Thursday, June 28, 2018

बीकानेर के मीडिया को 'पाटाई नोस्टाल्जिया' से अब तो बाहर आ लेना चाहिए


बीकानेर का मीडिया जब-तब अपनी बात पाटों के माध्यम से कहता रहा है। चार दशक पूर्व शुभू पटवा के संपादन में निकलने वाले 'सप्ताहांत' में डॉ. राजानन्द भटनागर का लोकप्रिय कॉलम 'पाटा गजट' हो या कजलीदास हर्ष के पाक्षिक 'चौकसी' का 'पाटातरी'—समयानुसार उनकी चर्चा राजनेताओं और उनके हलर-फलरियों में होती रही है। कुछ चर्चा उनमें भी होती रही है, जो राज-समाज में रुचि रखते हैंवैसे आज ही की तरह शेष शहरियों का कोई खास सरोकार तब इस सब में रहा हो, प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता।
आजादी बाद के इन सत्तर वर्षों में राजनीतिक परिवर्तनों के समानांतर जो भी सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन देश में होते और देखे जाते रहे तो उन सबसे बीकानेर भी अछूता कैसे रहता? इनसे इतर बीते तीन-चार दशकों में तकनीक और संचार माध्यमों के भगदड़ीय विकास ने समाज के रंग-रूप और तौर-तरीकों को लगभग पलटकर ही रख दिया।
राजनैतिक सन्दर्भों में बीकानेर की बची-खुची कसर विधानसभा सीटों के परिसीमन ने पूरी कर दी। परकोटे के भीतरी हिस्सों को छोड़ इस परिसीमन ने शहर के राजनीतिक जोगराफिये को पूरी तरह बदल दिया है। बावजूद इस सब के, बीकानेर का मीडिया अब भी पाटों के हवाले से ही शहर के मन को टटोलने में लगा रहता है। इसे और बेहतर समझने के लिए अंग्रेजी शब्द 'नोस्टाल्जिया' के सहारे पाटा नोस्टाल्जिया कहना ज्यादा उचित लगता है। 'घर की याद जो रोग बन जाए', 'भूतकाल के किसी क्षण-अवधि की याद' और 'यह इच्छा की वह क्षण फिर लौट आए ऐसे'—नोस्टाल्जिया के इन हिन्दी भावार्थों से इसे अच्छे से समझ सकते हैं।
शहर के पाटों की संस्कृति उस समर्थ समाज की संस्कृति है जो रजवाड़ों के समय से ही देश-समाज और राजनीति में खूब प्रभावी रहे और कमोबेश अब भी हैं। बीकानेर के सन्दर्भ में इन पाटों के जिक्र में समाज का वह बड़ा वर्ग जिसमें अन्य पिछड़ी जातियां, अनुसूचित जातियां और अल्पसंख्यक वर्ग आता है, यह बड़ा वर्ग इस पाटा संस्कृति से लगभग 'अलूफ' है। ऐसे में शहर के मन को हम कब तक इन 'पाटों' के माध्यम से टटोलते रहेंगे, वह भी तब जब इन परम्परागत पाटों ने खुद अपने तौर-तरीके बदल लिए हों। शहर के अधिकांश पाटे मुख्यत: तीन समुदाय के मुहल्लों में मिलते हैं, ओसवाल वणिक, माहेश्वरी वणिक और पुष्करणा ब्राह्मण। इनमें से दोनों वणिक समुदाय ने इन पाटों से दूरी लगभग बना ली है, पुष्करणा समुदाय के लोगबाग अपने-अपने चौक-मुहल्लों के इन पाटों पर कुछ रौनक अब भी बनाए हुए हैं, लेकिन इस उपस्थिति का अब भी मकसद पाटा संस्कृति को बचाए रखना ही है,  कहना अतिशयोक्त होगा। उन सब के बीच बैठने वालों को वहां देर रात तक बैठने वालों के बैठने और वहीं सो जाने के कारणों और मजबूरियों का पता है।
इसमें दो राय नहीं कि शहर में सबसे मुखर पुष्करणा समुदाय है, जिसे मनीषी डॉ. छगन मोहता कण्ठबली भी कहा करते थे, बावजूद इसके ऊपर उल्लेखित तमाम बदली परिस्थितियों में क्या इन पाटों के माध्यम से शहर के मन की बात को टटोल सकते हैं?
परिसीमन के बाद बाहरी होने का ठप्पा नये बने पूर्व विधानसभा क्षेत्र पर भले ही लगाएं, बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र भी अब कितना''भीतरी' रह गया है! जवाहर नगर, मुरलीधर व्यास कॉलोनी को लगभग भीतरी शहर मान भी लें तो रामपुरा बस्ती, मुक्ताप्रसाद कॉलोनी, बंगला नगर और उसकी उप कॉलोनियां सर्वोदय बस्ती, प्रताप बस्ती, नत्थूसरबास, श्रीरामसर, सुजानदेसर, गंगाशहर पुरानी लाइन, भीनासर के पश्चिम जैसा बड़ा हिस्सा इस पश्चिमी विधानसभा क्षेत्र में शामिल हो लिया और जिस तरह से यह इलाका फैला है, ऐसे में इन सब इलाकों के बाशिन्दों का मन पाटों के माध्यम से कितना'क टटोल पाएंगे, कहना मुश्किल है।
'सप्ताहांत' के पाटा गजट और 'चौकसी' की पाटातरी कॉलमों के जमाने तक बीकानेर शहर ही क्यों, अद्र्धांग कोलायत विधानसभा क्षेत्र तक का मन टटोल लिया जाता था, जिला-प्रदेश, देश-विदेश के लफ्फे हो लेते थे। लेकिन बदले जोगराफिया में क्या वैसा ही अब भी संभव है? पाटों पर भले ही आज भी शहर के मुखर और प्रभावी समुदायों के लोग हथाई करते हों, लेकिन नहीं लगता कि विस्तार खाए इस शहर के मन की बात करना तो दूर, लफ्फे भी अच्छे से किये जाते हों। इस जमाने में जब तकनीक से मन के मुखर होने के माध्यम चौफालिए भले ही हो लिए हों, पर अवाम के मन की थाह पाना अब ज्यादा मुश्किल हो गया है।
दीपचन्द सांखला
28 जून, 2018

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