समाज को स्वयं के अवलोकन के लिए किसी बाहरी-भौतिक आईने की जरूरत नहीं होती।
कोई ऐसा प्रयास कर भी रहा है तो वह या तो
अपने को बहला रहा होता है या खुद ही को धोखा दे रहा है। चूंकि समाज बहुआयामी होता
है अत: उसका एक आयाम दूसरे के आईने की भूमिका निभा रहा होता है। बस जरूरत इतनी ही
है कि हम ऐसे विवेक को अपने में साध लें। प्रतिकूलता यही है कि इस दौर में ऐसा
विवेक समाज से लगातार गायब होता जा रहा है।
हाल के दो आन्दोलनों से इसके आकलन और समझ से रू-बरू हो सकते हैं। पहला,
राजस्थान में सरकारी सेवारत डॉक्टरों की हड़ताल
और दूसरा संजय लीला भंसाली की आने वाली फिल्म पद्मावती के हो रहे भयावह विरोध से।
डॉक्टरों और शासन के बीच समझौता हो चुका है और डॉक्टर काम पर लौट आए हैं। ऐसी
घटनाओं के अच्छे-बुरे परिणामों को भूलने की समय सीमा इस दौर में जिस गति से सिकुड़
रही है, उस पर विचारने से चिन्ता
होने लगती है कि इस तरह संवेदनाएं समाज में बचेंगी भी कि नहीं। (बुरे परिणामों में
वे खबरें हैं जिनसे मालूम होता है कि डॉक्टरों की इस हड़ताल के चलते कई मरीज इलाज
के अभाव में मर गये।)
डॉक्टरों की यह हड़ताल टूटने से एक दिन पूर्व के अपने ट्वीट को साझा कर रहा
हूं। डॉक्टरों को उनकी इस हड़ताल के लिए भुंडाए जाने पर चाहें तो इस ट्वीट से पूरे
परिदृश्य का आकलन कर सकते हैं।
राजस्थान में डॉक्टरों की हड़ताल : जिस समाज का प्रत्येक
समर्थ घोर लालच और स्वार्थ की लालसा मन में रखने लगा हो, वहां डॉक्टरों से तो क्या, किसी से भी मानवीय होने की कामना बेमानी है।
इसे और खोलकर कहने की गुंजाइश तो नहीं लगती, फिर भी यह समझना पर्याप्त है कि जब समाज के सर्वाधिक
प्रभावी समर्थ नेताओं में अधिकांश भ्रष्ट हों, अधिकांश अधिकारी-उच्चाधिकारी भ्रष्ट हों तथा लगभग व्यापारिक
और औद्योगिक घराने भ्रष्ट हों, उस समाज में 'धरती के भगवानÓ जैसे जुमलों से डॉक्टरों को प्रभावित करने की कोशिश व्यर्थ
है। ऐसे सामाजिक हालातों में वे भी संवेदनहीन और भ्रष्ट क्यों नहीं हो सकते।
इसी तरह से प्रदेश में और आसपास के प्रदेशों के उन इलाकों में जहां प्रभावी
क्षत्रिय आबादी है, वहां-वहां संजय
लीला भंसाली की आने वाली फिल्म पद्मावती का विरोध हिंसक चेतावनियों के साथ हो रहा
है।
चिंता यह नहीं है कि भंसाली की पद्मावती रिलीज हो पाती है कि नहीं; असल खतरा अभिव्यक्ति की आजादी पर बढ़ती दबंगई
से है। अभिव्यक्ति की आजादी की जब बात कर रहे हैं, तब विवेकसम्मत तरीके से कहने की आजादी की बात ही कर रहे
होते हैं, किसी अनर्गलता की नहीं।
यूं तो इतिहास पर विवाद खड़े किए जाते रहे हैं लेकिन ऐसे इतिहासकार, जिनकी दुनिया के अपने समकक्षों में प्रतिष्ठा
है, उनके कहे को खारिज करते
हैं तो अराजकता की हद तक जाकर किसी भी तथ्य को खारिज कर सकते हैं। ऐसी प्रवृत्ति
समाज के उन समूहों में लगातार बढ़ती दीखने लगी है, जिन्हें सामान्यत: समर्थ, समृद्ध और दबंग माना जाता रहा है।
व्यक्ति की कल्पना से अनर्थ भी सृजित हो सकते हैं, जायसी ने नहीं सोचा होगा कि पद्मावती को लेकर
जो काव्य उन्होंने रचा उसे इतिहास मान कर बखेड़ा खड़ा कर दिया जायेगा। के. आसिफ ने
कभी मुगले आजम बनाई, इस असहिष्णु समय
में उसे बनाना संभवत: संभव ही नहीं होता।
पद्मावती फिल्म अभी तक ना रिलीज हुई है, और ना इसकी अभी तक कोई स्क्रीनिंग हुई है,
सेंसर बोर्ड ने भी अभी तक
इसे पास नहीं किया है। चिन्ता की वजह यही है कि केवल सुनी-सुनाई बातों पर यकीन कर
एक समर्थ और शिक्षित समूह इस पर विचार और विमर्श की बिना गुंजाइश रखे किस कदर
उद्वेलित हुआ जा रहा है।
राजस्थान खासकर क्षत्रिय समाज का लोकप्रिय घूमर नृत्य पद्मावती के लिए
फिल्माया गया है, उसकी वीडियो
क्लिप फिल्म के प्रचारार्थ जारी वीडियो में से एक है, जिसे टीवी चैनलों में कई बार दिखाया जाने लगा है। बिना उसे
गौर से देखे विरोध इसलिए हो रहा है कि उसमें रानी को बिना घूंघट के नचवा दिया। इस
गीत को देखने से लगता है कि निर्देशक ने इसके फिल्मांकन में समाज की मर्यादाओं का
पूरा खयाल रखा है। इस गाने में एकमात्र जिस पुरुष को दिखाया गया, वह पद्मावती के पति राजा रतनसेन ही हैं। कोई
अन्य पुरुष इस गीत के दौरान किसी फ्रेम में दिखाई नहीं देता। जो समाज यदि इतनी छूट
भी नहीं देता, उसे अपने भीतर
झांकना शुरू कर देना चाहिए, अन्यथा तकनीक के
चलते जिस गति से समाज के अन्तर्संबंधों में बदलाव आ रहे हैं उसमें वे ना केवल
अप्रासंगिक हो जाएंगे बल्कि अपनी आगामी पीढिय़ों के लिए अलग तरह की कुंठाओं को भी
बो रहे हैं।
इस फिल्म पर आए दूसरे जिस एतराज को खुद भंसाली ने सिरे से ही खारिज किया है,
वह है अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती के बीच किसी
फैंटेसी-दृश्य का होना। फिर भी भंसाली एतराज करने वाले समाज के प्रतिनिधियों को
फिल्म रिलीज करने से पूर्व दिखाने को तैयार हैं। समाज के संजीदा लोगों को आगे आना
चाहिए। ये ज्यादा चिंताजनक है जब कुछ संजीदा सामाजिक लोग भी राजनीतिक नफे-नुकसान
का आकलन कर या तो चुप रहते हैं या विरोध की रस्म अदायगी भी करने लगे हों।
अपनी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में फिल्मों में अनर्गलता नियन्त्रण के लिए
सरकार की ओर से सेंसर बोर्ड भी बना हुआ है। यदि लगता है कि वह भी जिम्मेदारी से
काम नहीं कर रहा है तो फिर अपने सामाजिक होने की पड़ताल के लिए भी आईना क्यों न
देखें—हम खुद कितने जिम्मेदार
हैं।
—दीपचन्द सांखला
16 नवम्बर, 2017
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