लोकतंत्र की आदर्शतम बहुदलीय संसदीय प्रणाली में ही धुर विरोधी विचार वाली और
व्यक्ति आधारित पार्टियों का अस्तित्व एक साथ संभव है। लोकतंत्र के इस नकारात्मक
पक्ष को उसका सकारात्मक पक्ष मान सकते हैं। यह छूट लोकतंत्र में ही संभव है। शासन
की आदर्शतम व्यवस्था के तौर पर 'अराजकÓ शासन की कल्पना की जाती है, लेकिन उसके लिए नागरिक के त्रुटिहीन होने की
शर्त है जबकि कमियां होना ही मनुष्य होने की पहचान है। अन्य जीवों की जो कमियां
गिनवाई जाती है, वे कमियां नहीं
जीव विशेष की प्रकृति में आ जाता है।
बात भारतीय जनता पार्टी के सन्दर्भ से करनी है, वहीं लौटते हैं। दक्षिणपंथी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 1951 में स्थापित राजनीतिक इकाई जनसंघ नामांतरण के
बाद भाजपा हुई, इस तरह इस
राजनीतिक दल का इतिहास लगभग अड़सठ वर्षों का हो रहा है। संघ और भाजपा के घालमेली
अस्तित्व की अब तक कई रंगतें रही हैं। जनसंघ अपने विचारों पर जब तक अडिग रहा उसका
कोई खास अस्तित्व नहीं बन पाया—उदार लोकतांत्रिक
व्यवस्था में कट्टरपंथ की गुंजाइश या कहें अवधि लम्बी नहीं हो सकती। इसे वामपंथी
पार्टियों के अस्तित्व से भी समझा जा सकता है।
भाजपा के वर्तमान अस्तित्व का मूल श्रेय अटलबिहारी वाजपेयी को दिया जाना
चाहिए। वाजपेयी का शुरुआती प्रशिक्षण संघ का चाहे हो लेकिन व्यावहारिक राजनीति का
प्रशिक्षण देश के शुरुआती संसदीय नेताओं की संगत में हुआ जो वर्तमान नेताओं से
ज्यादा लोकतांत्रिक, उदार और संजीदा
थे। ऐसे प्रशिक्षण का अभाव नरेन्द्र मोदी में आसानी से देखा जा सकता है। वाजपेयी
के नेतृत्व में ही भाजपा ने अपनी उपस्थिति देशव्यापी बनायी। यह वही भाजपा है,
जिसके 1984 में लोकसभा में मात्र दो सदस्य थे और उसके 12 वर्ष बाद ही ऐसी स्थितियां बनी कि मात्र सोलह
दिन के लिए ही सही देश की इस दक्षिणपंथी रुझान वाली पार्टी के अटलबिहारी वाजपेयी
प्रधानमंत्री बने और फिर 1999 से वे ही पूरे
पांच वर्ष प्रधानमंत्री रहे। यह स्पष्ट करना जरूरी है कि ना पूर्ण बहुमत की सरकार
की ही पैरवी करने वालों को पूर्ण लोकतांत्रिक कहा जा सकता और ना ही किसी विशेष
पार्टी मुक्त भारत की बात करने वालों को। बहुदलीय संसदीय प्रणाली ना केवल
राष्ट्रपति प्रणाली से ज्यादा लोकतांत्रिक है बल्कि दो दलीय संसदीय प्रणाली से भी
बेहतर है। अधिनायकत्व की आशंका जिस तरह राष्ट्रपति प्रणाली और दो दलीय प्रणाली में
बनी रहती है, वैसी ही आशंकाएं
बहुदलीय संसदीय प्रणाली में किसी एक पार्टी को पूर्ण या तीन चौथाई बहुमत में भी कम
नहीं होती। बहुदलीय संसदीय प्रणाली में ही गठबंधन सरकारों की संभावना बनती है जो
प्रकारान्तर से समन्वय की जरूरत के साथ अपनी प्रकृति में ज्यादा लोकतांत्रिक होने
की गुंजाइश लिए होती है। गठबंधन सरकारों में अनैतिक दबाव की बात हो सकती है,
लेकिन इतना बर्दाश्त तो करना होता है।
आजादी बाद के शुरुआती चुनाव परिणामों पर इसलिए बात नहीं करते क्योंकि आजादी की
लड़ाई कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ी गई और देशव्यापी अस्तित्व तब उसी पार्टी का था,
अन्य पार्टियां अपना अस्तित्व बनाने में लगी
थी। लेकिन 1967 आते-आते अन्य दल
ज्यों ही अस्तित्व में आए, कांग्रेस के लिए
वे चुनौती बन गये। इसके अलावा जिन चुनावों में पूर्ण बहुमत से सरकारें बनी उनका
विश्लेषण इन्हीं सन्दर्भों में करेंगे तो यह विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता। 1971,
1977, 1980, 1984 या 1991 अथवा 2014 के चुनावों के परिणाम या तो जनता की प्रतिक्रिया स्वरूप थे
या आवेश से ग्रस्त। हालांकि अधिनायकत्व की आंच 1971 और 2014 में बनी सरकारों
से ही महसूस की गई, इसीलिए गठबंधन की
सरकारें लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए ज्यादा अनुकूल कही जा सकती हैं। अलग-अलग विचार
वाली पार्टियों की गुंजाइश वाली लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विमर्श की संभावनाएं
एवं अनुकूलताएं ज्यादा होती हैं।
इसलिए जो नेता पूर्ण बहुमत के शासन की बात करते हैं उनमें अधिनायकत्व की बू
महसूस की जा सकती है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह इसी प्रवृत्ति के नेता हैं। भाजपा
वर्तमान में जब अपने सबसे अच्छे दौर से गुजर रही है तो उसे अपने भीतर को टटोलना
चाहिए कि यह सर्वोत्कृष्ट दौर उसे एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव हो सका है।
2011 और उसके बाद जब अन्ना
हजारे के प्रायोजित विरोध के चलते कांग्रेस विरोध का देशव्यापी माहौल बना और भाजपा
ने जून 2013 में नरेन्द्र मोदी को
पार्टी का लगभग सर्वेसर्वा नियुक्त कर दिया तभी अपनी एक टिप्पणी में आगाह कर दिया
था कि भाजपा ने अपने अनुकूल समय में प्रतिकूल निर्णय ले लिया है। लोकतांत्रिक
मूल्यों में थोड़ा-बहुत विश्वास करने वाले भाजपाइयों को अब वह बात सत्य लग सकती
है। 2013 में मोदी राष्ट्रीय
परिदृश्य में नहीं भी आते तब भी 2014 में केन्द्र में भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनने की पूरी
गुंजाइश थी। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी ने अपने इतिहास का
दिखावटी अच्छा दौर चाहे देख लिया हो लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि शीर्ष के बाद
ढलान को भोगना नियति होता है। पार्टी के लिए यह समय है मोदी और शाह के विकल्पों पर
विचारने का अन्यथा इतिहास इसी स्वर्णकाल को कलिकाल में दर्ज करते देर नहीं लगाएगा।
रही संघ की बात तो अटलबिहारी वाजपेयी ने संघ के साथ संतुलन को जिस तरह साध रखा था
उसी चतुराई की जरूरत अब भी है।
लोकतांत्रिक आकाश के इन्द्रधनुष में अनेक विचारों का होना ही उसे खूबसूरत
बनाता है। द्वन्द्व की गुंजाइश भिन्न विचारों में ही संभव है, बिना वैचारिक द्वन्द्व के अधिकतम मानवीय
व्यवस्था संभव नहीं। फुलप्रूफ शासन व्यवस्था की उम्मीद करने वाले को विचारना इस
तरह भी चाहिए कि जब मनुष्य खुद ही पूर्ण नहीं है तो उससे किसी फुलप्रूफ शासन
व्यवस्था की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि व्यक्ति या
विचार-विशेष के प्रभुत्व की पैरवी करना राख में दबी हिंसा की चिनगारी को ही हवा
देना है। इसलिए संजीदा राजनेताओं का लोकतांत्रिक मूल्यों के आलोक में सक्रिय होना
जरूरी है, फिर वह भाजपा हो या
कांग्रेस या वामपंथी-समाजवादी और व्यक्तिवादी पार्टी ही क्यों ना हो। चूंकि अभी
देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा है इसलिए भाजपा के हवाले से ही बात की गई है।
—दीपचन्द सांखला
14 फरवरी, 2019
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