से उसका साम्प्रदायीकरण हुआ, तब से ना केवल खेती-पशुपालन में लगा किसान परेशान है बल्कि स्वयं गाय और उसका वंश भी दुर्गति का शिकार है। और अब तो करेला नीम चढ़ा यह कि साम्प्रदायिकता राजनीति से लेपी जाने लगी है।
'भारत एक कृषि प्रधान देश है' जैसा जुमला सुनते-सुनाते इतना घिस गया है कि किसान, पशुपालक और गोवंश व्यापार से आजीविका चलाने वाले कमजोर वर्गों के भारतीय बड़ी भारी तकलीफ में आ लिये हैं। अधिकांश खेतिहर-किसान उपज का पूरा मूल्य ना मिलने से पहले ही परेशान हैं। कोढ़ में खाज यह कि पूरक आमदनी की पशु आधारित उसकी आजीविका गोवंश के सांप्रदायिक राजनीतीकरण से बुरी तरह प्रभावित हुई है। भारत की पशुधन आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था के चलते ही बीकानेर कभी एशिया में ऊन की सबसे बड़ी मण्डी रहा तो इसी बदौलत उत्तरी भारत में गुजरात का ब्रांड 'अमूल' और राजस्थान में उरमूल का ब्रांड 'सरस' आज हमें सुलभ होता है।
बुआई में ट्रैक्टर और ढुलाई में ऑटोरिक्शा का जब से चलन बढ़ा तब से बैलों की जरूरत खत्म हो गई। ऐसे में बछड़ों की नियति भी दूध ना देने वाली गायों (बाखड़ी) के साथ बूचडख़ाने जाने की रह गई। इन्हीं सब के चलते 90 प्रतिशत मांसाहारियों की इस दुनिया में ब्राजील के बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ा गोवंश मांस निर्यातक है। इतना ही नहीं, केन्द्र में संघ पोषित शाह-मोदी सरकार में गोवंश निर्यात की मात्रा प्रतिवर्ष बढ़ रही है। दुनिया में खाये जाने वाले कुल गोवंश मांस का 20 प्रतिशत की आपूर्ति अकेले भारत  करके जहां दूसरे नंबर पर टिका है वहीं पाकिस्तान मात्र 0.62 प्रतिशत की आपूर्ति करके 14वें स्थान पर है। ऐसा तो तब है जब देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी हिन्दू है और मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि कुल मिलाकर भारत की लगभग 70 प्रतिशत आबादी मांसाहारी है। कश्मीरी पंडितों के अलावा पूर्वी उत्तरप्रदेश से लेकर बिहार, झारखण्ड, ओडिशा और बंगाल के ब्राह्मणों का कुछ समुदाय ही जब घोषित मांसाहारी है तो दूसरे वर्गों का तो कहना ही क्या! 2014 के रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के सर्वे के अनुसार बंगाल की मात्र 1ï.4 प्रतिशत, तेलंगाना की 1.3 प्रतिशत, आंध्रप्रदेश की 1.75 प्रतिशत, तमिलनाडु की 2.35 प्रतिशत, झारखंड की 3.25 प्रतिशत, बिहार की 7.55 प्रतिशत आबादी ही शाकाहारी है।
यह सब बताने का मकसद इतना ही है कि सदियों से जैसी हमारी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्थाएं रही हैं, राजनीति के लिए उसे ध्वस्त ना होने दें। अलावा इसके हम समग्र भारतीयता के सन्दर्भ में शाकाहारी होने का जो दुराग्रह रखते हैं, वह देश के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। दलित और मुसिलम समुदायों के पीढिय़ों से गोवंश व्यापार से आजीविका में लगे लोगों को आतंकित कर उन्हें रोजी-रोटी से महरूम करना न्याय संगत नहीं है। उल्लेखनीय है कि बड़े बूचडख़ानों के अधिकांश मालिक उच्चवर्गीय हिन्दू-जैन हैं, गोवंश मांस का निर्यात लगातार बढ़ रहा है। गौर करने लायक बात यह भी है कि परम्परागत तौर पर पशुधन व्यापार में लगे कमजोर वर्गों के समुदाय तथाकथित गोरक्षकों द्वारा मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं से आतंकित होकर इस धंधे को छोड़ रहे हैं, बावजूद इसके गोवंश मास का निर्यात बढ़ रहा है तो कैसेï? यह समझ से परे है। 
दूसरी ओर लगातार बढ़ रहे आवारा गोवंश से किसान परेशान हैं। भारत के अधिकांश खेतों में चहारदीवारी और तारबन्दी नहीं होती जिसके चलते आवारा गोवंश अक्सर खड़ी तैयार फसलों को नष्ट कर रहे हैं, ऐसे में किसान दोहरी मार झेल रहा है, एक तो उसकी फसलें आवारा गोवंश द्वारा कभी भी नष्ट हो सकती है, वहीं अपने नाकारा गोवंश को वह बेचना भी चाहे तो खरीदेगा कौन? शहरों का हाल और भी बुरा है, सड़कों पर आवारा गोवंश आम शहरियों की परेशानी का सबब है, इनकी मार से जब-तब मानवमौतों के समाचार सुनने को मिलते हैं। गोशालाओं में जाएंगे तो हर गोशाला में क्षमता से लगभग दुगुने-तिगुने गोवंश मिलेंगे तो सरकारी अनुदानों के चलते नंदीशाला के नाम पर नई दुकानदारियां शुरू हो गईं हैं। तय मानकों के अनुसार शायद ही कोई गोशाला या नंदीशाला मिलेगी।
गोरक्षा की आड़ में बेरोजगारों को नया अवैध धंधा मिल गया है। ऐसे समाचार भी हैं कि गोवंश का अवैध परिवहन करने वालों से ये तथाकथित गोरक्षक प्रति ट्रक प्रति इलाका पांच से दस हजार रुपए तक वसूली करने लगे हैं, नहीं देने पर जाति-धर्म पता करके भीड़ इक_ी कर जो मरजी आये करते हैं। ऐसी घटनाएं आम हो गयी हैं। ऐसी अराजकता समाज के लिए अच्छी इसलिए नहीं है कि इस तरह के दुस्साहस से ही जब आजीविका चलानी है तो केवल गोरक्षा के नाम पर ही क्यों, अन्य तरीके ईजाद होने में देर नहीं लगेगी। हिन्दू होने का धर्म भारतीय सनातन का निर्वहन करना है ना कि समूह विशेष के सत्ता लालच की पूर्ति करना।
धर्म के नाम पर ऐसी गुंडई उचित नहीं है। जिन्हें इस बिना पर राज हासिल करना है, वे राज का सुख लेते हैं, भोगता समाज है। इन सबका धर्म से कोई लेना देना नहीं है। संघ-जनसंघ (वर्तमान में संघ-भाजपा) के बारे में स्वामी करपात्रीजी महाराज 1970 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू धर्म' में इसे अपने इन कथनों के साथ स्पष्ट कर चुके हैं।
'संघ में जितना चन्दा मांगा जाता है उतना चन्दा कहीं भी नहीं मांगा जाता। पैसे-पैसे तक का चन्दा इकट्ठा किया जाता है। हस्ताक्षर आन्दोलन में, गोरक्षा आन्दोलन में लाखों के चन्दे बटोरे गये।' (पृष्ठ 198)
'संघ के चरित्र एवं संस्कार सब मन:कल्पित होने से निरर्थक एवं हानिकर हैं। संघ के संसर्ग से जाल फरेब, झूठ, बेईमानी, विश्वासघात, धोखाधड़ी का राष्ट्र में फैलाव हुआ है। यह प्रत्यक्ष है।' (पृष्ठ 209)
'गोरक्षा जैसे कार्य के लिए सत्याग्रह तक में संघ की प्रवृत्ति छल-छद्म से रिक्त नहीं होती।....संघ का हिन्दुत्व, संघ की संस्कृति सर्वथा धार्मिक तथा शास्त्रीय परम्परा से बहिष्कृत है।' (पृष्ठ 216-217)
'एक नेता ऐसे भी मुझे मिले जिसने कहा कि गो हत्या बन्द हो जाने पर हम लोग जनता से क्या कहकर वोट मांगेंगे।' (पृष्ठ 223)
—दीपचन्द सांखला
22 अगस्त, 2019

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